ओबामा विरोधियों का तर्क है कि उन्होंने भाषण बड़े दिए हैं, उन पर अमल बहुत कम किया है। आज (10अक्टूबर 2009) के 'हिन्दू' में सिद्धार्थ वरदराजन का मूल तर्क भी यही है। अन्य अखबारों में भी तकरीबन यही स्वर है।यह कहा जा रहा है कि ओबामा की अभी उम्र ही कितनी है, राजनीति में तो अभी आए ही हैं, उन्हें पुरस्कार देकर नोबेल समिति ने सही नहीं किया। कुछ लोगों को पुरस्कार में राजनीतिक गंध आने लगी है। इराक-अफगानिस्तान जल रहा है,ऐसे में ओबामा को शांति पुरस्कार देना शांति का अपमान है। सवाल उठा है कि आखिरकार ओबामा ने विगत आठ महीनों में ऐसा क्या किया है जिसके कारण उन्हें शांति पुरस्कार के लायक स्वीकार कर लिया गया ? प्रभाष जोशी लिखते हैं '' लेकिन सचाई यह है कि वे इसके लायक है नहीं।भले ही भली की हो पर अभी यह गलती ही की है। उपलब्धि की बजाय उम्मीद को पुरस्कृत करके नोबेल पुरस्कार समिति ने अपने स्वतंत्र ,निष्पक्ष और तटस्थ होने के साथ -साथ अपने नीर-क्षीर विवेक पर भी प्रश्न लगा लिए हैं।''
'' (कागद कारे,जनसत्ता11अक्टूबर2009)
असल में प्रभाष जोशी नहीं जानते कि ओबामा ने अमेरिका में विगत आठ महीनों में क्या किया है,उन्हें यह भी नहीं मालूम कि ओबामा को राजनीतिक विरासत में युद्ध और मंदी से जर्जर अर्थव्यवस्था मिली है। वे यह भी नहीं जानते कि ओबामा के शांति संदेशों का क्या अर्थ है। प्रभाष जी ने जिन समस्याओं को ओबामा के साथ जोडा है वे ओबामा की पैदा की हुई नहीं हैं। वे खैर अमेरिका में विगत आठ महीनों में क्या घटा है इस पर फिर कभी।
ओबामा को मिले पुरस्कार के फैसले को उनकी मीडिया मार्केटिंग रणनीति ने प्रभावित जरूर किया है। 'सेंटर फॉर मीडिया एंड पब्लिक एफेयर्स' (जार्ज टाउन यूनीवर्सिटी ) के अनुसार ओबामा प्रशासन के बारे में 405 स्टोरियां 'न्यूयार्क टाइम्स' के मुखपृष्ठ पर छपी हैं। इनमें कुल 119,678 कॉलम इंच स्थान दिया गया। जबकि इस साल अगस्त के मध्य तक 'टाइम' के मुखपृष्ठ पर 9,973 कॉलम कवरेज मिला है। ओबामा ने कुल मिलाकर इस दौरान उन्होंने 66 टीवी साक्षात्कार दिए हैं। टीवी साक्षात्कार के मामले में ओबामा अपने पूर्ववर्तियों को पीछे छोड चुके हैं। 'टावसन यूनीवर्सिटी ,मैरीलैंड के 'ह्वाइट हाउस ट्रांजिशन प्रोजेक्ट' के निदेशक मार्था जयंत कुमार के अनुसार जार्ज बुश ने इसी अवधि में 16 और बिल क्लिंटन ने मात्र 6 टीवी साक्षात्कार दिए थे। अखबार और पत्रिकाओं को साक्षात्कार देने के मामले में भी अपने पूर्व राष्ट्रपतियों को ओबामा ने पीछे छोड दिया है। ओबामा के प्रेस में 36 साक्षात्कार छपे हैं ,यह आंकड़ा भूतपूर्व राष्ट्रपतियों के साक्षात्कारों का दुगुना है। 'फॉक्स न्यूज' के डान गेनोर के अनुसार ओबामा ने अब तक 41 भाषण दिए हैं जिनमें इनमें 1198 बार उसने अपने बारे में बातें की हैं। इसमें 1,121 बार 'आई' और 77 बार 'मी' का प्रयोग किया।
