तिब्बत के बौद्ध गुरू दलाईलामा विगत पचास सालों से भारत में रह रहे हैं। इनके आन्दोलन के राजनीतिक पृष्ठपोषकों के बारे में अधिकतर लोग कम ही जानते हैं।मिशेल चोसुदोवस्की ने चीन के पृथकतावादी आंदोलनों के साथ अमरीकी खुफिया एजेंसी सीआईए के पुराने संबंधों का विस्तार के साथ जिक्र करते हुए लिखा है कि चीन के पृथकतावादी आंदोलनों खासकर तिब्बत की स्वायत्तता के नाम पर दलाईलामा के आन्दोलन को सन् 1950 से 1974 तक सीआईए से आर्थिक मदद मिलती रही है। उसी मदद के सहारे दलाईलामा के नेतृत्व में सन् 1956 से आंदोलन आरम्भ हुआ जिसका चरमोत्कर्ष 1959 की खूनी बगावत में हुआ। इसमें कई हजार लोग मारे गए और दलाईलामा ने अपने एक लाख समर्थकों के साथ तिब्बत से भागकर भारत में शरण ली।
सीआईए ने दलाईलामा के युवा दस्तों को प्रशिक्षित करने के लिए लीडविले के पास कोलोराडो अमरीका में प्रशिक्षण शिविर लगाए और हथियारबंद जंग का प्रशिक्षण दिया। जिससे वे कम्युनिस्ट चीन के खिलाफ जंग जारी रख सकें। ये गुरिल्ला दस्ते समय-समय पर तिब्बत में दाखिल होते थे और हमले करते थे। इन गुरिल्ला हमलों की कड़ी का ही हिस्सा संभवत: मार्च 2008 का लासा कांड था। तिब्बती गुरिल्ला हमलावरों में तिब्बती युवा कांग्रेस के कार्यकर्त्ताओं के अलावा भाड़े के सैनिकों के जरिए हमले करवाए गए।ये सारे हमले सीआईए ने नियोजित किए थे। ये सारी बातें सीआईए के दस्तावेजों में आधिकारिक तौर पर प्रकाशित हो चुकी हैं। आरंभ के प्रशिक्षण शिविर सन् दिसम्बर 1961 में खत्म हुए,जबकि कोलोराडो में कैंप 1966 तक लगे रहे।
सीआईए में तिब्बती टास्क फोर्स का गठन किया गया जिसका जिम्मा इ. मैकार्थी को दिया गया। इसका मूल काम था तिब्बती गुरिल्ला सेना के साथ मिलकर चीनी सेना के सामने तरह-तरह की मुश्किलें खड़ी करना यह काम उन्होंने मुस्तैदी के साथ सन् 1974 तक किया। यानी तिब्बत की मुक्ति के रक्तरंजित अभियान की असफलता के बाद 15 वर्ष तक उसने सेवा की। इस आपरेशन का नाम था ''ST CIRCUS" मैकार्थी तिब्बती टास्क फोर्स का सन् 1959 से 1961 तक इंचार्ज था। बाद में ये जनाब वियतनाम और लाओस में सीआईए आपरेशनों को संचालित करने के लिए चले गए। सीआईए ने लंबे समय तक नेपाल के मस्तांग इलाके में खंबा जाति के दो हजार जुझारूओं को प्रशिक्षित करके गुरिल्ला सेना बनायी ,नेपाल में सीआईए के कैंप सन् 1974 तक रहे हैं। सन् 1974 में चीन सरकार के दबाव के बाद ये कैंप बंद हुए।
सन् 1962 के भारत चीन युध्द के बाद भारत और अमरीकी खुफिया एजेंसियों के बीच गहरे संबंध बने और तिब्बतियों को भारत की ओर से मदद मिली। रिचर्ड एम बेन्नेट ने '' तिब्बत ,दि 'ग्रेट गेम' एंड सीआईए'' (ग्लोबल रिसर्च,25 मार्च 2008) नामक लेख में लिखा है तिब्बत के धर्मगुरू दलाईलामा और सीआईए के बीच विगत पचास सालों से गहरे संबंध हैं। ''फ्री तिब्बत'' आंदोलन सीआईए की मदद से चल रहा है। इसके भोंपू के रूप में 'रेडियो फ्री एशिया'' से प्रचार अभियान चल रहा है। बैनेट ने लिखा है शायद ही तिब्बतियों का कोई भी आन्दोलन और एक्शन सीआईए की सहमति और जानकारी के बिना नहीं हुआ हो। बैनेट ने अपने आलेख में कैनेथ कॉनवॉय और जेम्स मोरीसन की किताब ''दि सीक्रेट वार इन तिब्बत'' के जरिए यह रहस्योद्धाटन किया है कि अमरीकी और भारतीय गुप्तचर विभाग के अफसरों ने तिब्बतियों को ट्रेनिंग दी।
