ग्लोबल पूंजी का बुनियादी सूत्र है ,'' जो लागू किया जा सके उसे अपनाओ।'' वे मानते हैं '' आइडिया देट वर्क'' ,जो विचार काम का हो उसे लागू करो, चाहे किसी का भी हो,यही इस युग का नारा है। आज पूंजीवादी नारा देते हैं '' आर्ट ऑफ पॉसिविल'' (संभावना की कला) । इस नारे ने 'संभव' का अर्थ ही बदल दिया है। आज की राजनीति में '' पॉसिविल'' वह है जो '' फिजीविल'' है। आज विश्व राजनीति में उन चीजों पर बातें की जा रही हैं जिनके बारे में सामान्यत: कभी सोचते नहीं थे । अपने घनघोर शत्रु से भी बातें करनी पड़ रही हैं। असल में जब कोई आशा नहीं बचती है तो सिर्फ सिध्दान्त बचे रह जाते हैं। एक ऐसा समाज तैयार कर दिया गया है जिसमें आप कुछ भी करते चले जाइए कोई परिणाम निकलने वाला नहीं है। व्यक्ति की भूमिका अथवा सक्रियता लक्ष्यहीन होकर रह गयी है। वह सिर्फ अनुकरण करता है ,दोहराता रहता है।
पूंजीवाद ने इस कदर शक्ति हासिल कर ली है कि वह आए दिन मजदूरवर्ग पर हमले करता रहता है, एक जमाना था जब मजदूरवर्ग हमले करता था ,किंतु आज स्थिति पूरी तरह बदल चुकी है। आज जो लोग मार्क्सवाद से बेहतर ग्लोबलाईजेशन को बता रहे हैं उनसे सवाल किया जाना चाहिए कि क्या पूंजीवाद से मुक्ति का उनके पास कोई रास्ता है ? ऐसी स्थिति में दो संभावनाएं हो सकती हैं,पहली संभावना है कि अतीतपूजा करते हुए रिचुअलिस्टिक ढ़ंग से कुछ पुराने फार्मूले दोहरा दिए जाएं। जिनमें कुछ फार्मूले क्रांतिकारी कम्युनिस्ट समाज के हैं और कुछ कल्याणकारी राज्य के हैं। ऐसे लोग उत्तर आधुनिक सामाजिक अवस्था को पूरी तरह खारिज करते हैं। वे आज के पूंजीवाद की कठोर सच्चाई को देखना ही नहीं चाहते। वाम का एक तबका ऐसा भी है जो यह मानता है कि अब तो ' ग्लोबल पूंजीवाद का ही खेल खेलना है, और कोई विकल्प ही नहीं है। आज की वाम राजनीति में दोहरा खेल चल रहा है,एक तरफ कहा जा रहा है कि कल्याणकारी राज्य ने जो दिया है उसे बचाओ, दूसरी तरफ यह भी कहा जा रहा है कि ग्लोबल पूंजीपति के खेल का सम्मान करो, मजदूरों की 'इरेशनल' मांगे मत मानो, उन्हें सेंसर करो। यही वजह है कि वाम राजनीति में एक खास किस्म की फांक पैदा हो गयी है वे सिध्दान्तत: बातें कुछ करते हैं और व्यवहार कुछ और करते हैं।इसी अर्थ में मौजूदा दौर 'उत्तर राजनीति' का दौर है।
'उत्तर राजनीति' में हम सबसे ज्यादा अनिश्चित हैं। हमारे ऊपर चीजों और चॉयज को थोप दिया गया है , हमें उनमें से ही चुनने का नाटक करना पड़ रहा है। कहा जा रहा है हम चुनने के लिए स्वतंत्र हैं। जबकि व्यवहार में ऐसा नहीं है। हम उन्हीं चीजों में से चुनने के लिए स्वतंत्र हैं जो हमारे सामने पेश की गयी हैं, अथवा थोप दी गयी हैं। हमें लगातार ऐसे विषयों के बारे में निर्णय लेने के लिए बाध्य किया जा रहा है जो हमारे जीवन को सीधे प्रभावित करते हैं। जबकि हमें उनके बारे सही जानकारी और समझ तक नहीं होती। पहले रैनेसां युग में समाज को 'इरेशनल' अथवा 'अविवेक' से मुक्ति मिली। किंतु यह जो दूसरा रैनेसां है वह हमें 'रेशनल' अथवा 'विवेक' से मुक्त करने जा रहा है। वे चाहते हैं हम विवेक से फैसला न लें। वे चाहते हैं कि हम अपने अस्तित्व रक्षा के महत्वपूर्ण फैसले वगैर ज्ञान के आधार पर लें। खुलेपन और अनिश्चितता के मूलगामी नजरिए को त्याग दिया गया है। यह कहा जा रहा है अनुभव ही हमें मुक्ति दिलाएगा। हमें मुक्तभाव से फैसले करने चाहिए। उसी के गर्भ से जो अनुभव पैदा होगा वह हमें उद्विग्न करेगा। हमें उन बातों के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है जिनकी परिस्थितियो का हमें समुचित ज्ञान नहीं है। स्वतंत्रभाव से चुनने की आजादी नहीं है । परिस्थितियों का दबाव आजादी के लिए मजबूर कर रहा है, आप नहीं जानते कि आजादी के परिणाम क्या हैं ? इसकी कोई गारंटी नहीं है कि लोकतांत्रिक तौर पर हजारों-लाखों लोग महत्वपूर्ण फैसले में शिरकत करें और इसके बावजूद भी जरूरी नहीं है कि सही निर्णय ही लें। अथवा जीवन दशा में सुधार आए। अथवा जोखिम कम हो जाए।
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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