शुक्रवार, 9 अक्टूबर 2009

वर्चुअल आनंद का ठलुआ संसार

इन दि‍नों जीवन,कला ,साहित्य और राजनीति‍ के क्षेत्र में 'इंटर पेसिविटी' पर जोर दिया जा रहा है। यह ''इंटरएक्टिविटी' फिनोमिना का विलोम है। ''इंटरएक्टिविटी'' के तहत अन्य विषय के जरिए व्यक्त किया जाता था। सक्रि‍य कि‍या जाता था। हेगेलियन विचार था कि मानवीय पेसन को अपने लक्ष्य को अर्जित करने के लिए मेनीपुलेट करो। इन दि‍नों इसका वि‍लोम रचा जा रहा है। यह है '' इंटरपेसिविटी'' । इसका आदर्श उदाहरण हैं टीवी चैनलों पर दि‍खने वाले 'लाफ्टर शो'। ''लाफ्टर शो'' में हंसी को साउण्ड ट्रेक के जरिए पैदा किया जाता है। जिससे टीवी सेट हमारे लिए हंस सके। इस तरह की प्रस्तुति दर्शक के पेसिव अनुभवों को आत्मसात कर लेती है। मसलन् उस दृश्य की कल्पना करें जब हमारे बीच में सुनने वाला कोई न हो और ऐसे में कोई घटिया चुटकुला सुनाया जाए तो क्या होता है ? और चुटकुला सुनकर आप जोर से हंसने लगें और जोर से कहें '' अरे गुरू मजा आ गया।'' 'लाफ्टर शो' की नाटक के अभि‍नय या ग्रीक समूहगान के साथ तुलना नहीं की जा सकती। नाटक में अभिनेता अभिनय करता है और वैसी ही प्रतिक्रिया की दर्शक से उम्मीद करता है। ''लाफ्टर शो'' जैसे कार्यक्रमों में ग्रीक समूहगान की तुलना में स्थिति एकदम विपरीत होती है। ग्रीक समूहगान वाले दर्शक के अनुभवों को महसूस करते थे, दर्शक के भावों को आत्मसात करते थे,अभिनेता की पेसिव भूमिका हुआ करती थी, वहां दर्शक अनुभव करता था। किंतु ''लाफ्टर शो'' जैसे कार्यक्रमों में स्थिति एकदम भिन्न है, यहां जो नरेटर या चुटकुला सुनाने वाला है वह चाहता है दर्शक पेसिव भूमिका अदा करे। नरेटर पेसिव भूमिका अदा नहीं करता बल्कि दर्शक पेसिव भूमिका अदा करता है। नरेटर अपने चुटकुलों पर स्वयं हंसता है। जनता के हंसने की बजाय वह स्वयं हंसता है।
दूसरी ओर हमारे बच्‍चों का संसार स्‍वचालि‍त खि‍लौनों और टीवी से घि‍र गया है। स्वचालित खिलौनों और टीवी में आप सक्रिय होते हैं ।किंतु छद्म रूप में,सक्रिय हैं इसलिए कि कुछ हो न जाए। पहले हम सक्रिय होते थे कुछ करने के लिए अब सक्रिय होते हैं कि कुछ घटे नहीं। हम अब एक्टिव है कुछ हासिल करने के लिए नहीं बल्कि एक्टिव हैं रोकने के लिए। नए मीडिया की समस्या यही है उसने हमें सक्रिय किया है किंतु कुछ पाने के लिए नहीं बल्कि रोकने के लिए। आज हम अपनी दैनन्दिन जिन्दगी में छद्म गतिविधियों में बंद होकर रह गए हैं। ऐसी गतिविधियों में कैद हैं जिनसे हमें कुछ हासिल नहीं होना है। पहले गतिविधि का लक्ष्य हासिल करना होता था ,इन दिनों गतिविधियों का लक्ष्य रोकना होता है। राजनीति में भी पुराने विचारधारात्मक सवाल हाशिए पर हैं अथवा पृष्ठभूमि में चले गए हैं। आज लोग यह कहते हैं कि अच्छा विचार कहीं से भी मिले ,उसे तुरंत लागू करो, उसकी विचारधारा कुछ भी हो। ''अच्छा विचार'' का यहां अर्थ क्या है ? इसका अर्थ है कि जो विचार काम करे, उसे लागू करो। इसका अर्थ यह भी है कि मौजूदा परिस्थति में यथास्थिति बनाए रखकर काम करो। यथास्थिति को मत बदलो। सामाजिक-राजनीतिक संबंधों को मत बदलो। जब हम राजनीतिक भूमिका की बात करते हैं तो इसका अर्थ यह नहीं है कि जो विचार लागू कर सकते हो उसे लागू कर दो। बल्कि इसका अर्थ यह है कि आप अच्छे विचार को एडवांस में ही स्वीकृति दे देते हैं।

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