चीनी समाज में जिस तरह के परिवर्तन आए हैं उन्हें पश्चिम और चीन के संगम का नाम दिया जा सकता है। पश्चिम के नाम पर आप चीनी जनता में कुछ भी बेच सकते हैं। पश्चिम के मिथ के प्रति आकर्षण और उसके पीछे पागल जैसी दीवानगी ने आज चीनी चेहरे पर पश्चिमी मुस्कान पैदा कर दी है। पश्चिमी चीजों की जबर्दस्त भूख है। मजेदार बात यह है चीनी लोगों को पश्चिमी माल अच्छे लगते हैं किंतु पश्चिमी विचार जैसे लोकतंत्र,मानवाधिकार, अभिव्यक्ति की आजादी, पर्यावरण जागरूकता आदि पसंद नहीं हैं। इस तरह चीन के माल का संसार पश्चिमी है,चेहरे और समाज की रौनक पश्चिमी है किंतु विचारों की दुनिया चीनी है। कम्युनिस्ट पार्टी की है। यह भी कह सकते हैं चीन का शरीर पश्चिमी है किंतु दिमाग कम्युनिस्ट है।
दिल पश्चिमी है किंतु विश्वास चीनी हैं। आत्मा और शरीर ,मन और जीवन के बीच, पश्चिम और कम्युनिस्ट के बीच में , किया गया श्रम विभाजन इस बात को दरशाता है कि पश्चिमी भोग व्यवस्था हो किंतु जरूरी नहीं है कि जनतंत्र भी हो। जरूरी नहीं है कि उपभोक्तावाद हो किंतु राजनीतिक तौर पर लोकतंत्र भी हो। उपभोक्तावाद राजनीति में अधिनायकवाद को पुष्ट करता है। अ-राजनीतिकरण को बढ़ावा देता है। यही वह बिंदु है जहां पर चीन की कम्युनिस्ट विचारधारा पश्चिमी उपभोक्तावाद के साँचे में एकदम फिट बैठती है। उपभोक्तावाद और अधिनायकवाद एक दूसरे के बंधु हैं। इनमें बैर नहीं है।
चीन के शासकतंत्र का मानना हैकि वे एक ऐसा समाज बनाने की कोशिश कर रहे हैं जो न तो उपभोक्तावादी समाज है और न सूचना समाज है और न परवर्ती पूंजीवादी समाज है। इस समाज को चीन के शासकों ने '' हारमोनियस समाज'' यानी 'सद्भावना समाज' की संज्ञा दी है। सन् 2004 में कम्युनिस्ट पार्टी की 16वीं केन्द्रीय कमेटी के चौथे विशेषाधिवेशन में 'सद्भावना समाज' का नाम राष्ट्रपति हू जिनताओ ने दिया। यही मॉडल चीनी समाज के विकास की धुरी है। यही मॉडल सामाजिक और घरेलू नीतियों के विकास की धुरी है। 'सदभावना समाज' में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने लोकतंत्र,बौध्दिक और सर्जना के क्षेत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की धारणाओं को शामिल किया है। हू जिनताओ द्वारा प्रतिपादित 'सदभावना समाज' में निम्नलिखित चीजें शामिल हैं-
1. टिकाऊ,तेज और संयुक्त आर्थिक विकास.
