गुरुवार, 21 जनवरी 2010

फिलिस्तीन मुक्ति सप्ताह- फिलिस्तीन मुक्ति का सपना और एडवर्ड सईद का प्राच्यवाद





एडवर्ड सईद को सन् 1978 के पहले दुनिया में बहुत कम  लोग जानते थे। सन् 1978 में 'ओरिएण्टलिज्म' किताब के प्रकाशन के साथ उनके विचारों और गतिविधियों की ओर सारी दुनिया के बुध्दिजीवियों और राजनीतिक कार्यकर्त्ताओं का ध्यान गया। 'ओरिएण्टलिज्म' किताब को आलोचना में पैराडाइम बदलने वाली किताब के रूप में जाना जाता है। इस किताब ने आलोचना को बदलने के साथ ही सईद को भी बदला, पहले सईद को मध्य-पूर्व अध्ययन के दायर में रखकर विचार किया जाता था। किंतु इस किताब के प्रकाशन के बाद उन्हें एक नए स्कूल के नाम से जाना जाने लगा जिसे आलोचना में 'उत्तर औपनिवेशिक' आलोचना कहते हैं।  यह मूलत: उत्तर आधुनिकता के अनेक लक्षणों से युक्त आलोचना स्कूल है।
सईद का जन्म फिलीस्तीन में हुआ था,किंतु पालन-पोषण और शिक्षा का वातावरण अंग्रेजी-अरबी सांस्कृतिक माहौल में हुआ। मिस्र के अंग्रेजी वातावरण में उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई। बाद में अमेरिका जाकर उन्होंने स्नातक और बाद की उपाधियां हासिल कीं। अण्डर ग्रेजुएट डिग्री प्रिंस्टन यूनीवर्सिटी से ली, ग्रेजुएट डिग्री हार्वर्ड से ली,और बाद में कोलम्बिया विश्वविद्यालय में अंग्रेजी और तुलनात्मक साहित्य के अध्यापक के तौर पर लंबे समय तक काम किया।
सईद ने स्वयं लिखा है  सन् 1967 तक वह पूरी तरह अंग्रेजी के प्रोफेसर की तरह जीवन व्यतीत करने लगे थे। सन् 1968 में उन्होंने लिखने और पर्यटन के बारे में सोचा। पर्यटन और लेखन का मूल मकसद था  फिलीस्तीन संघर्ष में सक्रिय रूप से भाग लेना,फिलीस्तीन राजनीति का प्रचार करना और फिलीस्तीन को एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में निर्मित करना। इसी क्रम में सईद ने अपनी एक नयी पहचान निर्मित की, स्वयं को फिलीस्तीन की पहचान प्रदान की। सारी दुनिया में फिलीस्तीन अस्मिता को स्थापित करने का काम किया।
सन् 1969 और 1970 में सईद ने अम्मान की यात्रा की, जोर्डन की राजधानी होने केकारण और फिलीस्तीन के हथियारबंद ग्रुपों का केन्द्र होने के कारण यह शहर चर्चा के केन्द्र में था। उस समय फिलीस्तीनी लोग यह सोचते थे कि हथियारबंद संघर्ष के जरिए वे इजरायल को परास्त कर देंगे। उस समय जोर्डन और लेबनान में बड़ी तादाद में फिलीस्तीनी शरणार्थी रह रहे थे। ये वे लोग थे जो पहले फिलस्तीनी इलाकों में रहते थे किंतु मध्यपूर्व युध्द (1967) के दौरान इन्हें अपने घर-द्वार छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा। कालान्तर में लेबनान में फिलीस्तीनियों पर हमले हुए लेबनान के प्रशासन ने अमरीका के दबाब में आकर उन्हें खदेड़ना शुरू कर दिया। यही वह बिंदु है जहां से सईद के व्यक्तित्व और लेखन में मूलगामी परिवर्तन आता है।

