बुध्दिजीवी और कलाकार के लिए मुख्य चीज है उसके आदर्श। वह उनके साथ कोई समझौता नहीं करना चाहता। सईद ने सवाल उठाया है क्या इन दोनों के बीच किसी भी किस्म का सेतु बनाया जा सकता है ? इनके बीच की खाई को पाटा जा सकता है ? डेनियल ने कहा हमें राजनीतिज्ञ और स्टेट्समैन के बीच में फर्क करना चाहिए। स्टेट्समैन वह है जिसके पास विजन है।
सईद ने तुरंत कहा जैसे नेहरू और मंडेला जिनके पास विजन है। साथ ही उसे लागू करने की क्षमता भी। चाहे इसमें किसी को भी शामिल करना पडे। ड़ेनियल ने कहा आज जो मौजूद है और जो होना चाहिए ,इसके बारे में फर्क करने का किसी में विवेक होना जरूरी है। ऐसा करने के लिए आपको यथार्थ को जानना जरूरी है। ''राजनीतिक तौर पर सही'' का अर्थ है दार्शनिक तौर पर गलत। क्योंकि इसका अर्थ है समझौता। सईद ने कहा समझौता और आज्ञापालन।
डेनियल ने कहा साहस बहुत बड़ी चीज है। साहस का यही अर्थ नहीं है कि चीजों को भिन्न रूप में बजाया जाए, साहस का अर्थ है पूरी तरह समझौताहीन। जैसे महान स्टेट्समैन होते हैं। हमें यथार्थ समझना चाहिए, पाठ को समझना चाहिए। उनकी कठिनाईयों को समझना चाहिए।इसके बाद विजन होना चाहिए और उसे लागू करने का पूरी तरह साहस होना चाहिए। साहस का अर्थ है संगीत निर्माण का साहस, जब आप ऐसा करते हैं तो समूची मानवता की समस्या का समाधान करते हैं।
एडवर्ड सईद ने कहा मैं हमेशा पेशेवर लोगों की तरह सोचता हूँ। चाहे वह पेशेवर लेखक हो अथवा पेशेवर विशेषज्ञ हो, पेशेवर होना ही अपने आप में सब कुछ नहीं है। सिर्फ इससे मुझे संतोष नहीं मिलता। मेरे अंदर यह एटीटयूट है कि मैं जो सोचता हूँ उसे लागू करता हूँ। मैं तकनीक ,विशेषज्ञता और पेशेवराना चीजों के प्रति सवाल उठाने में थकता नहीं हूँ, यहां तक कि साहित्य और समाज के अन्तस्संबंध के बारे में भी सवाल उठाता रहा हूँ। साहित्य और राजनीति के अन्तस्संबंध के बारे में भी सवाल उठाता रहा हूँ।
दूसरी ओर मेरा पक्का विश्वास है कि कक्षा सिर्फ कक्षा है। जबकि मेरा ज्यादातर समय कक्षाओं में ही गुजरा है। कक्षा को राजनीतिक कार्यक्रम की प्रस्तुति की जगह नहीं बनाया जाना चाहिए। साठ के दशक में जब विश्वविद्यालयों का राज्य के प्रति ठंडा रूख था तब कक्षाओं को वैकल्पिक सामाजिक स्थान के तौर पर विकसित किया गया। तब कक्षाओं में सभी किस्म की मुक्ति की आकांक्षाओं को अभिव्यक्त किया गया। विभिन्न किस्म के राजनीतिक विचारों को अभिव्यक्त किया गया। किंतु आज वह स्थिति नहीं है।
मैं सोचता हूँ खास किस्म की प्राइवेसी अथवा सीमाबध्दता विश्वविद्यालय और समाज के बीच में रहनी चाहिए। मैं अभी भी महसूस करता हूँ बुध्दिजीवियों और विश्वविद्यालय समुदाय के लोगों को इस कार्य में अपने को व्यस्त करना चाहिए। अपने मामले में इतना ही कह सकता हूँ कि मेरी रूचि राजनीति में है और मैं मीडिया के जरिए सार्वजनिक जीवन में अभिव्यक्त करता हूँ। लेखन ,भाषण ,मंचों और मोर्चों के जरिए अभिव्यक्त करता हूँ, मेरे लिए मुद्दा महत्वपूर्ण है।मानवाधिकार महत्वपूर्ण हैं,फिलीस्तीन का सवाल महत्वपूर्ण है,आदि आदि।
डेनियल ने सईद के विचारों पर टिप्पणी करते हुए कहा एक अच्छा शिक्षक वह है जो सूचना देने की बजाय शिक्षित करे। आज हमारी शिक्षा में अनेक समस्याएं हैं। आज हमारे स्कूल,विश्वविद्यालय सूचनाएं देते हैं शिक्षा नहीं देते। खासकर तुम्हारी किताब 'कल्चर एंड इम्पीरिलिज्म' में मुझे यही चीज अच्छी लगी,इसी चीज ने आकर्षित किया।