2. ''समाजवादी लोकतंत्र'' का विकास
3. कानून का शासन
4.विचारधारात्मक और एथिकल विकास पर जोर
5. सामाजिक न्याय और समानता को बनाए रखना
6. '' बेहतरीन सामाजिक प्रबंधन व्यवस्था'' का निर्माण जिससे जनता के आन्तरिक अन्तर्विरोधों का प्रबंधन किया जा सके।
7. पर्यावरण संरक्षण
'सद्भावना समाज' की मुश्किल यह है कि इसका चीन के सामयिक यथार्थ से कोई संबंध नहीं है। 'सद्भावना समाज' के लिए जरूरी है कि चीनी राष्ट्रवाद का अंत हो। लोकतंत्र की स्थापना हो। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की चालक शक्ति राष्ट्रवाद है। चीनी राष्ट्रवाद के आधार पर ही विदेशी ताकतों खासकर अमरीका और जापान के प्रति गुस्सा अभिव्यक्ति होता रहा है। हाल ही में 1 मई 2008 को फ्रांसीसी मालों के बहिष्कार का अभियान चलाया गया और जिन दुकानों पर फ्रांसीसी सामान बिक रहा था उनके बाहर जमकर प्रदर्शन हुए हैं। चीनी समाज की दूसरी बड़ी बाधा है पुराने पारिवारिक ढ़ांचे का बने रहना।
परिवार का एक मूल्य के रूप में बरकरार रहना ,बच्चों की जिम्मेदारी के भावबोध का बचे रहना,किसी भी तर्क के साथ मौजूदा विकास की गति के साथ मेल नहीं खाता। त्रासद स्थिति यह है कि मजदूर शहरों में रहते हैं। उनके पास परिवार को रखने की न्यूनतम जगह तक नहीं है। मजदूरों को अपने परिवारीजनों को खासकर बुजुर्गों को गांव में ही रखना होता है। यानी परिवार की ग्राम्य संरचनाओं का बचे रहना और उसे सरकारी संरक्षण और नीति के आधार पर बचाए रखना एब्नार्मल है। आज चीन में सामाजिक'आर्थिक विकास जिस गति से हो रहा है उसमें पुराने किस्म का राष्ट्र,राष्ट्रवाद और परिवार किसी भी तरह फिट नहीं बैठता। सद्भाव समाज की बुनियादी समस्या है नागरिक समाज का अभाव। चीन में नागरिक जिंदगी का विकसित न होना पाना। आमतौर पर चीनी लोग अपने परिवार के बाहर के लोगों की मदद नहीं करते। अन्य के बारे में नहीं सोचते। माओ युग में मनुष्य के प्रति जिस गहरी अनास्था के बीज बोए गए थे वे अभी समाज में मनुष्य के अमानवीय बर्बर व्यवहार के रूप में फलफूल रहे हैं। मनुष्य के प्रति गहरी अनास्था,जनता के प्रति विश्वास के अभाव के कारण सबसे बड़ी कुर्बानी हुई है मानवीय सहानुभूति और परोपकार की।
चीन में इन दिनों एक विलक्षण चीज देखने में आ रही है चीनी लोग अपने देशी चीनी भाई की बजाय विदेशी पर ज्यादा विश्वास करने लगे हैं। गलत नीतियों के कारण सामाजिक जीवन में बंधुत्व और एकता का मूल्य बुरी तरह क्षतिग्रस्त हुआ है। बंधुत्व और एकता ये दो पुराने कन्फयूशियस मूल्य हैं। कनफयूशियस के यहां मनुष्य के ऊपर भी अगाध आस्था थी। मानवीय मूल्यों पर कनफयूशियस दर्शन मानवीय मूल्यों पर जोर देता है। माओ युग में कपनफयूशियस दर्शन को जड़ से उखाड़ फेंक देने के चक्कर में मनुष्य की धारणा को ही नष्ट कर दिया गया।
चीन में विगत पांच सालों में 'कारपोरेट सोशल रेस्पॉसविलटी' की धारणा पर जोर दिया जा रहा है। इसके अलावा अनेक चैरिटी ग्रुप भी उभरकर आए हैं। खासकर चीन में मानसिक और शारीरिक तौर पर अपाहिज और आवारा बच्चों का बड़ा समूह है उनकी देखभाल की व्यवस्था की जरूरत है। एक अनुमान के अनुसार चीन में इस समय दस लाख से भी ज्यादा चैरीटेबिल संगठन कार्यरत हैं।
