सुनने में खराब लग सकता है लेकिन सच्चाई है प्रेस के आगमन के साथ समाजवाद आया और इंटरनेट युग के आगमन के साथ समाजवाद का अंत हुआ। समाजवाद जब आया तो उसे दोषमुक्त बनाकर पेश किया गया। समाजवाद का दोषमुक्त होना ही ,समाजवाद का पहली नजर में परफेक्ट या निष्पन्न रूप सबसे बड़ा दोष था। समाजवाद का जोभी व्यवस्थागत ढ़ांचा चुना गया उसने बेहतरीन व्यवस्था का दावा किया। 'परफेक्ट' व्यवस्था का दावा किया और फिर देखते ही देखते कई देशों में परफेक्ट समाजवाद के अनेक प्रतिरूप खडे हो गए। जो भी प्रतिरूप सामने आए वे भी परफेक्शन के दावे साथ आए।
समाजवाद के परफेक्शन का दावा करने वाले यह भूल गए कि परफेक्ट कोई चीज नहीं होती। समाजवाद भी परफेक्ट नहीं था। समाजवाद परफेक्ट था तो उसका परफेक्शन दोषपूर्ण था। परफेक्ट समाजवाद स्वयं के साथ की गयी दगाबाजी है। यदि आप परफेक्ट समाजवाद की जड़ें खोजने के लिए जाएंगे तो उसकी जड़ें कहीं दिखाई नहीं देंगी। जो देश परफेक्ट समाजवाद का दावा कर रहे थे उन देशों को देखकर नहीं लगता कि समाजवाद की कहीं जड़ें भी हैं। क्योंकि समाजवादी देशों में कहीं पर अब समाजवाद के प्रभाव को देख नहीं सकते। परफेक्शन हमेशा शून्य में तब्दील होता है।
परफेक्शन की जड़ों में जाओगे तो अंत में कुछ भी हाथ नहीं लगेगा। परफेक्ट समाजवाद की निरंतरता शून्य की निरंतरता है। परफेक्शन अपने अवशेष छोड़ जाता है। समाजवाद भी अपने अवशेष छोड़ गया। समाजवाद में गोपनीयता का दावा किया गया और सबसे ज्यादा गोपनीयता को ही भंग किया गया। अंत में गोपनीयता गले की हड्डी बन गयी। इसी गोपनीयता के प्रति समाजवाद में बगावत के स्वर सुनाई दिए और समाजवाद की समस्त गोपनीयता भंग हो गयी।
समाजवाद ने परफेक्शन का गुण कला से लिया । कलाकारों में परफेक्शन का भाव होता है इसके कारण वे कुछ भी नहीं कहते। किंतु जो कहना चाहते हैं उससे दूर खड़े होकर देखते हैं और जो सामाजिक जीवन की अपूर्णताएं हैं उनकी ओर ध्यान खींचते हैं। समाजवाद की शक्ति इसमें है कि वह अपनी असफलता के चिन्ह छोड़कर नहीं गया । उसने अपनी पूर्णता की कमजोरियों को छिपाने में सारी शक्ति लगा दी। सवाल उठता है परफेक्ट समाजवाद धराशायी कैसे हो गया ? जो समाजवाद दोषमुक्त था उसमें इतने दोष कहां से पैदा हो गए ? जो समाजवाद पूंजीवाद की सामान्य चीजों से नफरत करता था उसमें से इतने बड़े पैमाने पर तार्किक पूंजीवादी समाज व्यवस्था और पूंजीपतिवर्ग कैसे पैदा हो गया ?