पहले वह एक अंग्रेजी के प्रोफेसर के रूप में जाने जाते थे और अब उन्होंने फिलीस्तीन के अधिकारों के प्रचार प्रसार का काम अपने जिम्मे ले लिया और अनेक मर्तबा बेरूत और फिलीस्तीनी इलाकों की यात्रा की। बेरूत ने सईद को इतना आकर्षित किया कि सन् 1972-73 में वह अपनी एक वर्ष की अकादमिक अवकाश की छुट्टियां लेकर वहां चले गए और वहां रहकर गंभीरता के साथ अरबी का अध्ययन किया। कालान्तर में अमरीका और सारी दुनिया में उन्होंने फिलीस्तीन के लक्ष्य के प्रचार के अगणी सिध्दान्तकार,चिन्तक और आन्दोलनकारी के रूप में काम किया।
       सईद के चिन्तन के तीन प्रमुख क्षेत्र हैं पहला है मध्यपूर्व और फिलीस्तीन, दूसरा है साहित्य और आलोचना और तीसरा है मीडिया। इन तीन क्षेत्रों में सईद के नजरिए को व्यवहारिक तौर पर लागू करने की कोशिश की जाएगी। प्रस्तुत आलेख में मध्यपूर्व संबंधी नजरिए और तत्संबंधित मीडिया कवरेज के उन पक्षों की मीमांसा कीएगी जो स्वयं सईद ने रेखांकित किए हैं, यहां उनके मीडिया परिप्रेक्ष्य के बुनियादी सूत्रों के सहारे मध्यपूर्व के कवरेज को विश्लेषित करने की कोशिश की गई है। चूंकि उनके मूल्यांकन में सबसे पहले जिन देशों की संस्कृति की अभिव्यंजना मिलती है उनमें लेबनान का जिक्र खूब आता है इसमें भी बेरूत का सबसे ज्यादा जिक्र आता है। बेरूत का प्राकृतिक सौंदर्य उन्हें बार-बार खींचता है साथ बेरूत में रहने वाले फिलीस्तीनी भी खींचते हैं।
     सईद ने फिलीस्तीन के बारे में जब लिखना और बोलना शुरू किया तो वे फिलीस्तीन से बहुत दूर थे। वे अमरीका में रहते थे। फिलीस्तीन के बारे में कम जानते थे। सारी दुनिया में फिलीस्तीन के बारे में अमरीका-इस्राइल का प्रौपेगैण्डा फैला हुआ था। इस्राइल के नजरिए कर ही सारी दुनिया में वर्चस्व था। सारे मीडिया अमरीका-इस्राइल के नजरिए का एकतरफा प्रचार करते रहते थे। सईद ने एकदम विपरीत माहौल में रहते हुए सारी दुनिया में और खासकर अमरीका में फिलीस्तीन राष्ट्रवाद को प्रमुख एजेण्डा बनाया। फिलीस्तीन की आजादी के लक्ष्य को प्रमुख मुद्दा बनाया। इस्राइल के मीडिया वर्चस्व को अकेले प्रचार के द्वारा अमरीका में ध्वस्त करने का काम किया। फिलीस्तीन जनता के संघर्ष को सारी दुनिया तक पहुँचाने में सईद की बहुत बड़ी भूमिका रही है। आज इस्राइल के साथ सिर्फ अमरीका है।
फिलीस्तीन राष्ट्र की जमीन पर इस्राइ ने सन् 1948 से कब्जा किया हुआ है। वह समस्त अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं और मंचों के आदेशों और प्रस्तावों की अवहेलना कर रहा है। फिलीस्तीनियों को उनके संप्रभु और स्वतंत्र राष्ट्र के अधिकार से किसी न किसी बहाने से वंचित किए हुए है।
सईद के चिन्तन की केन्द्रीय विशेषता है स्वतंत्रता के प्रति दुस्साहसी वीरता। आलोचना में साम्राज्यवाद के प्रति दो-टूक रवैयया।
सईद की कैंसर के कारण मौत हुई,जब उनकी मौत हुई तब वह 62 साल के थे। उन्होंने 15 किताबें लिखीं, इसके अलावा सैंकडों आलेख लिखे, संगीत के बारे में उनकी गहरी समझ थी, संगीत की आलोचना और साहित्यालोचना में गहरा साम्य है। सन् 1978 में 'ओरिएण्टलिज्म' के आने के बाद सबसे बड़ा काम यह हुआ कि मध्यपूर्व की ओर सारी दुनिया के बुध्दिजीवियों का ध्यान गया। बौध्दिक जगत में मध्यपूर्व में चल रही साम्राज्वादी साजिशों और हिंसाचार को उद्धाटित करने में यह किताब मील का पत्थर साबित हुई। फिलीस्तीन के प्रति गहरी प्रतिबध्दता के कारण ही उन्हें फिलीस्तीन राष्ट्रीय परिषद का सदस्य बनाया गया जिसके वह 1991 तक सदस्य रहे।
सईद ने अमरीका की मध्यपूर्व विदेशनीति की तीखी आलोचना की है साथ ही यासिर अराफात के द्वारा जिस तरह अपने जीवन के अंतिम दिनों में समझौते किए उनकी भी आलोचना पेश की। खासकर ओसलो समझौते को उन्होंने फिलीस्तीन के समर्पण की संज्ञा दी। सईद के रवैयये और नजरिए को देखकर उन्हें तार्किक,अतिवादी,षडयंत्रकारी,गैर-जिम्मेदार,अमरीका विरोधी तक कहते थे। कुछ लोग उन्हें '' आतंक के प्रोफेसर' के नाम से भी पुकाते थे। ये सब वे लोग हैं जो उनके आलोचक हैं। संभवत: ये सारी बातें सईद में न हों। किंतु एक बात उनके व्यक्तित्व में थी, वह गैर परंपरागत बुध्दिजीवी थे। उनका समूचा बौध्दिक कर्म इसकी पुष्टि करता है।वह दुस्साहसी बुध्दिजीवी थे।