चीन के आंतरिक संसार में झांककर देखें तो बड़ी ही भयानक तस्वीर निकलकर सामने आती है। चीन में कहीं पर भी शांति नहीं है। जनसंख्या का विस्फोट समूचे समाज को अशांत किए है। समूचा समाज जनसंख्या के शोर में गुम है। ज्यादातर चीनी युवा क्विज टाइप शिक्षा व्यवस्था में बड़े हो रहे हैं। उनमें तोतारंटत की भावना प्रबल रूप में घर कर गयी है। पाठ रटना और परीक्षा देना यही दो मुख्य लक्ष्य हैं। युवाओं के पास आत्माभिव्यंजना के लिए बहुत ही कम समय होता है। पाठयक्रम और परीक्षा का ढांचा कुछ इस तरह बनाया गया है कि विद्याार्थियों के पास बहुत कम खाली समय होता है। खाली समय में युवा लोग कम्प्यूटर पर व्यस्त रहते हैं, गेम खेलते हैं अथवा टीवी देखते हैं अथवा एमपी 3 प्लेयर सुनते हैं। ये चीजें एकदम लत की तरह फैल गयी हैं। युवा लोग पूरी तरह कम्प्यूटर की लत के शिकार हैं और वर्चुअल विज्ञानवाद की पकड़ में जा चुके हैं। उनकी आंतरिक मानवीय संवेदनशीलता पूरी तरह नष्ट हो चुकी है। सरकार भी वर्चुअल विज्ञानवाद को बढ़ावा दे रही है।
लाउ नी केउंग ' ने '' हारमोनियस सोसायटी विल इम्पेक्ट दि वर्ल्ड ''में लिखा है कि 'सदभावना समाज' की अवधारणा आधिभौतिक आयाम को अपने अंदर समेटे हुए है। '' व्यक्ति का आतंरिक सदभाव अंतत: मानव जाति और प्रकृति के बीच सद्भाव को पैदा करता है। 'सदभाव समाज' की अवधारणा में कनफयूशियस,बुध्द और ताओ के विचारों के अंश भी चले आए हैं। खासकर कनफयूशियस दर्शन की नैतिकता,संस्कृति और आध्यात्मिकता चली आई है। माओ और कम्युनिस्ट पार्टी के रास्ते पर चलने के कारण चीनी समाज में एक-दूसरे के प्रति सहानुभूति और संवेदनात्मकता पूरी तरह खत्म हो गयी। नैतिकता और अध्यात्मिकता का समूचा तंत्र नष्ट हो गया जिसका दुष्परिणाम निकला कि अब न मनुष्यों में आपसी सद्भाव और संवेदना बची है और न प्रकृति और पशुओं के प्रति सद्भाव और संवेदना बची है।
व्यक्ति और व्यक्ति के बीच में जबर्दस्त अलगाव माओ युग में पैदा हुआ और अब इस अलगाव ने अन्य क्षेत्रों में अपने पैर पसार दिए हैं। अब प्रकृति के साथ मनुष्य का पूरी तरह अलगाव व्यक्त हो रहा है। समूचा प्राकृतिक वातावरण नष्ट हो गया है। माओ के जमाने में ज्यादा से ज्यादा सामाजिक नियंत्रण हासिल करने के लिए लोग एक-दूसरे के खिलाफ पार्टी और प्रशासन तंत्र का इस्तेमाल करते थे। एक-दूसरे के खिलाफ संघर्ष का आलम इस हद तक पहुँच गया कि अपने परिवारीजनों के खिलाफ ही पार्टी तंत्र का इस्तेमाल करने लगे थे। सब कुछ पार्टी दफतरों से संचालित होता था। पार्टी ही महान थी, माओ महान थे बाकी सब अर्थहीन था। माओ और पार्टी के विचार ने चीनी समाज को गहरे सामाजिक अलगाव,संवेदनहीनता और पराएपन में डुबो दिया। सामाजिक जीवन का अलगाव कालान्तर में प्रकृति, इतिहास, धर्म, परंपरा, माता- पिता,बूढे और स्त्री के प्रति अलगाव में तब्दील हो गया।
आश्चर्य की बात है अलगाव समाजवादी फिनोमिना नहीं है। यह तो पूंजीवादी फिनोमिना है। किंतु चीन और सोवियत संघ के अनुभव बताते हैं कि समाजवाद में भी अलगाव को व्यापक रूप में देखा जा सकता है। चीन में माओ युग में अलगाव था सामूहिकता के साथ। सवाल उठता है सामूहिक उत्पादन और सामूहिक निर्माण में लगे लोग कैसे बेगानेपन के शिकार हो सकते हैं ? कैसे एक-दूसरे के प्रति संवेदनाहीन हो सकते हैं ? सवाल यह है कि यह कैसी कम्युनिस्ट सामूहिकता है जिसमें सामाजिक संवेदनाओं का अभाव है। व्यक्ति का व्यक्ति के प्रति प्रेम और स्नेह का अभाव है।
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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