उस किताब का मकसद सूचना देना नहीं है बल्कि विचारों की क्षमता को जाग्रत करना है। प्रत्येक पाठक अपने तरीके से मौलिक तौर पर जाग्रत होता है। सोचता है। तुम उसी दिशा की ओर ध्यान खींचते हो और प्रेरित करते हो। यही बात संगीतकार पर भी लागू होती है। हमें लेखक और कम्पोजर के बीच तुलना करनी चाहिए न कि लेखक और प्रिफार्मर के बीच में। आज समूची शिक्षा का स्तर बेहद नीचे आ गया है। आज स्कूल सूचना ज्यादा देते हैं और शिक्षा कम।
सईद ने कहा मेरी बड़ी विलक्षण शिक्षा रही है। पहले औपनिवेशिक शिक्षा प्राप्त की,पन्द्रह साल की उम्र तक मैं लगातार स्कूल जाता रहा। जहां पर मुझे बार-बार अलगाव महसूस होता था,मुझे लगता था कि मैं उनमें से नहीं हूँ। वे ब्रिटिश स्कूल हुआ करते थे। चाहे वे फिलीस्तीन इलाके में हों अथवा मिस्र के इलाकों में हों। इसके कारण शिक्षक और व्यवस्था से हमेशा दूरी महसूस करता था क्योंकि वे मेरे नहीं थे।
मैं खास तरह के अलगाव के प्रति बेहद सचेत था। मैं यह भी महसूस करता था मेरे शिक्षकों में कोई भी मेधावी और प्रेरक शिक्षक नहीं था। वे विलक्षण परिस्थितियां थीं। मुझे अपने आप पढ़ना पड़ता था। यह स्थिति तब थी जब मेरे पास शिक्षक थे। इसके कारण एक तरह की बौध्दिक दूरी मैं महसूस करता था क्योंकि विचार मेरे नहीं थे। यह चीज कभी गुस्से में भी व्यक्त होती थी। किंतु अमूमन शांत रहता था।
जब में पचास के दशक के आरंभ में अमरीका आया तो मैं सबसे पहले बोर्डिंग स्कूल में भर्ती हुआ। किंतु यहां पर मुझे भिन्ना कारणों से चुप रहना पड़ा। क्योंकि वह स्कूल विचारधारात्मक तौर पर संचालित था। स्कूल में बड़े पैमाने पर धर्म और राष्ट्रवाद था। यहां ब्रिटिश व्यवस्था से एकदम भिन्न किस्म की व्यवस्था थी। मैं बड़ी मुश्किल से शिक्षकों के द्वारा दी गयी सामग्री को स्वीकार कर पाता था। मैं उसमें से चुनता था।
इस परिप्रेक्ष्य में मेरी राय है कि शिक्षक से छात्र की स्वतंत्रता का होना बेहद जरूरी है। मुझे याद आ रहा है एक बार मुझसे किसी ने सवाल किया था कि तुम्हारा कभी कोई प्रेरणादायक शिक्षक था ? मैंने कहा मेरा कभी कोई प्रेरणादायक शिक्षक नहीं था। इस बात को लेकर मेरे अंदर कोई क्षति भी महसूस नहीं हुई।
एडवर्ड सईद को अपने भक्त छात्र बनाने की आदत नहीं थी। सईद ने अपने शिक्षण और लेखन के भक्त तैयार नहीं किए। इस संदर्भ में सईद ने कहा शिक्षकों,लेखकों एवं बुध्दिजीवियों में यह आदत होती है कि वे भक्त तैयार करते हैं। एक शिक्षक के नाते मेरा यही कर्त्तव्य है कि मैं अपने छात्र को अपना श्रेष्ठतम दूँ और खास अर्थ में उसे इस लायक तैयार करूँ कि वह मेरी आलोचना कर सके। वह मेरे ऊपर हमले न करे। मैं उन्हें अपने से स्वतंत्र रखता हूँ और वे जैसे चाहें अपना मार्ग चुनें।
डेनियल ने कहा तुम भक्त इसलिए नहीं चाहते क्योंकि बुनियादी तौर पर तुम उन्हें दीक्षित नहीं करते,चेला नहीं बनाते। विचारों से दीक्षित नहीं करते। बल्कि तुम विद्यार्थी की जिज्ञासाओं को जाग्रत करते हो। उन्हें वह मार्ग बताते हो जिससे वे अपनी जिज्ञासा शांत कर लें।
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