प्रभाष जोशी को जानना चाहिए कि राष्ट्रपति ओबामा के मात्र आठ महीने के शासनकाल में अमेरिका का विश्व जनमत की नजर में स्थान ऊँचा हुआ है। हाल ही में 'नेशनल ब्रॉंड इण्डेक्स' के लिए किए सर्वे के अनुसार एक साल पहले विश्व जनमत की नजर में अमेरिका का दुनिया में सातवॉं स्थान था किंतु ताजा सर्वे में अमेरिका पहले नम्बर पर है। यह स्थिति मंदी की तबाही के बावजूद है। इसका प्रधान कारण है अमेरिका की विदेशनीति में आए नए परिवर्तन। बुश प्रशासन की विदेश नीति सारी दुनिया में अलोकप्रिय थी। इसके विपरीत ओबामा की विदेश नीति जनप्रिय है। ओबामा के राष्ट्रपति बनने के बाद विश्व में अमेरिका की साख में बढोत्तरी हुई है। अमेरिका के प्रति सारी दुनिया के देशों की भाषा और भंगिमा बदली है। खासकर इस्लामिक देशों की भाषा और रवैयये में बदलाव आया है। ओबामा का कैरो में दिया गया भाषण,अल-अरबिया टीवी चैनल को दिया साक्षात्कार और ईरान के लिए सहयोग और सदभावना का संदेश देने वाला वीडियो, यह संदेश देने में सफल रहा है कि अमेरिकी प्रशासन के रूझान में थोड़ा बदलाव आया है। इजरायल पर ओबामा का आते ही यह असर हुआ कि उसे फिलीस्तीन इलाकों पर हमले बंद करने पडे। यहां तक कि होण्डुरास में हाल ही में हुए तख्ता पलट को ओबामा ने अच्छे नजरिए से नहीं देखा। तख्तपलट करने वालों ने 'अमेरिकी समर्थक' और 'चावेज विरोधी' रवैयये को व्यक्त किया था इसके बावजूद ओबामा ने उन्हें अपना समर्थन नहीं दिया।
ओबामा ने अब तक कारपोरेट घरानों को जितनी आर्थिक राहत दी है वैसी किसी भी राष्ट्रपति ने नहीं दी। ओबामा आज अमेरिकी कारपोरेट जगत का मसीहा बन चुके हैं। ओबामा की मीडिया मार्केटिंग,कारपोरेट घरानों को आर्थिक पैकेज,मध्यवित्तवर्ग को राहत पैकेज और विदेशनीति की भाषा में युद्ध की जगह शांति की भाषा का आना यही प्रधान कारण हैं जिन्होंने ओबामा को इतनी जल्दी नोबेल पुरस्कार तक पहुँचा दिया है।
उल्लेखनीय है अकेले अमेरिका युद्ध पर जितना खर्चा करता है उतना सारी दुनिया मिलाकर नहीं करती। दुनिया में अस्त्र शस्त्र की बिक्री का सत्तर प्रतिशत हिस्सा अमेरिकी हथियार उद्योग के पास जाता है। ऐसे में युद्धों से विरत रहना अमेरिका में किसी भी दल के राष्ट्रपति के लिए संभव नहीं है। लेकिन युद्ध की ध्वनि और भाषा को तोडना संभव है जिसे ओबामा ने बड़े कौशल के साथ अपने मीडिया साक्षात्कारों ,बयानों और भाषणों के जरिए तोड़ा है।
नोबुल पुरस्कार समिति ने अपने बयान में कहा है कि ओबामा को शांति पुरस्कार 'अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति और देशों की जनता के बीच सहयोग स्थापित करने के असामान्य प्रयासों के लिए दिया जाता है।'' लंदन स्थित प्रसिद्ध पत्रकार और इतिहासकार एंडी वर्थिंगटन ने लिखा है कि ओबामा के प्रभाववश ही आज अमेरिका और सारी दुनिया में यंत्रणा को पुनर्परिभाषित करने की मुहिम चल रही है। गुआनतानामो यंत्रणा शिविरों को ओबामा ने अमेरिका की 'नैतिक सत्ता के लिए धक्के' की संज्ञा दी है। ओबामा ने यह भी कहा है कि आज सारी दुनिया में अमेरिका को अलकायदा के मददगार के रूप में देखा जाता है। जो शर्म की बात है। ओबामा के खिलाफ तीन तरह के लोग ज्यादा बोल रहे हैं एक तरफ वे लोग हैं जो अमेरिका की दक्षिणपंथी राजनीति और युद्ध उद्योग के भोंपू हैं। दूसरे वे लोग हैं जो अंध अमरीकी विरोध की नीति पर चलते रहे हैं। तीसरी कोटि में ऐसे लोग आते हैं जो ओबामा के बारे में न्यूनतम जानते हैं और शंकालु हैं। यह सच है कि नोबेल पुरस्कार में राजनीति है और इसका फैसला राजनीतिज्ञ ही करते हैं।
