आज के अखबारों में महाश्वेता देवी का एक बयान छपा है। जिसमें उन्होंने बेशर्मी के साथ लालगढ़ कत्लेआम की हिमायत की है। महाश्वेता देवी ने कहा है कि छत्रधर महतो को कलकत्ते के बुद्धिजीवियों ने चंदा नहीं दिया, क्योंकि उनके पास धन नहीं होता। उन लोगों ने तो सिर्फ भावनात्मक समर्थन दिया था। सवाल यह है कि छत्रधर महतो जब आरंभ में पुलिस दमन के खिलाफ लड़ रहे थे तब महाश्वेता देवी और उनके भक्तों द्वारा छत्रधर महतो एंड कंपनी का समर्थन करने वाली बात कुछ समझ में आती है।उस समय पुलिस से गलतियॉं भी हुई थीं। राज्य सरकार को आन्दोलनकारियों की मांग मान लेनी चाहिए थी। किंतु जब से लालगढ में माओवादियों के साथ मिलकर माकपा और पुलिस एजेण्ट के नाम पर साधारण गरीबों का कत्लेआम शुरू हुआ है तब महाश्वेता देवी और उनके समर्थक बुद्धिजीवियों का समर्थन समझ में नहीं आता। मैं नहीं समझता कि हिन्दुस्तान में इतनी निर्लज्जता के साथ किसी भी लेखक ने कत्लेआम का इस कदर समर्थन किया है। उल्लेखनीय है इनमें से अधिकतर की तथाकथित वामपंथी छवि है जिसका लंबे समय तक वाममोर्चे ने लाभ उठाया था। नंदीग्राम-सिंगूर की घटना और माकपा के स्थानीय नेताओं के असभ्य और हिंसक व्यवहार ने इन बुद्धिजीवियों को ममता के खेमे में ठेल दिया। ममता के साथ ये लोग क्यों हैं ,इन्हें क्या मिल रहा है और वाममोर्चे के साथ क्यों थे और वहॉं से क्या क्या प्राप्त किया इसका भी हिसाब लगा लिया जाए तो चीजें साफ समझ में आ जाएंगी। ममता बनर्जी ने रेलवे के विशेष पास उन तमाम बंगाली बुद्धिजीवियों को जारी किए हैं जिन्होंने ममता के पक्ष में प्रचार किया था। इनमें से अनेक बुद्धिजीवी एक जमाने में वाममोर्चे की सरकार से सस्ती जमीनें पॉस इलाके में ले चुके हैं, इनमें महाश्वेता देवी भी शामिल हैं।इनमें एक दर्जन से ज्यादा रंगकर्मी केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्रालय से समय- समय लाखों रूपये की सालाना आर्थिक मदद भी प्राप्त करते रहे हैं। ये लोग एक ही साक कांग्रेस ,तृणमूल कांग्रेस और वाम शासन से मोटी मदद प्राप्त करते रहे हैं। सवाल यह है कि बंगाल में इन ढुलमुल व्यक्तित्व के बुद्धिजीवियों की पूरी फौज आखिर किस विचारधारात्मक मिट्टी से तैयार हुई ? क्या इसका क्रांति के महान लक्ष्य से कोई लेना देना है ? यह विशुद्ध बौद्धिक अवसरवाद है। इन बुद्धिजीवियों की सत्य की रक्षा में कोई दिलचस्पी नहीं है। वे सत्य को देखना नहीं चाहते। सत्य पर सुविधानुसार बोलते हैं। सत्य के प्रति तदर्थ भाव के कारण ही वे तरह तरह के नकली मुखौटे लगाकर आते हैं। इसी प्रसंग में दूसरी समस्या यह भी है कि माकपा और वाममोर्चे के हमदर्द बुद्धिजीवी लालगढ में विगत चार महीने से चल रहे कत्लेआम पर चुप क्यों हैं ? इन दलों के सांस्कृतिक संगठन चुप क्यों हैं ? प्रेस में इनके कहीं पर हिंसा की निन्दा करने वाले बयान तक नजर नहीं आते। यह चुप्पी टूटनी चाहिए। वाम बुद्धिजीवियों को सत्य को बोलना चाहिए। वाम मोर्चे को लालगढ की जनता कभी क्षमा नहीं करेगी क्योंकि उसने अपने कार्यकर्त्ताओं को असहाय अवस्था में माओवादियों के हाथों कत्ल होने के लिए छोड दिया है।