सईद ने अपने बचपन के आरम्भिक बारह साल फिलीस्तीन में बिताए, उनके पिता व्यापारी थे। ईसाईयत में आस्था थी। सन् 1947 के अंत में उनका परिवार कैरो अर्थात् काहिरा चला आया। इसके पास महीने बाद इस इलाके में युध्द शुरू हो गया। यह युध्द फिलीस्तीन अरब और यहूदियों के बीच शुरू हुआ, इसके बाद ही फिलीस्तीन का विभाजन हुआ। सईद की समूची शिक्षा अभिजन अंग्रेजी स्कूलों में हुई। मैसाचुसेट्स के बोर्डिंग स्कूल में अनेक साल बिताए। सन् 1957 में प्रिंस्टन से उन्होंने ग्रेजुएट किया।सन् 1964 में हार्वर्ड से पीएचडी डिग्री हासिल की।सन् 1963 में कोलम्बिया ने उन्हें इंग्लिश इंस्ट्रक्टर के रूप में नौकरी दी। उसके बाद उन्हें लगातार तरक्की दी गई। सन् 1967 के युध्द के बाद से उन्होंने फिलीस्तीन संघर्ष में दिलचस्पी लेनी शुरू की और फिर उसका हिस्सा बन गए। इस क्रम में उनकी पहचान भी बदल गयी, अब वे अमरीकी-अरब और फिलीस्तीन इन तीनों ही पहचान के रूपों को एक साथ जीने लगे।

स्राइल की तत्कालीन प्रधानमंत्री गोल्डमायर ने सन् 1969 में एक भाषण में कहा था कि ' कोई फिलीस्तीन नहीं है।' यही वह बयान था जिसने सईद के नजरिए को बदल दिया।  न्यूयार्क पब्लिक लाइब्रेरी के लिए दिए गए व्याख्यान में इसका उन्होंने जिक्र करते हुए लिखा है कि ''अपरिहार्यत: इसने मुझे अपनी भाषा में लेखन के लिए मजबूर किया।' इसके बाद 'मुझे एहसास हुआ कि कैसे व्यक्ति बनता है भाषा कैसे बनती है,लेखन तो यथार्थ की निर्मिति है यह उपकरण की तरह यह काम करता है।'' आगे लिखा लेखन '' शब्दों की शक्ति और उसकी प्रस्तुति को सामने लाता है। ये शब्द लेखक ,राजनीतिक,दार्शनिकों के यथार्थ को सिलसिलेबार ढंग से पेश करते हैं कभी-कभी अन्य के लिए पेश करते हैं।

सईद का पहला निबंध था '' दि अरब पोट्रेड''' यह निबंध 1968 में छपा था। इस निबंध में बताया गया था कि कैसे प्रेस में और कुछ विद्वानों के यहां इमेज का मेनीपुलेशन चल रहा है। जिस समय यह निबंध लिखा था  उस समय अमरीका के बौध्दिक जगत में इस तरह के लेख को दुस्साहस ही कहा जाएगा। यह निबंध कालान्तर में दस साल बाद उनकी विश्व विख्यात किताब 'ओरिएण्टलिज्म' का आधार बना। इस किताब के मूल  सूत्र सबसे पहले इसी निबंध में पेश किए गए थे।
       (सुधा सिंह,एसोसिएट प्रोफेसर,दिल्ली विश्वविद्यालय ,दिल्ली )



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

विशिष्ट पोस्ट

मेरा बचपन- माँ के दुख और हम

         माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...