प्रसिद्ध सिने निर्माता मिशेल मूर ने ओबामा को नोबुल पुरस्कार मिलने पर बधाई देते हुए कहा है कि अब तुम सचमुच में शांति अर्जित करने की कोशिश करो।अफगानिस्तान और इराक से सेना वापस बुलाओ यदि ऐसा नहीं कर पाओ तो शांति पुरस्कार वापस ओस्लो को सौंप दो। कुछ लोग तर्क दे रहे हैं कि अभी अफगानिस्तान,इराक आदि में अमेरिका युद्ध में फंसा है अत: शांति पुरस्कार देना सही नहीं है। ऐसे विचारकों के सामने दक्षिण अफ्रीका के डेसमंड टुटु का उदाहरण है। डेसमंड टुटु को दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद खत्म करने लिए सन् 1984 में नोबुल शांति पुरस्कार दिया गया जबकि उस समय तक दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद समाप्त नहीं हुआ था,रंगभेद समाप्त हुआ सन् 1994 में । क्या हम यह मानें कि डेसमंड टुटु को तब ही पुरस्कार दिया जाता जब दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद पूरी तरह खत्म हो जाता ? शांति पुरस्कार से डेसमंड टुटु के रंगभेद विरोधी प्रयासों को बल मिला था। आज ठीक यही काम नोबेल कमेटी ओबामा से कराना चाहती है,वह चाहती है कि विश्व संबंधों में सुधार लाने के अपने प्रयासों को ओबामा तेज करें। इस पुरस्कार से ओबामा को अपने घरेलू शत्रुओं का मुँह बंद करने का मौका भी मिलेगा। ओबामा इस बात को स्वीकार करते हैं कि अमेरिका को तालिबान से खतरा नहीं है। अमेरिका और तालिबान इस दुनिया में एक साथ रह सकते हैं। लेकिन युद्धपंथी ताकतें ऐसा नहीं मानतीं। नोबेल कमेटी ने ओबामा को शांति पुरस्कार देकर अमेरिका की दक्षिणपंथी ताकतों को संदेश दिया है कि वे ओबामा पर राजनीतिक दबाव डालना बंद करें। विश्व जनमत ओबामा के साथ है। नोबेल कमेटी ने अपने बयान में ओबामा के द्वारा उठाए गए असामान्य कूटनीतिक प्रयासों की प्रशंसा की है। कहा है ओबामा के विजन का खास महत्व है। उनके परमाणु निरस्त्रीकरण के प्रयासों का महत्व है। विश्व राजनीति के लिए नया वातावरण बना है। बेहतर विश्व के बारे में आशा का संदेश दिया है। नेल्सन मंडेला फाउण्डेशन ने अपने बयान में कहा है कि हमारा विश्वास है कि यह पुरस्कार उनकी प्रतिबद्धताओं को और भी पुख्ता बनाएगा,एक शक्तिशाली देश के नेता के नाते शांति के प्रसार और गरीबी के खात्मे के लिए वे काम करते रहेंगे। फिलिस्तीन के सबसे जुझारू संगठन हमास ने ओबामा को शांति पुरस्कार दिए जाने पर बधाई दी है।
प्रभाष जोशी जैसे लोग प्रत्येक युवा का विरोध करते हैं, वे सारे पुरस्कार और सम्मान केवल बुजुर्गों के लिए ही सुरक्षित रखना चाहते हैं। वे तो युवा वर्ग को साहित्य में आने में ही अडचने डालते हैं। आज ओबामा एक उभरता हुआ राजनेता है जिसकी बोली में आत्मविश्वास टपकता है। यदि ऐसे राजनेता को नोबेल मिलता है तो उसे और भी अधिक विश्व शान्ति के लिए करने की प्रेरणा मिलेगी और दवाब भी रहेगा। बहुत ही बढिया आलेख, बधाई।
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प्रभाष जोशी हकीकत में क्या हैं वह उन्होंने हाल ही के एक साक्षात्कार में जाहिर कर दिया है...
उनकी राय कोई मायने नहीं रखती अब...
शायद ओबामा में उन्हें ब्राहमणत्व नहीं दिखाई दिया होगा...