शनिवार, 24 अक्तूबर 2009

चीनी दादागि‍री पर भारतीय मीडि‍या की चुप्‍पी क्‍यों ?

          
     
      मजेदार बात यह है भारत में जो लोग मंहगाई के खिलाफ हंगामा कर रहे हैं वे चीन सरकार के शासन में सुरसा की तरह बढ़ती मंहगाई पर एकदम चिन्तित नहीं हैं। यहां तक कि चीन और तिब्बत के विशेष लेखक एन.राम के चीन आख्यान में मंहगाई कोई समस्या ही नहीं है। क्या गजब की वस्तुगत पत्रकारिता है ! चीन के संदर्भ में आर्थिक विकास की जय-जयकार और मंहगाई पर मौन ! हि‍न्‍दू ग्रुप के महान् पत्रकार एन. राम का समूचा दारोमदार इस बात पर है कि चीनी जनता के गुस्से और पीड़ा को छिपाओ और चीन के आर्थिक विकास को उभारो। सवाल यह है भारत के संदर्भ में यही पैमाना 'फ्रंटलाइन' के संपादक को ख्याल क्यों नहीं आता ? यही स्थिति 'हिन्दू' में छपने वाले उस किसान आख्यान की है जिसमें भारत के किसानों की पामाली को बार-बार चित्रित किया जाता है किंतु चीन के किसान की पामाली का कभी मूल्यांकन नहीं आता ! चीन से भारत की तुलना सिर्फ आर्थिक आंकड़ों और सेज प्रकरण तक ही नहीं करनी चाहिए, इससे दोनों देशों के बारे में समग्र नजरिया नहीं बनता। तुलना करनी होतो मानवीय त्रासदियों की करनी चाहिए। त्रासदी का आख्यान पत्रकारिता को बड़ा बनाता है। 
   ''कौंसिल ऑन फोरेन रिलेशंस''  (गैर-पार्टीजान संगठन ,जो मीडिया के मसलों को पूर्वाग्रहरहित होकर विश्लेशित करता है) के सीनियर फैलो एलिजाबेथ सी.इकोनॉमी ने लिखा कि चीन सरकार का लक्ष्य है मीडिया अंतर्वस्तु को नियंत्रित करना जिससे सत्ता बनी रहे। चीन सरकार की मीडियानीति इस समय ''सिजोफ्रेनिया' की अवस्था में है। वे जानते हैं कि जिस तरह के विकास का रास्ता उन्होंने चुना है उसमें सूचनाओं का प्रवाह बने रहना जरूरी है,प्रेस की स्वतंत्रता जरूरी है। किंतु डरते हैं कि कहीं सूचना के ज्वार और प्रेस की आजादी के कारण शासन का पतन न हो जाए। यह उम्मीद की जा रही है कि राष्ट्रपति हू जिनताओ अपने पहले वाले शासकों की तुलना में प्रेस के प्रति ज्यादा नरम रवैयया अपनाएंगे। किंतु चीन का मीडिया यथार्थ और मीडिया के प्रति चीन प्रशासन का मौजूदा रवैयया इस आशा की पुष्टि नहीं करता। 'कमेटी टु प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट''  के एशिया प्रोग्राम कोर्डिनेटर बॉदित्ज ने कहा है कि चीन प्रशासन का '' मौजूदा रूख अनुदारवादी है और यह बना रहेगा।''
राष्ट्रपति हू जिनताओ के शासन के दौरान एक बड़ा परिवर्तन हुआ है जिसकी प्रशंसा की जानी चाहिए। मीडिया का व्यवसायीकरण हुआ है। मीडिया में वैविध्यपूर्ण अंतर्वस्तु का प्रसारण बढ़ा है। चीनी समाचार एजेंसियों के द्वारा खोजी पत्रकारिता की ज्यादा से ज्यादा रिपोर्ट आ रही हैं। पहलीबार एक गैर कम्युनिस्ट चीन का उपराष्ट्रपति बना है। कम्युनिस्ट पार्टी के 17वें अधिवेशन में पूरे समय मीडिया को उपस्थित रहने और मनमानी रिपोर्ट करने की अनुमति दी गयी।
       चीन सरकार के आंकड़ों के अनुसार चीन में दो हजार समाचारपत्र हैं। आठ हजार से ज्यादा पत्रिकाएं प्रकाशित होती हैं। देश में 374 टेलीविजन स्टेशन हैं। 150 मिलियन इंटरनेट यूजर हैं। अनेक माध्यमों का निजी क्षेत्र की मीडिया कंपनियों के साथ समझौता है। एसिले डब्ल्यू इसेरी का मानना है चीन में इंटरनेट के माध्यम से मीडिया सुधार आएंगे। क्योंकि इंटरनेट पर पूर्ण नियंत्रण असंभव है।   
