मुंबई के मराठा मंदिर में 14 सालों से 'दिल वाले दुल्हनियां ले जाएंगे' चल रही है। यह स्वयं में कीर्त्तिमान है। यह एकदम नए परिप्रेक्ष्य की फिल्म है। यह ऐसे समय में आयी थी जब चारों ओर से रोमैंटिक प्रेम पर तरह-तरह के हमले हो रहे थे, रोमैंटिक प्रेम का समाज में एक सांस्थानिक स्थान है। गे और लेस्बियन से लेकर फंडामेंटलिस्टों तक, कठमुल्ले वामपंथियों से लेकर कठमुल्ला स्त्रीवादियों तक सबमें रौमेंटिंक प्रेम के प्रति घृणा देखी जा सकती है। ये सभी रोमैंटिक प्रेम को आए दिन निशाना बनाते हैं। 'दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे' इस अर्थ में नए पैराडाइम की फिल्म है । इसमें रोमैंटिक प्रेम का संस्थान के रूप में रूपायन किया गया है। उसकी सफलता का यही रहस्य है। हमारे समाज में महिला आंदोलन ने भी रोमैंटिक प्रेम पर हमले किए हैं। जगह-जगह महिला संगठनों का इस प्रसंग में हस्तक्षेप देखने में आया है। स्त्री संगठनों का मानना है रोमैंटिक प्रेम स्त्री की स्वायत्तता को छीन लेता है। उसे परनिर्भर बना देता है।
रोमैटिंक प्रेम का चित्रण करते हुए फिल्म के प्रमुख स्त्री पात्र स्त्री की शिरकत को बढावा देते हैं। समूची फिल्म प्रेम पर नहीं है बल्कि रोमैंटिक प्रेम के संस्थानगत चित्रण पर केन्द्रित है। अमूमन हिन्दी सिनेमा में प्रेम कहानी का इस्तेमाल खूब होता रहा है,लेकिन इस फिल्म में प्रेम नहीं रोमैंटिक प्रेम का आख्यान पेश किया गया है। रोमैंटिक प्रेम को संस्थान के रूप में प्रस्तुत करने के कारण ही यह फिल्म बार बार देखने को बाध्य करती है। फलत: रोमैटिंक प्रेम में युवाओं की शिरकत को बढावा देने वाली कल्ट फिल्म बन गयी। यह ऐसी रोमैंटिंक प्रेम फिल्म है जिसमें हिंसा एकसिरे से गायब है। इस अर्थ में यह प्राचीनकालीन महाकाव्यात्मक रोमांस का समावेश कर लेती है। रोमैंटिंक प्रेम की ताकतवर फिल्म होने के बावजूद इसमें कहीं पर भी कामुकता के मुहावरों और पद्धतियों का इस्तेमाल नहीं किया गया है।
रोमैंटिंग प्रेम में कामुकता अन्तनिर्हित होती है।कामुकता के लिए बाह्य प्रदर्शनात्मक हथकंडों की जरूरत नहीं होती। इस फिल्म में स्त्री पात्र अपनी स्वायत्तता ,विवेक , टेलेंट और चारित्रिक गुणों की स्वायत्तता बनाए रखते हैं।
फिल्मकार ने इसमें 'कंसर्न' और 'एडमिरेशन' पर ज्यादा जोर दिया है। ये दोनों तत्व इसके समूचे कथानक को बांधे रखते हैं। इन दो के अलावा एक्सक्लुसिविटी पर भी जोर है। एक्सक्लुसिविटी के कारण ही नायक-नायिका एक-दूसरे के लिए बने नजर आते हैं। कंसर्न का अर्थ है कि आप जिसे प्यार करते हैं उसके कल्याण के बारे में भी सोचें। कंसर्न के कारण ही प्यार समृद्ध होता है। अभी तक हिन्दी सिनेमा में कंसर्न का चरित्र पितृसत्तात्मक रहा है। जो संरक्षक हैं,अभिभावक हैं वे ही कल्याण के बारे में सोचते हैं। इस फिल्म में पहलीबार ऐसा चित्रण किया गया है जिसमें अभिभावकों का कंसर्न गौण है ,नायक-नायिका का कंसर्न प्रधान है।
