वर्चुअल युग नकल की नकल का युग है। इसमें अधिकारों की दुनिया समृध्द नहीं होती। बल्कि अधिकारहीनता बढ़ती है। वर्चुअल में पाना दुर्लभ चीज है,वर्चुअल का अर्थ है खोना,दूर होना,अलगाव में रहना, अधिकार हैं किंतु अधिकारों पर उपग्रह निगरानी ,कम्प्यूटर की निगरानी और पुलिस निगरानी। सैटेलाइट के जरिए महाकम्प्यूटर में सब कुछ दर्ज हो रहा है। जांच और निगरानी हो रही है। व्यक्ति की निजता का जितना नाटक आज है वैसा नाटक पहले कभी नहीं था। आज प्राइवेसी है निगरानी के साथ। अब यथार्थ कम और यथार्थ के तमाशे ज्यादा हैं। इसमें अंतर्वस्तु पर कम और तमाशे पर ज्यादा जोर है।
आज आप कोई भी गंभीर से गंभीर सवाल उठाइए आपको अंतत: तमाशे की शरण में जाना पड़ेगा। तमाशा आज के युग का सबसे बड़ा फिनोमिना है। तमाशे को देख सकते हैं,मजा ले सकते हैं। हस्तक्षेप नहीं कर सकते। शिरकत नहीं कर सकते। तमाशा तो सिर्फ नजारे का आनंद है। आंखों का आनंद है। इससे मन को शांति नहीं मिलती,ऊर्जा नहीं मिलती। इसे आप जितना देखते हैं उतना ही थकते हैं। तमाशे का काम है थकाना और सुलाना। रियलिटी टीवी शो से लेकर टीवी समाचारों तक नजारे के दृश्य छाए हुए हैं। तमाशे का असर नहीं होता। तमाशबीन के पास आनंद के अलावा कुछ भी नहीं बचता इस अर्थ में वर्चुअल युग परम मनोविनोद का युग है। चरम छद्म का युग है। कृत्रिम का युग है। कपोल कल्पनाओं का युग है। इसे सत्य की पराजय अथवा सत्य के लोप के युग के रूप में भी याद किया जाएगा। वर्चुअल में रटे-रटाए बयान सुनाए जाते हैं। तोते सुंदर लगते हैं। स्टीरियोटाईप बयान सुंदर लगते हैं। जमघट सुंदर लगता है। नारे और बैनर सुंदर लगते हैं, भीड़ मनोहारी लगती है। सब कुछ मेले जैसा लगता है। वर्चुअल युग में जुलूसों में भाग लेने वाले विदूषक लगते हैं।
वर्चुअल में प्रतिवाद का अवमूल्यन हो जाता है। अब प्रतिवाद अपना विलोम साथ ही साथ बनाते हैं। जितना बड़ा प्रतिवाद उतना ही बड़ा और व्यापक अवमूल्यन। शांति प्रतिवाद जुलूसों और जलसों का अवमूल्यन हम देख चुके हैं। प्रतिवाद अर्थहीन हो जाते हैं। आप किसी भी दल के हों, किसी भी मुद्दे पर प्रतिवाद करें, उसका कोई असर नहीं होता ,सब कुछ रिचुअल और रूटिन नजारा दिखाई देता है। मीडिया खासकर टीवी चैनलों की दिलचस्पी घटना में कम घटना के नजारे और स्वांग में ज्यादा होती है। मीडिया के द्वारा घटना की सूचना कम स्वांग का आनंद ज्यादा मिलता है। नजारे में हावभाव,एक्शन और नाटक लुभाते हैं। यही नजारे की अंतर्वस्तु हैं। वर्चुअल सत्य की मीडिया पूंजी हैं नजारे,हावभाव और नाटकीय एक्शन । वर्चुअल में सब कुछ नियोजित है कुछ भी स्वर्त:स्फूर्त्त नहीं है। सुनियोजन के बिना वर्चुअल निर्मित नहीं होता। प्रस्तुति के पीछे संप्रेषक की मंशा निर्णायक होती है। यहां संप्रेषक मीडियम है।
टीवी चैनल नजारे के प्रसारण में सुचिंतित नियोजन को छिपाते हैं और स्वर्त:स्फूर्त्तता को उभारते हैं। किंतु आयरनी यह है कि वर्चुअल में स्वर्त:स्फूत्ताता नहीं होती। वर्चुअल की स्वर्त:स्फूत्ताता नकली होती है। नकली में चमक होती है किंतु प्रभावित करने की क्षमता नहीं होती। नकली आकर्षक और एब्सर्ड होता है। वर्चुअल में प्रतिवाद का सम्प्रेषण अर्थहीनता का संचार है। वर्चुअल स्वाभाविक नहीं सुनियोजित होता है। वहां यथार्थ और आख्यान नहीं बाइट्स होते हैं।
मौजूदा दौर में टीवी बाइट्स ही सर्वस्व है। आप जिंदा हैं या मुर्दा हैं ? स्वस्थ हैं या अस्वस्थ हैं ? तरक्की कर रहे हैं या पिछड़ रहे हैं ? आपके देश में मानवाधिकार हैं या नहीं ? सारे सवालों के फैसले टीवी बाइट्स में हो रहे हैं। वास्तव जीवन की बजाय प्रौपेगैण्डा के जरिए मूल्य निर्णय होता है। प्रत्येक चीज का एक ही मूल्य है प्रचार मूल्य। प्रचार मूल्य के सामने बाकी मूल्य धराशायी हैं। मूल्यों की निरर्थकता का ऐसा महाख्यान पहले कभी नहीं देखा गया।
आज हमारे पास राजनीतिक ,वास्तविक सूचनाएं कम और वर्चुअल सूचनाएं ज्यादा हैं। वर्चुअल सूचनाएं प्राणहीन होती हैं। वर्चुअल के जरिए सत्य का रूपान्तरण संभव नहीं है। यथार्थ का संप्रेषण और सत्य का चित्रण भी संभव नहीं है। वर्चुअल में वास्तव का कृत्रिम में रूपान्तरण अनिवार्य है। वर्चुअल सिर्फ स्वयं को संतोष देता है। वर्चुअल प्रचार शोरगुल का प्रचार है। इसमें प्रचार कम और प्रचार का बहम ज्यादा है। यह ऐसा प्रचार है जिसके सत्य पर अनेक पर्दे पड़े हैं। पर्दों को हटाने में समर्थ हैं तो वर्चुअल प्रचार को उद्धाटित कर सकते हैं, उसके मर्म को समझ सकते हैं। वरना इसमें सत्य पर पर्दा पड़ा रहता है। वर्चुअल में स्थायी तौर सक्रिय और एकजुट करने की क्षमता नहीं है। वर्चुअल के जरिए सामाजिक शक्ति संतुलन नहीं बदल सकते।
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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