समाजवाद का हमेशा परफेक्शन पर जोर था। जिसके कारण समाजवाद का सबसे ज्यादा दुरूपयोग भी हुआ। अब हमारे सामने समाजवाद को लेकर यह स्थिति है कि हमारे पास कोई न्यायाधीश नहीं है जो यह बताए कि समाजवाद को क्या दंड दें अथवा उसे माफ कर दें ? क्योंकि परफेक्ट समाजवाद का कोई अंत नहीं है। क्योंकि चीजें घटित होती रही हैं। समाजवाद भी घटित हो रहा था और बदल रहा था, किंतु समाजवाद के कर्णधारों ने उसे परफेक्ट बना दिया। मुश्किल यह है कि समाजवाद का कोई समाधान उपलब्ध नहीं है और न आप इसे खत्म कर सकते हैं। इसमें अनखुले अपरिहार्य तत्व थे जो धीरे धीरे खुल रहे हैं। समाजवाद का कोई अंत नहीं है और न इसके कोई परिणामों के बारे में पूर्वानुमान लगाया जा सकता है। समाजवाद के बारे में सभी गणित फेल हैं। सभी अनुभव और सभी उम्मीदें इसको विस्तार ही देते हैं।
समाजवाद के पराभव का कौन सा प्रधान बिंदु है इसे खोजना बेहद मुश्किल काम है। किस ऊर्जा के जरिए समाजवाद बना और कौन सी ऊर्जा थी जो समाजवाद को निगल गयी यह अभी भी रहस्यमय है। असल में जिस ऊर्जा ने समाजवाद को रचा था वही उसे निगल गयी। समाजवाद को बनाने वाले जो थे वे ही समाजवाद को हजम करने वाले भी थे। यानी बनाने और बिगाड़ने वाला एक ही समूह है। समाजवाद को कम्युनिस्टों ने बनाया था और कम्युनिस्टों ने ही निगल लिया और यही समूह है जो समाजवाद को दूसरी दिशा में ठेल रहा है। समाजवाद में मौलिक क्या है और नकल क्या है ? यह फर्क करना बेहद मुश्किल है। समाजवाद जितने इल्युजन या विभ्रम लेकर आया था और उससे ज्यादा विभ्रमों को छोड़ गया ।
दार्शनिक सवाल पैदा होता है समाजवाद आज नहीं है तो जो था वह क्या था ? समाजवाद का शून्य में बदल जाना स्वयं हजारों सवालों को खड़ा करता है। सवाल किया जाना चाहिए कि एक व्यवस्था शून्य में कैसे चली गयी ? समाजवाद यदि शून्य में तब्दील हो गया तो फिर उसकी चाह क्यों ? समाजवाद के प्रति आकर्षण क्यों ? समाजवाद में जो कुछ भी सतह पर नजर आ रहा था वह सब वापस ले लिया गया। अथवा वह सब गायब हो गया। समाजवाद की उपलब्धियों का समाजवादी शक्तियों के द्वारा लोप किस तरह का संकेत देता है ? समाजवाद की उपलब्धियों की अनुपस्थिति यह संकेत है कि वे चीजें निचले स्तर पर भौतिक विभ्रमों की तरह कार्यरत थीं। समाजवाद के विभ्रम खत्म हुए तो बाकी चीजें स्वत: गायब हो गयीं। अर्थात् जो दिखाई दे रहा था उसका भौतिक जगत के साथ कोई संबंध नहीं बन पाया था वह विभ्रम की सृष्टि था और विभ्रम के साथ चला गया।
समाजवाद यदि इल्युजन या विभ्रम था तो भयानक विभ्रम था और यदि यथार्थ था तो विभ्रम की तरह गायब कैसे हो गया ? क्या समाजवाद का सत्य जानने की आकांक्षा,जिज्ञासा अथवा इच्छाशक्ति अभी हममें बची है ? हम समाजवाद के पतन के सच को क्यों नहीं जानना चाहते ? अथवा समाजवाद के पूंजीवाद में रूपान्तरण के तर्कों की गहराई में क्यों नहीं जाना चाहते ? क्या संरचनात्मक असफलताएं समाजवाद के लोप का प्रधान कारण हैं ? क्या वजह है कि दुनिया में समाजवाद पर विमर्श और संघर्ष गुम हो गए ?भारत में समाजवाद का विमर्श क्यों गुम हो गया ? पराभव सोवियत संघ का हुआ था ,फिर भारत में समाजवाद का विमर्श क्यों गायब हो गया ? अन्य देशों में समाजवाद की बजाय भूमंडलीकरण्ा पर क्यों बहस होने लगी ? असल में हम ऐसी दुनिया में रहते हैं जिसमें न तो भ्रम रह सकते हैं और शुध्द सतह पर जो दिख रहा है उसी में ही जी सकते हैं। आज हम परिवर्तनकामी सत्य और पारदर्शिता के साथ सामंजस्य बिठाने की स्थिति में नहीं हैं।
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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