कंसर्न या सरोकार प्रतिस्पधी नहीं होते। पात्रों में जेनुइन कंसर्न नजर आता है। आमतौर पर हिन्दी सिनेमा में अभिभावकों के कंसर्न पर जोर रहता है यहां पर प्रेमीयुगल के कंसर्न पर जोर है। इस फिल्म में नायक-नायिका एक -दूसरे से ही प्यार नहीं करते, बल्कि नायिका का अपनी मॉं और पिता से भी प्यार है। इस अर्थ में प्यार की नायक-नायिका केन्द्रित धारणा को यह फिल्म चुनौती देती है । नायक-नायिका के प्यार के सामने अंत में नायिका के माता-पिता समर्पण कर देते हैं।
रोमैंटिंक प्रेम में 'प्रमुख' और 'निर्णायक' का केन्द्रीय महत्व है। यह फिल्म प्रेम की फिल्म नहीं है अपितु रोमैंटिक प्रेम की फिल्म है।शाहरूख पूरी कहानी में प्रधान पात्र है किंतु प्रेम कहानी का विकास कुछ इस तरह होता है कि वह निर्णायक नहीं रह जाता। रोमैंटिक प्रेम निर्णायक बन जाता है। नायक अपनी प्रधानता या विशिष्टता का प्रच्छन्नत: इस्तेमाल करता है।वह सिमरन के घर में हमेशा गैर जरूरी किस्म के कामों में उलझा रहता है। ये गैर जरूरी काम ही हैं जो उसकी गतिविधियों को,उसके प्रेम को अनैतिक नहीं बनने देते। वह जो काम करता है उन्हें लेकर किसी को आपत्ति नहीं है। क्योंकि वह ऐसा कोई भी काम नहीं करता जो आपत्तिजनक हो। सिमरन के घर में विभिन्न किस्म के कार्यों में शाहरूख खान की सक्रियता प्रेम की एक्सक्लुसिविटी की धारणा को खंडित करती है।
फिल्म संदेश देती है कि प्रेम में एक्सक्लुसिविटी अग्राह्य चीज है। स्वास्थ्यप्रद नहीं है। इसके बारे में सवाल किए जाने चाहिए। सिमरन (काजोल) के प्रति राज (शाहरूख खान) का प्रेम एक-दूसरे के प्रति प्रशंसा और कंसर्न से भरा है। प्रशंसा और कंसर्न के आधार पर ही वे दोनों करीब आते हैं। रोमैंटिंक प्रेम में प्रशंसा अनिवार्य तत्व है। इसके बिना रोमैंटिक प्रेम का आख्यान नहीं बनता।
सन् 1995 में यह फिल्म आती है। यही वह समय है जब भारत इंटरनेट और सैटेलाइट टीवी क्रांति में व्यापक रूप में दाखिल होता है। यह मीडिया क्रांति इस फिल्म को भी प्रभावित करती है। नायिका-नायक एक-दूसरे को चाहते हैं। प्यार करते हैं। सिमरन की शादी किसी और से तय हो जाती है,जिससे शादी तय होती है वह भी सिमरन के घर आता है। राज इस शादी से खुश नहीं है। यह बात वह छिपाता है। सिमरन भाग चलने के लिए कहती है। शहरूख भागकर शादी करने से इंकार करता है । वह चाहता है उसके प्रेम को लोग जान जाएं ,खासकर सिमरन के पिता (अमरीश पुरी) जान लें, वह उनकी ही अनुमति से शादी करना चाहता है। अंत में कथानक का उसी दिशा में विकास होता है। वे दोनों मिल जाएं इसी दिशा में सिमरन भी प्रयास करती है। रोमैंटिक प्रेम में यह मिलन और एकीकरण सबसे महत्वपूर्ण है और यह तत्व तब सबसे ज्यादा निखरकर सामने आता है जब सभी की सहमति और स्वीकृति हो। कथानक के प्रमुख दोनों पात्रों का मार्ग एक है और वे दोनों प्रेम में सफल होते हैं।
रोमैंटिंक प्रेम में यदि दोनों दो अलग रास्ते चुनते हैं तो प्रेम असफल होता है। 'दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे' का इस अर्थ में महत्व है कि नायक-नायिका प्रेम का एक ही मार्ग चुनते हैं। हिन्दी सिनेमा में यह फिल्म पैराडाइम परिवर्तन की सूचना है। रोमैटिंक प्रेम का नया कार्यव्यापार सामने आता है। इन दोनों को मिलाने में भगवान की मदद नहीं ली जाती।
