इन दिनों मीडिया में आबशेसन का भाव सक्रिय है। कहानियों,संस्मरणों आदि को ही भविष्य बताया जा रहा है। विश्लेषकों को दोषी ठहराया जा रहा है। आज हमसे विश्लेषक जो मांग कर रहे हैं हम वही कर रहे हैं। असल में इस बहाने हम इच्छाओं को उभार रहे हैं। सच यह है विश्लेषकों ने सत्य का उद्धाटन बंद कर दिया है। आज विश्लेषक स्वयं ही चुप नहीं है बल्कि अन्य को भी चुप कराने में लगे हैं। ऐसे में यदि आप सक्रिय हैं तो भी कुछ होने वाला नहीं है। अब शब्दों से परेशानी नहीं होती। अब हम कुछ शब्द भर बोलते हैं और अपने दमित कष्टों को व्यक्त करते हैं। इसे आप कभी-कभार टीवी बाइटस में देख सकते हैं। आज हम ''छद्म गतिविधियों'' में सक्रिय हैं। ''छद्म गतिविधि'' उसे कहते हैं जहां निरर्थक तौर पर खूब सक्रिय रहते हैं। सक्रिय हैं किंतु कुछ भी अर्जित करना नहीं चाहते। सक्रिय हैं रोकने के लिए कि कुछ घट न जाय। कल्पना कीजिए आपका कोई दोस्त है जिससे मिलने पर आपको तनाव होता है ,अथवा जिससे मिलने पर कुछ धमाका हो सकता है। यही वजह है कि जब वह मिलता है तो सब समय आबशेसनल बातें करते रहते हैं ,चुटकुले सुनाते रहते हैं। जिससे चुप्पी के पीछे छिपी अनिच्छित परिस्थितियों से बचा जाए। बातचीत में शिरकत करने वाले को उलझन में डालने वाले विषयों से बचा जाए।
आज राजनीति में खास किस्म के मुद्दे चर्चा के केन्द्र में हैं जैसे समलैंगिकता,अपराधीकरण, पर्यावरण,अल्पसंख्यकों के अधिकार ,साम्प्रदायिकता, भ्रष्टाचार, ओबीसी आरक्षण,अयोध्या में राममंदिर आदि, इस तरह के सवाल अस्थिर होते हैं। अस्मिता की चंचल अवस्थाओं को सामने लाते हैं। इस तरह के सवालों के परिणामस्वरूप बहुस्तरीय तदर्थ मोर्चे बन रहे हैं। ये ऐसे मोर्चे हैं जो अप्रामाणिक हैं। इस तरह के मोर्चे अंतत: आबशेसनल न्यूरोटिक की तरह सब समय बातों में ही व्यस्त रखते हैं। न्यूरोटिक वह है जो कुछ चीजें सुनिश्चित करने के लिए सब समय सक्रिय रहता है , वह जो सुनिश्चित करना चाहता है उसे डिस्टर्व नहीं करता। इसी अर्थ में वह छद्म गतिविधि में लगा रहता है। आज यही हमारी दैनन्दिन जिन्दगी का सच है।
हमारे बीच में ऐसे तर्कवादी आ गए हैं जो इंटरनेट के जरिए जो नेटवर्किंग की जा रही है अथवा जो वर्चुअल आनंद परोसा जा रहा है उसकी आए दिन हिमायत कर रहे हैं। इंटरनेट का वर्चुअल समाज वास्तव समाज नहीं है। वीडियोगेम अथवा पोर्न वास्तव नहीं हैं बल्कि वर्चुअल हैं। वर्चुअल संस्कृति जीवरहित संस्कृति है। यह ऐसी संस्कृति है जिसमें कोई भी जीव नहीं है,पशु नहीं है, आदमी नहीं है, यह प्राणीरहित और प्राणरहित संस्कृति है। यहां तो बस कुछ सिगनल हैं। यहां सिर्फ स्क्रीन है और स्क्रीन के परे कुछ भी नहीं है। हम सिगनलों से खेलते रहते हैं। इसका कोई रिफरेंट या संदर्भ नहीं है। हम पूरी तरह उपयुक्त भावनाओं को आत्मसात करते हुए खेलते हैं अथवा आनंद लेते हैं। वीडियोगेम में अथवा वर्चुअल खेल में अन्य पार्टनर पूरी तरह वर्चुअल होता है। वर्चुअल खेल में अथवा वर्चुअल दृश्य चाट में हम जो कुछ भी कर रहे होते हैं अथवा कह रहे होते हैं वह पूरी तरह छद्म होता है। मसलन् आपने किसी टामागुची वीडियो गेम में अथवा कामुक चाट रूम में सीधे बातें करने वाली औरत से कहा कि मुझे चुम्बन दो अथवा मेरे साथ संभोग करो। ऐसी अवस्था में आप सिर्फ बटन भर दबाते हैं। बटन दबाते ही आपकी इच्छा पूरी हो जाती है। इस संदर्भ में देखें तो डिजिटल टॉय ज्यादा प्रतिगामी (परवर्ज)होता है। यह हमारे ईगो और अति वास्तविक सहिष्णुता को जगाता है।
वर्चुअल संस्कृति में विचरण करने वाले की मुश्किल यह है कि उसे बटन दबाते ही इच्छित चीज मिल जाती है। उसे वास्तव में प्रयास नहीं करना पड़ता, वास्तव से संपर्क नहीं करना पड़ता, वास्तव में महसूस नहीं करना पड़ता। वह जो चाहता है उसे तत्काल मिल जाता है। वर्चुअल में हम मूलत: प्रतीकों में ,प्राइवेट तौर पर आनंद लेते हैं। आपको जिस तरह की सहिष्णुता अथवा सामंजस्य की जरूरत होती है उसका ख्याल वर्चुअल तकनीक करती है आपको स्वयं उसका ख्याल नहीं करना होता। आप प्राइवेट में संतुष्ट होते हैं। यह ऐसी संतुष्टि है जो आपके पड़ोसी को परेशान नहीं करती, आप उसकी चिन्ता भी नहीं करते। वर्चुअल के जरिए मिलने वाला संतोष कभी भी हासिल किया जा सकता है। इसकी खूबी है आपकी मांग की पूर्ति करना। यही वह बिंदु है जहां हम मुश्किल में फंसते हैं। हम 'आब्शेसनल ऑब्जेक्ट' के साथ बंध जाते हैं।
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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