(गाजा में इस्राइली नाकेबंदी के प्रतिवाद में बनायी गयी कलाकृतियां)
अमेरिकी साम्राज्यवाद का उत्तर आधुनिक मंत्र है सूचना वर्चस्व बनाए रखो। विरोधी के सूचना तंत्र को नष्ट करो,अप्रासंगिक बनाओ। इस मंत्र का मध्यपूर्व में भी इस्तेमाल किया जा रहा है।जो मीडिया साथ नहीं है ,उसके साथ शत्रुतापूर्ण बर्ताव करना,दण्डित करना, उसे भी आतंकवाद विरोधी मुहिम के निशाने पर लाना। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर मीडिया को चौथा मोर्चा घोषित कर दिया गया है। मीडिया के खिलाफ भी युध्द की घोषणा कर दी गयी है।
नयी परिस्थितियों में संवाददाता,चैनल,अखबार आदि सभी को निशाना बनाया जा रहा है। मीडिया को वस्तुत: युध्द का उपकरण घोषित कर दिया गया है। यह विश्वस्तर पर चल रही अमेरिका की 'आतंकविरोधी मुहिम' का वैध निशाना है।सेना का वैध लक्ष्य है।
इस्राइली विस्तारवाद और अमेरिकी अंध आक्रामकता का आलम यह है कि अमेरिकी विश्वविद्यालयों में बड़े पैमाने पर इस्राइल के बारे में किसी भी किस्म की आलोचना के लिए कोई जगह नहीं है। स्थिति इस कदर बदतर है कि इस्राइल की आलोचना को कानून का उल्लंघन माना जाता है।टेरेल इ.अरनॉल्ड ने ' अगेस्ट दि लॉ टु क्रिट्रीसाइस इस्राइल ?' शीर्षक निबंध में लिखा है कि अमेरिकी विश्वविद्यालयों में मध्यपूर्व से संबंधित किसी भी विषय पर आलोचना की मनाही है,खासकर उन मसलों पर जिन पर इस्राइल की आलोचना की जा सकती हो।
सीनेटर रीक सेनटोरम और सीनेटर साम ब्राउनबेक के द्वारा बनबाए गए उच्च शिक्षा कानून के छठे संशोधित अनुच्छेद के अनुसार यह व्यवस्था की गई है।किसी भी विश्वविद्यालय के छात्र,शिक्षक और अंशकालिक शिक्षक यदि किसी भी किस्म की इस्राइल के खिलाफ टिप्पणी व्यक्त करते हैं तो उस विश्वविद्यालय का आर्थिक अनुदान बंद कर दिया जाएगा।इस्राइल के बारे में की गई किसी भी किस्म की आलोचना को यहूदियों के खिलाफ की गई आलोचना घोषित कर दिया गया है।इस्राइल को यहूदी का पर्याय बना दिया गया है। जो कि गलत है।
अमेरिका-इस्राइल के द्वारा मध्य पूर्व में नए किस्म की रणनीति लागू की जा रही है। नयी रणनीति के तहत मध्यपूर्व का नया नक्शा बनाया जा रहा है। मध्यपूर्व के तेल और गैस के कुओं पर कब्जा जमाओ,स्थानीय स्तर पर युध्द भड़काओ,जातीय हिंसा भड़काओ।मध्य पूर्व में अमेरिकी-इस्राइल सैन्य विस्तार करो।इस रणनीति के तहत 1991-92 में सऊदी अरब में सेनाओं का जमघट लगाया गया।कुवैत में अमेरिकी सेना के स्थायी अड्डे का इंतजाम किया गया।यह सारा कार्य किया गया सद्दाम हुसैन के जुल्मोसितम को मिटाने के नाम पर।बाद में इराक पर कब्जा जमा लिया गया।अब अगला निशाना ईरान है।
प्रौपेगैण्डा किसी भी युध्द में उसी तरह महत्वपूर्ण है जैसे सैनिक और बम। खासकर ऐसे समय में जब राज्य अपने एक्शन को वैध ठहराना चाहता हो। दूसरे इराक युध्द के समय से युध्द के संदर्भ में तैयार की गई जन-संपर्क रणनीति का काफी महत्वपूर्ण स्थान है। युध्द के समय जन-संपर्क नीति का लक्ष्य होता है भावुक इमेजों की वर्षा और युध्द के लिए समर्थन जुटाना।इससे युध्द के समय सारा वातावरण नियंत्रित रहता है।
नियंत्रित और सेंसरशिप के माहौल में जब कोई सूचना दी जाती है तो लोग उस पर विश्वास करके चलते हैं।इस सूचना में शायद ही कभी आलोचना शामिल हो। खासकर फिलीस्तीनी इलाकों पर इस्राइल के हमले के दौरान जो खबरें इस्राइली सेना के जरिए आ रही थीं उनमें इस्राइल की आलोचना का जिक्र ही नहीं था। कवरेज के दौरान लगातार हम्मास के हमलों या प्रभावित लोगों के साक्षात्कार दिखाए गए जिनके बहाने इस्राइली हिंसाचार को वैधता प्रदान करने की कोशिश की गई। ज्योंही किसी संवाददाता को इस्राइली एक्रिडिशन मिला ,उसके पास तत्काल ईमेल और फोन कॉल का तांता लग जाता है।
