सोमवार, 25 जनवरी 2010

फिलीस्तीन मुक्ति सप्ताह- फिलिस्तीनी कवि और उनकी कविताएँ









ताहा मुहम्मद अली फिलिस्तीनी साहित्य के महत्वपूर्ण व्यक्तित्व हैं। सफूरिया के गैलिली ग्राम में 1931 में जन्मे ताहा ने 1948 में हुए अरब-इस्राइल युध्द के दौरान पलायन के दं को भी झेला। एक वर्ष के उपरान्त वे सपरिवार वापस लौटकर नाज़ारेथ में बस गए। सफूरिया में बीता बचपन उनके साहित्य का मुख्य प्रेरणा स्त्रोत है। हाँ के दैनंदिन अनुभव कल्पना और कला के रंगों में सनकर
मनोरम रूप ग्रहण कर लेते हैं।
स्वशिक्षित ताहा मुहम्मद अली का साहित्यिक जीवन 1983 में शुरु हुआ। प्रभावी प्रत्यक्ष संवाद का साहस, निरस्त्र कर देनेवाला व्यंग्य, बेहिचक, ईमानदार और कभी-कभी दर्द भरी अभिव्यक्ति ने उनकी कविताओं को बहुअर्थी बनाया। उनके काव्य-संकलनों और छोटी कहानियों ने विशाल सचेत पाठक वर्ग निर्मित किया है। प्रस्तुत है उनकी दो कविताएँ-

     चेतावनी
                   ताहा मुहम्मद अली

शिकार के प्रेमियो,
और शिकार पर ऑंख गड़ाए नए शिकारियो:
अपनी बंदूकों को मेरे
सुखों से दूर रखना,
जिनका मूल्य तुम्हारी एक गोली भर भी नहीं
(जो तुम इन पर बर्बाद करोगे)
तुम्हें क्या लगता है
मृग-शिशु के समान
चपल और क्षिप्र,
तीतर के समान हर
मार्ग से गुजरनेवाली,
क्या वह खुशी नहीं, सुख नहीं.
मेरा विश्वास करो:
मेरे सुख का संबंध
सुख से नहीं है।
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पेट्रोलियम की नसों में जमा खून
                                ताहा मुहम्मद अली
मैं बचपन में अतल गङ्ढे
में गिर पड़ा, किन्तु
मैं नहीं मरा;
जवानी में पोखर में डूब कर भी
मैं नहीं मरा;
और अब ईश्वर हमारी मदद करे-
मेरी आदतों का एक विद्रोही सैनिक
सीमा से लगे जमीनी विस्फोटको की
पलटन में दौड़ पड़ा है,
जैसे मेरे गीत
मेरे युवाकाल के दिन
तितर-बितर हो गए है:
यहाँ एक फूल है
वहाँ एक चीख
और फिर भी
मैं नहीं मरा!

उन्होंने मेरी हत्या कर दी
दावत के लिए काटे
गए मेमने की तरह-
पेट्रोलियम की नसों में;
जमा खून.
ईष्वर का नाम लेकर
उन्होंने मेरा गला चीर दिया
एक कान से दूसरे कान तक
हजारो बार,
और हर बार
गिरती रक्त की बूँदें
पीछे से आगे तक छलछला पड़ी
जैसे फाँसी लगे इंसान का
आगे-पीछे झूलता पैर,
जो तभी स्थिर होता है,
जब बड़े, रक्तिम औधि वृक्ष
पर फूल लग जाते हैं-
उसी आकादीप की भाँति
जो भटके जलयानों को
रास्ता दिखाता है और
राजभवनों तथा दूतावासों की
स्थिति चिह्नित करता है.

और कल
श्वर हमारी मदद करे-
फोन नहीं बजेगा
फिर चाहे वह वेश्यालय में हो या किले में,
या एकाकी पड़े बादशाह के पास,
वह मेरे पूर्ण विना का इच्छुक है.
लेकिन...
जैसा कि औधि-वृक्ष ने बताया है,
और जैसा सरहदें भी जानती हैं,
मैं नहीं मरूँगा! मैं कभी नहीं मरूँगा!!
मैं सतत रहूँगा-हथगोलों में छर्रों की तरह
गर्दन पर टिके चाकू की तरह,
मैं हमेशा रहूँगा-
रक्त के एक धब्बे में
एक बादल के आकार में
इस संसार की कमीज पर!

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