हाल ही में राष्ट्रीय विज्ञान कांग्रेस के अवसर पर प्रसिध्द वैज्ञानिक और इसरो के भू.पू, अध्यक्ष जी.माधवन नायर ने कहा विज्ञान की खोजों को भारतीय भाषाओं में लाने का प्रयास किया जाना चाहिए। भारतीय भाषाओं में अंग्रेजी के समानार्थी शब्द बनाए जाएं। जिससे विज्ञान को साधारण जनता तक पहुँचाया जा सके।
माधवन नायर जी विज्ञान के पठन-पाठन और लेखन का सिस्टम अवैज्ञानिक आधार पर टिका है। भारतीय भाषाओं के माध्यम से न तो विज्ञान पढाया जाता है और नहीं हमारे आज के वैज्ञानिक किसी भारतीय भाषा में लिखते और सोचते हैं। जब तक वैज्ञानिक अपनी मातृभाषा में नहीं लिखेंगे तब तक भारतीय भाषाओं में साधारण जनता तक विज्ञान का जाना संभव नहीं है।देशजभाषा में शब्द भी नहीं बनेंगे। भाषा के शब्द प्रयोग और व्यवहार से बनते हैं। भाषा का निर्माण कोरे खयालों से नहीं होता।
हमें इस सवाल पर गंभीरता के साथ विचार करना चाहिए कि आखिरकार हमारा वैज्ञानिक अथवा शिक्षित मध्यवर्ग अपनी भाषा से क्यों कट गया ? अभिव्यक्ति के लिए अपनी भाषा से वंचित होने का अर्थ है सांस्कृतिक गुलामी में हसीन रातें गुजारना। हमारे शिक्षित मध्यवर्ग को सांस्कृतिक गुलामी से प्यार है। वह अपनी भाषा ,अपनी संस्कृति और अपने देशज गौरव और परंपरा से प्यार ही नहीं करता। हम तलाश करें कि आखिरकार अमर्त्य सेन, प्रभात पटनायक, मनमोहन सिंह आदि विद्वान अपनी भाषा में क्यों नहीं लिख पाते ? अपनी भाषा से हमारे बौध्दिकों का अलगाव सबसे बड़ी त्रासदी है। यह सांस्कृतिक गुलामी है। यह देशप्रेम नहीं राष्ट्र के प्रति दगाबाजी है।
जे बात !बिलकुल दुरुस्त !
जवाब देंहटाएंअमर्त्यसेन, मनमोहन सिंह ही नहीं आज की पीढी भी भारतीय भाषा में काम नहीं कर सकती क्योंकि उन्हें अंग्रेज़ी जन्मघुट्टी में मिली है। इसके ज़िम्मेदार कौन है आज भी???
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