      'रिपोर्टर विदआउट बॉर्डर' के द्वारा बनायी गयी ''2007 प्रेस स्वतंत्रता तालिका'' में चीन को 168 देशों की सूची में 163 वां स्थान मिला है। इससे चीन में अभिव्यक्ति की आजादी का स्तर क्या है  साफ तौर पर समझा जा सकता है। चीन में आदेश है  ''सुरक्षा का सम्मान और मातृभूमि के हितों की रक्षा'' करना प्रत्येक चीनी नागरिक का दायित्व है। कल्पना करें भारत के पत्रकारों को यदि इस तरह की सेंसरशिप का पालन करना पड़े ? हमारे पत्रकार आए दिन सरकार की नीतियों और घोटालों के चिथड़े उड़ाते रहते हैं, सरकार को जनता के कठघरे में खड़ा करते रहते हैं। किंतु देश की सुरक्षा और मातृभूमि की रक्षा के नाम पर चीन में स्वतंत्र लेखन पर पाबंदी है। यदि कोई पत्रकार इसका उल्लंघन करता है तो उसे गंभीर परिणाम भुगतने होते हैं। कल्पना कीजिए बोफोर्स कांड का खुलासा एन. राम ने चीन में किया होता तो समाजवादी चीन एन.राम की क्या दुर्गत बनाता ? एन. राम को चित्रा सुब्रह्मण्यम के साथ बोफोर्स कांड का रहस्योद्धाटन करने वाला माना जाता है और किसानगाथा के विख्यात पत्रकार पी.साईंनाथ जिन्हें सबसे ज्यादा पुरस्कार इसी काम की वजह से मिले कि उन्होंने किसानों के सच को उजागर किया। क्या यही सच चीन में बताना पी.साईंनाथ जैसे पत्रकारों के लिए संभव होता ? जी नहीं, समाजवादी चीन की सरकार इन दोनों को फांसी पर लटका चुकी होती अथवा आजन्म जेल में बंद कर देती। दुनिया में चीन ही अकेला देश है जहां सबसे ज्यादा पत्रकार जेलों में यातनाएं भुगत रहे हैं। चीन प्रशासन ने कड़े मीडिया विरोधी कानूनों के अलावा आत्म-सेंसरशिप पर ज्यादा जोर है।
   चीन में वैसे अनेक सरकारी संस्थाएं हैं जो सेंसरशिप के काम को देखती हैं। किंतु इनमें तीन संस्थाएं महत्वपूर्ण हैं। 1.जनरल एडमिनिस्ट्रेशन ऑफ प्रेस एंड पब्लिकेशन,(जी.ए.पी.पी.) ,2. स्टेट एडमिस्ट्रेशन ऑफ रेडियो, फिल्म,एंड टेलीविजन(एस.ए.आर.एफ.टी.) ये दोनों संस्थाएं प्रेस और इलैक्ट्रोनिक मीडिया के सेंसरशिप और अनुमति संबंधी कार्यों की निगरानी करती है। इनके अलावा सबसे बड़ी संस्था है चीन की कम्युनिस्ट पार्टी जिसके निर्देश ये संस्थाएं चलती हैं। पार्टी के केन्द्रीय प्रौपेगैण्डा विभाग का काम है उपरोक्त दोनों संस्थाओं के कार्यों में सामंजस्य ,सहयोग बिठाना और निर्देश देना।
     प्रतिदिन इन संस्थाओं की तरफ से पत्रकारों को निर्देश भेजे जाते हैं कि क्या छापें और क्या न छापें। मजेदार बात यह है कि यदि कोई पत्रकार पार्टी अथवा उपरोक्त दोनों संस्थाओं के दिशा निर्देशों का प्रचार कर देता है तो उसे कड़ी सजा दी जाती है। इस प्रसंग में चीनी पत्रकार सुई ताओ का जिक्र करना समीचीन होगा। यह पत्रकार सन् 2004 से जेल में बंद है। इसे दस साल की सजा दी गयी। इसका अपराध यह था कि उसने चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के प्रौपेगैण्डा विभाग के दिशा निर्देशों को ऑन लाइन पर सार-संक्षेप में प्रकाशित कर दिया था। ये दिशा निर्देश तिएनमैन स्क्वायर की पन्द्रहवीं बरसी की रिपोर्टिंग के मुतल्लिक कम्युनिस्ट पार्टी ने जारी किए थे। मात्र इतना करने पर ही सुई ताओ को दस साल  की कड़ी सजा सुनादी और जेल में डाल दिया गया। क्या कहीं पर ऐसा सुना है कि दिशा निर्देश का सार बताने मात्र पर सजा सुना दी जाए ?
   

3 टिप्‍पणियां:

  1. आपने काफी सटीक मुद्दे उठाई है लेकिन कहना चाहूँगा कि आपने लेख का शीर्षक उचित नहीं दिया ! जहां तक हमारे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की बात है वह यह सब गला फाड़-फाड़ कर कह चुके, उल्टे चीन और भरता सरकार ने तो उन्हें युद्घ के लिए उकसाने का आरोप भी मद दिया था !

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  2. चीन के खिलाफ़ कुटनीतिक सभी मोर्चे खोलना अत्यावश्क है, विश्व समुदाय के सामने इसे जलील करना चाहिए, इसके सभी को अपने स्तर पर जिम्मेदारी समझनी चाहिए।

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