रामपाल जी यूपी के शिक्षा आंदोलन के सैलीबरेटी थे। यूपी की माध्यमिक शिक्षा को बनाने में उनकी बड़ी भूमिका थी। वे चालीस सालों तक नजीबावाद(बिजनौर) के दो कॉलेजों में प्रिसिंपिल रहे। संभवत: चंद शिक्षकों को ही इतने लंबे समय तक प्रधानाचार्य पद और शिक्षक आंदोलन पर काम एक साथ करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। वे सबके प्यारे 'प्रिंसिपल साहब' थे। कल अचानक मनमोहन ने उनके बारे में खबर दी रामपाल सिंह जी नहीं रहे तो दिल को विश्वास नहीं हुआ। जिंदादिली और शिक्षा अधिकार की भावनाओं से ओतप्रोत रामपालजी की मौत की खबर सदमे की तरह थी। दो दिन तक सोचता रहा आखिरकार ऐसा क्या हुआ है कि उनकी मौत हुई और किसी भी राष्ट्रीय मीडिया ने नोटिस तक नहीं लिया। नजीबावाद में उनकी मौत 2 अक्टूबर 2009 को हुई। हजारों लोगों ने उनकी अंतिम यात्रा में शिरकत की,इसके बावजूद राष्ट्रीय मीडिया ने कवरेज नहीं दिया।
रामपाल सिंह निष्ठावान शिक्षक,प्राचार्य,शिक्षक आंदोलन के योद्धा,वामपंथी और आर्यसमाजी विचारों के पोषक थे। उनके परिवार में दो बेटे हैं। एक बेटा नजीबावाद में वकील है, दूसरा बेटा देहरादून के डीएवी कॉलेज में प्रोफेसर है। रामपालजी की पत्नी श्रीमती लीलावती अभी जिंदा हैं। रामपालजी अपने सार्वजनिक जीवन में जो कुछ कर पाए उसमें उनकी पत्नी की महत्वपूर्ण भूमिका थी। रामपालजी ने आरबीएस इंटर कॉलेज,नांगल और आदर्श ग्रामीण इंटर कॉलेज ,चंदक में 40 सालों तक प्रधानाचार्य पद पर काम किया था। सन् 1954 से 1994 तक वे प्रधानाचार्य रहे। उन्होंने शिक्षक के रूप में मात्र एक साल नौकरी की थी। उनके पिता उम्मेद सिंह चाहते थे कि उनका बेटा नजीबावाद आकर अपने इलाके में शिक्षा का प्रसार करे। इसके लिए रामपालजी ने शिक्षक की नौकरी छोडकर आरबीएस कॉलेज के प्रधानाचार्य की नौकरी ग्रहण की, इस कॉलेज को बनाने में उनकी केन्द्रीय भूमिका थी। वे विगत चालीस सालों से उत्तरप्रदेश माध्यमिक शिक्षक सं घ के नेता थे। शिक्षक आंदोलन में अनेकबार जेल भी गए। अनेक बार उसके राज्य पदाधिकारी भी रहे। शिक्षकों के अधिकारों की रक्षा में रामपालजी अग्रणी कतारों में रहे। उन्होंने कैंसर की अवस्था में एक अक्टूबर 2009 तक आरबीएस कॉलेज के प्रबंधक का काम किया,शिक्षकों के सैलरी बिल पर साइन किए और प्रबंधन के बाकी काम सम्पन्न किए। उनकी सक्रियता साधारण लोगों ,खासकर, शिक्षकों को प्रभावित करती थी। वे नजीबावाद के पांच-छह कॉलेजों की प्रबंध समिति के सदस्य भी थे। नजीबावाद की राजनीति में उनकी जबर्दस्त साख थी। सारी जिंदगी ईमानदारी और सादगी की कमाई पर जीने वाले रामपालजी के निधन से यूपी का शिक्षा जगत मर्माहत है। मृत्यु के समय उनकी उम्र 78 साल की थी। पिछले कुछ समय से वे कैंसर से जूझ रहे थे और अपनी सक्रियता बनाए हुए थे।
नजीबावाद के शिक्षा जगत का आज जो व्यापक परिदृश्य नजर आता है उसकी परिकल्पना रामपालजी के योगदान की अनदेखी करके नहीं की जा सकती है। उत्तरप्रदेश की सामंती जमीन में लोकतंत्र और शिक्षा का हराभरा वृक्ष लगाने में रामपाल जी की केन्द्रीय भूमिका थी। वे उत्तर प्रदेश के शिक्षक आंदोलन के प्रधानकर्त्ताओं में से एक थे। खासकर बिजनौर जिले में उनकी व्यापक जनता और खासकर शिक्षा जगत में जबर्दस्त साख थी, इतनी व्यापक जनप्रियता रामपाल जी ने वंश परंपरा से प्राप्त नहीं की थी, बल्कि अपने कर्मशील जीवन से अर्जित की थी। मुझे व्यक्तिगत तौर पर उनसे अप्रैल 1982 में उनसे साक्षात मिलने का मौका मिला था। उस समय उनका बड़ा बेटा दिनेश प्रताप सिंह मेरे साथ जेएनयू में पढ़ता था। इन दिनों देहरादून के डीएवी कॉलेत में प्रोफेसर है। दिनेश की शादी जेएनयू की ही आराधना से तय हुई थी। दोनों का प्रेम था। लेकिन पिता की मांग थी कि दिनेश -आराधना आर्यसमाजी पद्धति से नजीबावाद (बिजनौर) आकर शादी करें। दोनों ने उनकी बात रखी। मुझे पहलीबार रामपाल जी को देखने और उनसे बातें करने का वहीं पर मौका मिला था। रामपाल जी विचारों की दुनिया में आर्यसमाजी और वामपंथी विचारों के कायल थे। नजीबावाद की लोकतांत्रिक राजनीति में विगत चालीस साल से उनका दखल था। सभी दलों के लोग उन्हें सम्मान देते थे। सभी शिक्षकों के लिए वे 'प्रिंसिपल साहब' थे। हम सबने एक बेहतरीन शिक्षक और शिक्षकों के अधिकारों का संरक्षक खो दिया है। मेरे लिए तो यह व्यक्तिगत क्षति भी है।
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