आज हम कनवर्जन के युग में हैं। यह ऐसा युग है जिसमें सब कुछ शून्य पर आकर टिक गया है। आप कहीं से भी आरंभ कीजिए किंतु पहुँचेंगे शून्य पर। आप किसी भी अधिकार,मूल्य,संस्कार, आदत की मांग कीजिए वह अंत में शून्य पर ले जाएगी। घूम-फिरकर चीजों का शून्य पर लौटने का अर्थ है खोखली अवधारणा में रूपान्तरण। वर्चुअल सूखी रेतीली नदी है। इसमें सूचनाओं का अंधड़ है। इसका तापमान हमेशा बहुत ज्यादा रहता है। इसमें सूचना का आभास है किंतु कुछ कर नहीं सकते। सूचनाओं के बाहर आपको कुछ भी नजर नहीं आएगा। सूचनाओं का अंधड़ वर्चुअल की शक्ति है। अंधड़ में कुछ भी देख नहीं सकते सिर्फ आंखें बंद करके अंधड़ को महसूस कर सकते हैं। सूचना के अंधड़ ने परवर्ती पूंजीवाद में सबको खोखला बना दिया है। वर्चुअल में मानवाधिकार की खोज,युध्द की निंदा,समाजवाद का गौरवगान,धर्मनिरपेक्षता का वैभव,सामंजस्य का इतिहास, सांस्कृतिक मैत्री, पाखण्ड, व्यापार की चाल ढाल आदि सभी क्षेत्रों में घूम-फिरकर खोखलेपन पर लौट आते हैं।
वर्चुअल प्रचार विशिष्ट किस्म के निरर्थताबोध को पैदा करता है। आप जिंदगी की बजाय डाटा में उलझे रहते हैं। लगता है कुछ करना चाहिए, प्रतिवाद करना चाहिए,नए मूल्यों की बात करनी चाहिए,नए किस्म का प्रतिवाद करना चाहिए,नए किस्म की किताब लिखनी चाहिए,नए संबंध बनाने चाहिए,नया कानून बनाना चाहिए इत्यादि कुछ भी कीजिए अंत में शून्य पर पहुँचना नियति है इस अर्थ में वर्चुअल सारी चीजों को माया बना रहा है। निरर्थक बना रहा है।
वर्चुअल में पुरानी दार्शनिक परंपरा के माया और ईश्वर को एक ही साथ कबड्डी करते देख सकते हैं। यह मानवीय अभिव्यक्ति का चरम है। चरम स्वयं बोगस होता है। अर्थहीन होता है। प्रभावहीन होता है। अवास्तव होता है। चरम खोखला होता है। वर्चुअल भी खोखला है। क्योंकि यह संचार तकनीक का चरम है। इसकी कोई अंतर्वस्तु नहीं है। खोखलेपन के युग में हर चीज ठंडी होती है। विचार भी ठंडे होते हैं। हाथ-पैर भी ठंडे होते हैं। दिल-दिमाग भी ठंडा रहता है। ठंडे यानी निष्क्रिय । वर्चुअल युग निष्क्रिय स्मृतियों, निष्क्रिय संघर्ष और निष्क्रिय आनंद का युग है। इस युग में हर चीज अपने स्वाभाविक आकार से बड़ी नजर आती है। छोटा सा जुलूस, छोटा सा प्रतिवाद छोटी हिंसा ,छोटा विचार ,क्षुद्र चीजें आदि सब कुछ बड़ी नजर आती हैं। छोटी चीजें अपने आकार से बड़ी नजर आती हैं। जबकि बड़ी चीजों को यह छोटा बनाकर पेश करता है। सब कुछ को अतिरंजना ,विलोम और सुपरफलुअस में डुबो देना इसका प्रधान लक्ष्य है।
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
विशिष्ट पोस्ट
मेरा बचपन- माँ के दुख और हम
माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...
-
मथुरा के इतिहास की चर्चा चौबों के बिना संभव नहीं है। ऐतिहासिक तौर पर इस जाति ने यहां के माहौल,प...
-
लेव तोलस्तोय के अनुसार जीवन के प्रत्येक चरण में कुछ निश्चित विशेषताएं होती हैं,जो केवल उस चरण में पायी जाती हैं।जैसे बचपन में भावानाओ...
-
(जनकवि बाबा नागार्जुन) साहित्य के तुलनात्मक मूल्यांकन के पक्ष में जितनी भी दलीलें दी जाएं ,एक बात सच है कि मूल्यांकन की यह पद्धत...
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें