गुरुवार, 22 अक्टूबर 2009

चीनी वि‍कास की उलटबांसी

आज प्रकृति और परंपरा के प्रति जिस तरह का अमानवीय और विध्वंसक तांडव चीन में दिख रहा है। उसके बीज कहीं न कहीं माओ युग की मनोदशा में मिलते हैं। माओ का निजी तौर पर प्रकृति और परंपरा के प्रति कोई लगाव नहीं था। स्टालिन की तरह ही माओ ने सामूहिकता और औद्योगिक विकास को किसी भी कीमत पर हासिल करने का अभियान चलाया था। इससे परंपरागत चीनी नजरिया और संस्कार पूरी तरह नष्ट हो गए। प्रकृति और परंपरा को जब एक बार नष्ट कर देते हैं तो दुबारा अर्जित करना मुश्किल होता है।
चीन में सद्भाव समाज की अवधारणा के जरि‍ए चीन को वर्चुअल युग में ले जाने की कोशिशें की जा रही है। यह ऐतिहासिक तौर पर असंभव कार्य है। सद्भाव समाज को बनाने के लिए परंपरागत चीनी मूल्यों और संस्कारों को पैदा करना होगा। यह संभव नहीं लगता। परंपरागत मूल्यों को जिस बर्बरता के साथ चीनी समाज में नष्ट किया गया है उससे निकलने का रास्ता कम्युनिस्ट पार्टी की संरचनाओं में नहीं है। उच्च आर्थिक विकास दर ,ऊँची बिल्डिगें, ओवर ब्रिज संस्कृति,मॉल की संस्कृति, बूढ़ों और परिवारीजनों को शहरों से बहिष्कृत करके रखने की संस्कृति ,विरासत,शहर की पुरानी बसावट,धर्म और अध्यात्म को नष्ट कर देने की संस्कृति ये सारी चीजें मिलकर चीन को समाजवादी की नहीं वर्चुअल चीन बना रही हैं। इस तरह का विराटकाय विकास सिर्फ एक जमाने में अमरीका में हुआ था। चीन का विकास उसकी भयानक नकल है।इस वि‍कास ने चीन की आत्‍मा को नष्‍ट कि‍या है। चीन के सार को नष्‍ट कि‍या है।
आज चीन जिस विकास चक्र में फंसा है उसे 2600 साल पहले चीनी वि‍द्वान् लाउ जू ने बड़े ही सुंदर शब्दों में लिखा था, लाओ ने लिखा था '' कम ही ज्यादा और ज्यादा ही कम ।'' चीन में ज्यादा से ज्यादा की अंतहीन भूख समाप्त नहीं हो रही है। वे जितना ज्यादा पैदा कर रहे हैं, उतनी बड़ी मुसीबतों को जन्म दे रहे हैं। बड़ी बिल्डिंगें, शानदार सड़कें,सुंदर शहर, और सुंदर वस्तुएं बना रहे हैं, इससे और ज्यादा सुंदर पैदा करने की भूख पैदा कर रहे हैं। ऐसा करके वे ज्यादा अभाव पैदा कर रहे है।
सदभाव समाज के लिए जरूरी है विभिन्न स्तरों पर स्वतंत्र और तटस्थ प्रशासनिक संरचनाएं निर्मित की जाएं। उन्हें पार्टी हस्तक्षेप से मुक्त रखा जाए। राजसत्ता और पार्टी को अलग किया जाए।उनकी स्वायत्तता बनाए रखी जाए, समाज के प्रत्येक इलाके में प्रत्येक नागरिक के रहने,आने-जाने और स्वतंत्र विचरण की व्यवस्था हो। अभी ऐसा नहीं है। हमारे कुछ साहित्यकार और व्यापारिक दोस्त हाल ही में चीन घूमकर आए हैं उनका कहना था कि चीन के शहरों में बूढ़े नजर नहीं आते। शहरों से बूढ़ों को क्यों खदेड़ दिया गया ? यह तो अमानवीय बात है बूढ़े गांव में रहेंगे और शहरों में सिर्फ युवा रहेंगे। इसी तरह नये किस्म की आर्थिक संरचनाओं,व्यापारिक संरचनाओं के विराटकाय रूपों को देखकर और सड़कों ,पुलों, ओवरब्रिज,मॉल आदि का निर्माण करने के साथ शहरों की समस्त वास्तुकला,संस्कृति, सभ्यता, इतिहास आदि को पूरी तरह नष्ट कर दिया गया है। शहरों की अपनी विशिष्ट पहचान,अपने अतीत, गौरव, अपने बाशिंदों की विविधता और सांस्कृतिक वैविध्य को पूरी तरह नष्ट कर दिया गया है।
चीन में एक ही एक ही फिनोमिना है पुराना नष्ट करो, नया बनाओ। चीन का नया विकास परंपरा,इतिहास और जनसंख्या की बसावट आदि के सभी प्रचलित मानकों और आदर्शों को नष्ट कर चुका है। सब कुछ ऊपर से आरोपित है। सारा विकास अस्वाभाविक है। इस विकास में सहिष्णुता,सामंजस्य, शिरकत और साझेपन का अभाव है। यह ग्लोबल कारपोरेट घरानों और कम्युनिस्ट पार्टी के आदेश पर थोपा गया विकास है। इस विकास में मनुष्य महत्वपूर्ण नहीं है। आर्थिक विकास महत्वपूर्ण है। इसमें अपने पड़ोसी देश जापान से बड़ा बनने का भाव प्रबल है। पड़ोसी से महान बनने, पड़ोसी से ज्यादा विकसित दिखने, पड़ोसी से ज्यादा सुंदर बिल्डिंगें और सड़कें बनाने की प्रतिस्पर्धा ने जहां चीनी नागरिकों को पड़ोसी के प्रति मित्रता की बजाय प्रतिस्पर्धा,घृणा और पराएपन से भर दिया है। पड़ोसी अब चीनी नागरिक के लिए मित्र नहीं बल्कि प्रतिस्पर्धी हैं।
दूसरी ओर यह भी मानसिकता तैयार की है कि अब विकास ही सब कुछ है। मनुष्य कुछ भी नहीं है। मनुष्य बनाम विकास का केन्द्रीय अन्तर्विरोध सामने आ गया है। विकास के लिए कुछ भी कर सकते हैं। मनुष्य के लिए कुछ भी नहीं कर सकते। इस समूची प्रक्रिया में कहीं न कहीं विकास के नाम पर विकास की धारणा को बल मिला है। अब चीन के पास विकास है और उसके उच्चतम मानक हैं। किंतु उतने ही निम्नतम सामाजिक और सांस्कृतिक मानक पैदा हुए हैं। आज चीन विकास के मामले में स्वर्ग है और संस्कृति के मामले में नरक में जा चुका है। यही समाजवादी चीनी मॉडल की विशेषता है।
विकास और संस्कृति के बीच पैदा हुए अन्तर्विरोध ने आर्थिक तौर पर देश को ताकतवर बनाया किंतु नागरिकों को पामाली और बदहाली के ऐसे समुद्र में फेंक दिया है जिसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती। ऊँची विकास दर, उच्चस्तरीय उत्पादन क्षमता, विश्व बाजार में छा जाने की अभिलाषा ने चीन को अपनी निजी जड़ों और पहचान से वंचित कर दिया है। जाहिरातौर पर जड़ों से कटकर सद्भाव समाज नहीं बन सकता। सदभाव के जिए जड़ों का होना जरूरी है। मौजूदा विकास का मॉडल चीन की बुनियादी जड़ों को नष्ट करते हुए आ रहा है। इस अर्थ में यह भयावह और बर्बर है।
सदभाव समाज के संदर्भ में एक अन्य बाधा है सत्य को छिपाने की । अभी चीनी प्रशासन प्रत्येक चीज को छिपाता है और प्रत्येक चीज के बारे में निर्णय थोपता है। चीनी समाज भविष्य में जाना चाहता है किंतु अतीत को नष्ट करके ,भविष्य में जाने के लिए जरूरी है भविष्य को पकड़कर लाया जाए, अभी चीनी नहीं जानते वे किस तरह के भविष्य में जा रहे हैं। उनका भविष्य क्या है ? भविष्य का समाज यदि वह है जो अभी चीन में दिखाई दे रहा है तो यह भयानक समाज है। यह कब बैठ जाएगा कोई नहीं जानता। भविष्य के ज्ञान के अभाव में सोवियत संघ जैसा विशाल देश बिखर गया। भविष्य में जाने के लिए भविष्य को जानना और भविष्य को आमंत्रित करना जरूरी है। आदर्शों का होना जरूरी है। आदर्शों के बिना भविष्य अर्थहीन है। अध्यात्म और नैतिक मूल्यों के बिना भविष्य बर्बर है। सद्भाव समाज का संकट सिर्फ वर्तमान के साथ ही जुड़ा नहीं है बल्कि भविष्य के सपने के साथ भी जुड़ा है।

2 टिप्‍पणियां:

  1. बिल्कुल सही ट्रैक पर हैं. यह पुराना रोग है. जो प्रकृति और परंपरा से कोई लगाव न रखता हो वह और किस तरह हमारा मार्गदर्शक हो सकता है. काश यह दृष्टि हमें दस पन्द्रह वर्ष पहले मिली होती.

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  2. भारत भी उसी राह पर है

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