इस फिल्म में जो रोमैंटिक प्रेम है वह अपना लक्ष्य जानता है। प्रेम के लक्ष्यहीन अंत को यह फिल्म ठुकराती है। यह ऐसे प्रेम पर बल देती है जिसमें प्रेमी युगल का प्यार एक-दूसरे को प्रसन्न रखता है। यहां भावों के बंधन पर जोर है।संवेदनाओं के बंधन पर जोर है। कामुक बंधन पर जोर नहीं है।
प्यार को पुख्ता करने का फार्मूला क्या है ? इसका कोई फार्मूला नहीं हैं। सिमरन जब राज से मिलती है तब वह परायी थी। उसके बारे में राज नहीं जानता था। राज की केयरिंग और अच्छे व्यवहार ने सिमरन का दिल जीत लिया। संदेश है प्रेम के लिए 'अन्य' (अदर) के साथ मन से अच्छा व्यवहार करना चाहिए। आप 'अन्य' के साथ अच्छा व्यवहार करेंगे तब ही अपनी प्रेमिका के साथ भी अच्छा व्यवहार करेंगे।
राज जिन लोगों के बीच रहता है वे सब उसके लिए 'अन्य' हैं लेकिन उसके अच्छे व्यवहार में कहीं अंतर नहीं आता। राज अपने व्यवहार से सिमरन का दिल जीतता है। उसके परिवारवालों का दिल जीतता है। दर्शकों का भी दिल जीतता है। अंत में रोमैटिंक प्रेम का कल्ट नायक बन जाता है। यही वह बिंदु है जहां पर आकर शाहरूख खान ने दिलीपकुमार की प्रेमी नायक की छवि का अतिक्रमण किया है। लक्षणों में शाहरूख का प्रेमी नायक कुछ हद तक वह संजीवकुमार के प्रेमी नायक के करीब है।
रोमैंटिंक प्रेम का अर्थ है आनंद। प्रेमी युगल जब मिलें तो एक-दूसरे को आनंदित करें। आंतरिक संवेदनात्मक आनंद ही रोमैंटिक प्रेम की धुरी है। रोमैंटिक प्रेम को इस फिल्म ने इतना महान इसलिए भी बनाया क्योंकि यह फिल्म इंटरयुगीन नारे का प्रत्युत्तर एडवांस में देती है। इंटरयुगीन प्रेम में सेक्स ही महान है। आंतरिक संवेदनात्मक आनंद मिले या न मिले, लगाव हो या न हो, सेक्स होना चाहिए। प्रेम की इस थ्योरी को यह फिल्म अस्वीकार करती है। प्रेम के मूलाधार के रूप में सेक्स को नहीं आनंद,संवेदनात्मक आनंद को महत्ता प्रदान करती है। जाहिर है ऐसी स्थिति में उन औरतों में यह फिल्म चिढ़ पैदा करती है जो प्रेम में सेक्स खोजती हैं।आकर्षित करके या फुसलाकर पटाकर प्यार करती हैं। सेक्स नहीं आनंद प्रेम का मूलाधार है।
फिल्म का मूल संदेश है कि यदि प्रेम करना है तो 'अन्य' को देखो,'अन्य' को जानने की कोशिश करो,'अन्य' की स्वीकृति ,'अन्य' का प्यार पाने की कोशिश करो,'अन्य' को खुश करके आनंद अर्जित करो। हम जानते हैं कि सन् 1990 के बाद से 'अन्य' के प्रति अलगाव बढा है। 'अन्य' के प्रति बढते बेगानेपन को भोगवाद और उपभोक्तावाद ने हवा दी है। इस हवा के खिलाफ यह सार्थक हस्तक्षेप है।
शाहरूख खान और काजोल ऐसे नायक-नायिका के रूप में सामने आते हैं जिनके लिए इमोशंस ही तर्क है। उनके सार्वजनिक तर्क का आधार है। ये दोनों नैतिकता और परंपरा के तर्क से संचालित नहीं होते। इमोशंस के तर्कों का इस्तेमाल करते हुए ये दोनों परंपरा,नैतिकता,मर्यादा आदि के समूचे तर्कशास्त्र को चुनौती देते हैं।
संजीवकुमार, दिलीपकुमार, राजकपूर,देवानन्द आदि की प्रेम फिल्मों में एथॉस हावी रहता है,इसका देरिदियन विलोम है पेथॉस जिसका बडी खूबी के साथ फिल्ममेकर ने इस्तेमाल किया है। पहलीबार फिल्म में राजनीतिक सौंदर्य, शहरी सौन्दर्य, परंपरागत सौन्दर्य सबको एक ही साथ चुनौती मिलती है। मिश्रित संस्कृति का नया सौन्दर्यशास्त्र इमोशंस के तर्क के आधार पर रचा जाता है।
परंपरा,संस्कृति, महानगर,अमीर,शिक्षित,अशिक्षित,जातिभेद आदि की दीवारें पंजाब के गांव में जाकर टूटती हैं। भेद की दीवारें गांव में टूटेंगी। यह एकदम नयी धारणा है और अभी तक इस पर किसी ने इतनी ताकतवर फिल्म नहीं बनायी थी। नयी आधुनिक मिश्रित संस्कृति का रौमैंटिंक प्रेम सर्जक है। फिल्ममेकर ने उसे साधारणजन की फैंटेसी बनाया है। 'भेद' की सभ्यता को इस आधार पर चुनौती दी है। यह फिल्म पेथॉस के फ्रेमवर्क में बनी है अत: दर्शक की सहानुभूति सहज ही अर्जित कर लेती है। सुचिन्तित भाव से प्रेम के पुराने सौन्दर्यबोध को भी नष्ट करती है।
यह ग्लोबलाईजेशन के आरंभ की फिल्म है इसमें सहजभाव से 'अमेरिकी संवेदनात्मकता' अन्तर्ग्रथित है। अमेरिकी टीवी संचार की मूल दिशा 'सेंटीमेंटल इमेजों' पर केन्द्रित रही है। फिल्म के नायक-नायिका रोमैंटिक प्रेम की 'सेंटीमेंटल इमेज' का एकदम नया रूप तैयार करते हैं। यह उस 'अंतराष्ट्रीय संचार फ्लो' का अभिन्न हिस्सा है जिसने सारी दुनिया में सद्दाम के खिलाफ 'सेंटीमेंटल इमेजों' को प्रक्षेपित किया । समाजवाद के खिलाफ सेंटीमेंटल टीवी इमेजों को प्रक्षेपित किया। 'सेंटीमेंटल इमेजों' के इस अंतर्राष्ट्रीय संचार फ्लो को बडी ही सुंदरता के साथ रोमैंटिक आख्यान में पिरोने में फिल्ममेकर को सफलता मिली है। ये ऐसी इमेजें हैं जो सहानुभूति नहीं चाहतीं बल्कि अपने इमेजों के प्रवाह में बहाए लिए चली जाती हैं। अंतर्राष्ट्रीय मीडिया ने 'सेंटीमेंटल इमेजों' को राजनीतिक संचार के लिए इस्तेमाल किया है। 'सेंटीमेंटल इमेजों' को दर्शकों की राष्ट्रवादी भावनाओं को भडकाने के लिए इस्तेमाल किया है। भारतीय टीवी में यह बीमारी अमेरिकी टीवी से आयी है।
इसके विपरीत 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' में प्रेम के संदेश के जरिए 'भेद' की दीवार गिराने के लिए सेंटीमेंटल इमेजों का इस्तेमाल किया गया है। इस तरह वह 'अंतराष्ट्रीय संचार फ्लो' का हिस्सा है,साथ ही भिन्न भी है। फलत:यह फिल्म देश-विदेश सब जगह हिट होती है।
आज के युग में फिल्म या संचार की सफलता के लिए इमेजों के अंतर्राष्ट्रीय फलो के साथ संगति का होना बेहद जरूरी है। यह फिल्म अंतर्राष्ट्रीय फ्लो की एक अन्य चीज को आत्मसात करती है। वह है फीलिंग ही सूचना,सूचना ही फीलिंग है। राज और सिमरन की फीलिंग ही सूचनाएं पैदा करती हैं। इस फिल्म में विभिन्न पात्रों की फीलिंग के माध्यम से ही सूचनाएं संप्रेषित होती हैं।
फीलिंग के आधार पर ही सूचनाओं की शक्ति का अंदाजा लगाया जाता है। सैटेलाईट टीवी के आने बाद से यही बुनियादी नीति रही है विश्व संचार की। सार्वजनिक परिदृश्य हो,सार्वजनिक विवाद हों,राजनीतिक विवाद हों, घरेलू विवाद हों, इत्यादि सभी चीजों की प्रस्तुति का मूल मंत्र है फीलिंग ही सूचना है,सूचना ही फीलिंग है। इस प्रक्रिया में जब आप शामिल हो जाते हैं तो अविवेकवाद के सामने निहत्थे होते हैं। यही ग्लोबलाईजेशन का लक्ष्य भी है, वह चाहता है कि हम अविववेकवाद के सामने विवेकवाद के अस्त्रों से लैस नजर नहीं आएं।
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