जॉन कैनेथ नॉस ने जो तिब्बत टास्क फोर्स में कार्यरत था,उसने '' ऑरफेंस ऑफ दि कोल्ड वार'' नामक किताब में विस्तार के साथ लिखा है कि किस तरह सन् 1958से 1965 तक अमरीकी प्रशासन के आदेश पर तिब्बतियों के लिए सीआईए और उसके एजेंट जमीनी स्तर पर काम कर रहे थे। लेखक को अफसोस है कि तिब्बतियों का लक्ष्य पूरा नहीं हो पाया और सीआईए के आपरेशनों के कारण सैंकड़ों निर्दोष तिब्बती मारे गए। इसके अलावा अक्टूबर 1987 में तिब्बत में बगावत के स्वर सुनाई दिए जिनका चीनी प्रशासन ने कठोरता के साथ दमन किया,यह दमन चक्र सन् 1993 तक चला।
हाल के वर्षों में बड़े पैमाने पर ऐसी सामग्री प्रकाशित हुई है जिसमें साफतौर पर बताया गया है कि सीआईए और दलाईलामा के नेतृत्व में चलने वाले तिब्बत मुक्ति अभियान में गहरा संबंध है। जिम मान ने लिखा '' साठ और सत्तर के दशक में सीआईए ने तिब्बत के सवाल पर शस्त्र,धन, सैन्य प्रशिक्षण,हवाई मार्ग से समर्थन और अन्य किस्म की मदद'' दलाईलामा के आन्दोलन को दी। इसी तथ्य की ओर प्रसिध्द समाजविज्ञानी मिशेल परेन्टी ने भी ध्यान खींचा है। परेन्टी ने लिखा '' अमेरिकन सोसायटी फॉर फ्री एशिया संगठन, जो सीआईए का ही संगठन था,इस संगठन ने उत्साह के साथ तिब्बतियों के प्रतिरोध आन्दोलन के साथ जुड़े हुए दलाईलामा के बड़े भाई थुवतान नोरवू के नेतृत्व में चलने वाले आन्दोलन को व्यापक कवरेज दिया , दलाईलामा के दूसरे बड़े भाई ग्यालो थोनदप ने सीआईए की मदद से 1951 में तिब्बती गुप्तचर सेवा का गठन किया,बाद में उसे तरक्की देकर सीआईए प्रशिक्षित गुरिल्ला यूनिट का मुखिया बना दिया गया। यह शाखा ही थी जिसके जरिए तिब्बत से युवकों की सैन्य दलों में भर्ती की जाती थी।
सीआईए दस्तावेज बताते हैं कि सीआईए के द्वारा दलाईलामा के गुट को सालाना 1.7 मिलियन डालर की मदद दी जाती थी। इसके अलावा 180,000 डालर की सब्सीडी दी जाती थी। सन् 1969 में आकर सीआईए को एहसास हुआ कि तिब्बतियों को दी जाने वाली सहायता के अभीप्सित परिणाम नहीं निकल रहे हैं और सन् 1974 से सीआईए के द्वारा प्रदत्त राशि रोक दी गयी। इसके बाद ही दलाईलामा ने अपने जंगजुओं को हथियार छोड़ देने की अपील की। यही वह बिंदु है जहां पर तिब्बतियों की चीन के खिलाफ हथियारबंद जंग बंद होती है। जब तक उन्हें प्रत्यक्ष सीआईए मदद मिलती रही वे हथियारबंद जंग चलाते रहे।