जनवादी लेखक संघ और प्रगतिशील लेखक संघ भी लालगढ के कत्लेआम पर चुप हैं ? आखिर ये लोग किस महान विपत्ति का इंतजार कर रहे हैं? लालगढ के विपदाग्रस्त, आतंकित, उत्पीडित लोगों के आख्यान कहीं से भी मीडिया में नहीं आ रहे। यह वाममोर्चे और खासकर माकपा की सबसे बड़ी असफलता है। हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहने से माओवादी हिंसा बंद होने वाली नहीं है,उसका चौतरफा सत्यनिष्ठ प्रतिवाद करना चाहिए।
एक अन्य पहलू जिस पर गौर करना चाहिए। लालगढ़ के संदर्भ में समस्या इसके या उसके चंदा देने की नहीं है। पश्चिम बंगाल पुलिस यदि मीडिया ट्रायल चलाएगी तो लालगढ के हत्यारों पर से ध्यान हट जाएगा। माकपा के सदस्यों और हमदर्दों को जिस तरह अकारण मौत के घाट उतारा जा रहा है उसके बारे में ज्यादा केन्द्रित होकर चर्चा होनी चाहिए,दूसरी बात यह कि पश्चिम बंगाल की पुलिस यदि कोई गलती करती है तो उसकी सार्वजनिक आलोचना होनी चाहिए। लालगढ का पुलिस ऑपरेशन ठीक है,हमने उसका समर्थन भी किया है किंतु इसके बारे में प्रचार अभियान की जो पद्धति पुलिस ने अपनायी है वह सही नहीं है। जो बुद्धिजीवी खुलेआम लालगढ में कत्लेआम का समर्थन कर रहे हैं,वे गलत रास्ते पर हैं। उन्होंने अंध कम्युनिस्ट विरोध का मैकार्थीवादी मार्ग चुन लिया है उन्हें विचारधारात्मक तौर पर नंगा किया जाना चाहिए। यह काम पुलिस नहीं कर सकती, बुद्धिजीवी ही कर सकते हैं। हमें दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि माकपा और वामदलों के पास हजारों बुद्धिजीवियों की फौज है,ये ऐसे बुद्धिजीवी हैं जो विचारधारा और सर्जनात्मक क्षमता में आज भी बेजोड़ हैं। सवाल यह है कि लालगढ में चल रहे अहर्निश कत्लेआम पर वे चुप क्यों हैं ? हम चाहते हैं कि लालगढ में जो कत्लेआम माओवादी मचा रहे हैं,साथ ही देश के दूसरे इलाकों में वे जिस तरह का हिंसाचार कर रहे हैं उसको ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँचाया जाए,यह कार्य तथ्य और सत्य की रक्षा करते हुए होना चाहिए। किसी भी बुद्धिजीवी के लिए वह दुर्भाग्य का दिन होगा कि वह हिंसकों को चंदा दे। जिन बुद्धिजीवियों ने लालगढ में कत्लेआम करने वालों को चंदा दिया है वे नैतिक तौर पर हत्याओं के लिए जिम्मेदार हैं। लेकिन पुलिस को इस प्रसंग में जितने भी तथ्य मिलते हैं उन्हें अदालत को सबसे पहले बताना चाहिए। पुलिस के जरिए माओवादियों के खिलाफ प्रचार अभियान चलाकर पश्चिम बंगाल सरकार को न तो नैतिक बल मिलेगा और नहीं राजनीतिक लाभ ही होगा। पुलिसिया प्रचार अंतत: हत्यारों की मदद करता है।नंदीग्राम हिंसाचार का यही सबसे बड़ा सबक है जिससे वाममोर्चे को सीखना चाहिए।
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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