जॉन क्रॉस ने '' ऑरफेंस ऑफ दि कोल्ड वार : अमेरिका एंड दि तिब्ब्तन स्ट्रगल फोर सर्वाइवल''(1999) में लिखा राष्ट्रपति फोर्ड को इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने तिब्बती आंदोलन को सीआईए द्वारा दी जा रही मदद बंद करा दी। बाद में यही मदद मानवाधिकार रक्षा आन्दोलन के नाम पर अन्य स्रोतों से दी जाने लगी और दलाईलामा को मानवधिकार के संत के प्रतीक के रूप में प्रचारित कर दिया गया। सन् 1979 में राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने दलाईलामा को अमेरिका आने की अनुमति दी और दलाईलामा वहां गए। तिब्बती आंदोलन के नए मददगारों में सेनेटरों के समूह,अमरीकी कांग्रेस के सदस्य, कांग्रेसनल स्टाफ के लोग प्रमुख हैं। यही वह बिंदु है जहां पर आकर बड़े पैमाने पर 'दि नेशनल इनडोवमेंट फोर डेमोक्रेसी' नामक संगठन की ओर से दलाईलामा को व्यापक आर्थिक और राजनीतिक मदद मिलनी शुरू हुई।
2008 में ओलम्पिक मशाल के खिलाफ हुए प्रतिवाद समारोहों के आयोजन के पीछे जर्मन फाउण्डेशन का हाथ है। ऐसी सूचनाएं जर्मन वेबसाइट पर प्रकाशित ब्यौरों से मिलती हैं। जर्मन फोरेन पॉलिसी डॉट कॉम के अनुसार चीन विरोधी जुझारू प्रतिवाद आन्दोलनों के आयोजन में जर्मन फाउण्डेशन का हाथ है। यह अमरीकी सरकार की मदद से चलने वाला संगठन है और इसका मुख्यालय वाशिंगटन में है। सभी ओलम्पिक मशाल विरोधी आन्दोलनों को इसी संगठन के जरिए संगठित किया गया था इस तरह के प्रतिवाद सारी दुनिया में आयोजित किए जाएं इसका फैसला न्यूमैन फाउण्डेशन के मई 2007 में हुए सम्मेलन में लिया था। जर्मन फाउण्डेशन ने अपनी विभिन्न काँफ्रेंस में इसकी तैयारियां सन् 2005 से ही आरंभ कर दी थीं। इन तैयारियों में दलाईलामा और वाशिंगटन प्रशासन की सक्रिय हिस्सेदारी थी। विभिन्न तिब्बती संगठनों के साथ सहयोग और सामंजस्य बिठाते हुए कई दिनों तक चलने वाली काँफ्रेंसों में विस्तृत ''एक्शन प्लान' तैयार किया गया और तिब्बत की मुक्ति के लक्ष्य को प्रचारित करने के लिहाज से ओलम्पिक मशाल के समय प्रतिवाद करने का फैसला लिया गया। इस काम के लिए पूरावक्ती संगठक भाड़े पर रखे गए, यह प्रतिवाद आन्दोलन विश्वस्तर पर होना था अत: इसके निर्देशन का काम वाशिंगटन मुख्यालय से हो रहा था।
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
विशिष्ट पोस्ट
मेरा बचपन- माँ के दुख और हम
माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...
-
मथुरा के इतिहास की चर्चा चौबों के बिना संभव नहीं है। ऐतिहासिक तौर पर इस जाति ने यहां के माहौल,प...
-
लेव तोलस्तोय के अनुसार जीवन के प्रत्येक चरण में कुछ निश्चित विशेषताएं होती हैं,जो केवल उस चरण में पायी जाती हैं।जैसे बचपन में भावानाओ...
-
(जनकवि बाबा नागार्जुन) साहित्य के तुलनात्मक मूल्यांकन के पक्ष में जितनी भी दलीलें दी जाएं ,एक बात सच है कि मूल्यांकन की यह पद्धत...
nai jaankari ke liya dhanybaad
जवाब देंहटाएंachhi jankari lekin america apne liye tibbaitiyo ko use karta rha jis parkar chin pakistan ko bharat ke khilaf kar rha hai
जवाब देंहटाएं