इस्राइली प्रशासन के द्वारा संवाददाता का खास ख्याल रखा जाता है। उसे तरह-तरह की सुविधाएं प्रदान की जाती हैं,पैकेज टूर कराए जाते हैं,खबरों का पुलिंदा भेज दिया जाता है। उसे खबर खोजनी नहीं होती,बल्कि इस्राइली प्रेस विभाग के लोग स्वयं खबर की व्यवस्था कर देते हैं। लंच,विशेषज्ञ आदि की व्यवस्था कर देते हैं। ये सारी चीजें पत्रकार को बगैर मांगे ही पेश कर दी जाती हैं।यानी पत्रकार को खबर खोजने के लिए कोई अतिरिक्त प्रयास नहीं करना पड़ता।ईमेल के जरिए संवाददाता के पास खबरों का अम्बार लगा दिया जाता है।पत्रकार को खबर के लिए कहीं भी जाने की जरूरत नहीं है,उसे सिर्फ फोन भर कर देना है,सारी चीजें रेडीमेड रूप में तत्काल उपलब्ध करा दी जाती हैं।
खासकर रेडियो और टीवी पत्रकारों को अपनी खबरों के लिए बार-बार होटल से बाहर जाना रास नहीं आता,उन्हें परेशानी होती है,उनके लिए इस्राइली प्रशासन की इस तरह की व्यवस्था से लाभ होता है। ईमेल से पत्रकारों को जिन खबरों को पोस्ट किया जाता है,उसमें चश्मदीद गवाहों के नाम,फोन नम्बर तक दिए रहते हैं,संवाददाता चाहे तो होटल में बैठे-बैठे उनसे बातें करके अपनी स्टोरी तैयार कर ले।यदि यह भी न कर सके तो उनके बयान साथ में ही रहते हैं,उनका इस्तेमाल कर ले। किसी भी चश्मदीद गवाह का बयान लेते समय भाषा संबंधी असुविधाओं का भी ख्याल रखा जाता है। अनुवादक की व्यवस्था भी करायी जाती है।इसका सारा खर्चा इस्राइली प्रशासन उठाता है। गवाहों में अनेक भाषा के लोगों के नाम रहते हैं,आप चाहे जिस भाषा के गवाह का इस्तेमाल कर सकते हैं। ये सारे जन संपर्क के हथकंडे हैं। जिनके जरिए संवाददाता को युध्द के यथार्थ से काट दिया जाता है।
मानव इतिहास में संकट की अवस्था में सबसे ज्यादा अगर किसी चीज की जरूरत होती है तो वह है वस्तुगत मीडिया। वस्तुगत मीडिया के बिना जनता को सही जानकारी नहीं मिलती। खासकर युध्द,आतंकवाद और अतिवादी राजनीतिक कार्रवाईयों के दौर में वस्तुगत मीडिया जनता का सबसे विश्वसनीय साथी होता है। इन तीनों अवस्थाओं में सबसे पहले सत्य की हत्या होती है। सत्य को बोलना अपराध घोषित कर दिया जाता है।जबकि ऐसी अवस्था में सत्य का उद्धाटन सबसे पहली जरूरत है।
इन अवस्थाओं में मीडिया के मैथड और मंशा का बड़ा महत्व है। जब मानवाधिकारों का उल्लंघन हो रहा हो और राजनीतिक ध्रुवीकरण चरम पर हो,ऐसी अवस्था में वस्तुगत मीडिया बेहद जरूरी है।जबकि यह देखा गया है कि संकट की इन अवस्था में मीडिया वस्तुगत होने की बजाय ज्यादा से ज्यादा पूर्वाग्रहग्रस्त हो जाता है। उसके सारे पूर्वाग्रह जनतंत्र के लिए खतरा के नाम पर सामने आते हैं।
आश्चर्य की बात यह है कि आज मध्यपूर्व में मीडिया तेजी से अपना विकास कर रहा है।मध्यपूर्व में मीडिया के चरमोत्कर्ष ने खुलापन पैदा किया है। मध्यपूर्व के लोगों में जनतंत्र, जनतांत्रिक मूल्य और समानतावादी विचारों के प्रति आग्रह पैदा हुए हैं। पश्चिम निर्मित यथार्थ का तिलिस्म टूटा है। बेहतरीन टीवी पत्रकारिता का प्रसार हुआ है।
मध्यपूर्व में घट रहे यथार्थ को लेकर मध्यपूर्व का मीडिया सत्य का पक्षधर बनकर सामने आया है,इसके विपरीत पश्चिम का बहुराष्ट्रीय मीडिया पूर्वाग्रहों से ग्रस्त नजर आता है,उसके ऊपर मध्यपूर्व की जनता विश्वास नहीं करती। मध्यपूर्व में एक तरह से मीडिया-सूचना क्रांति की हवा चल रही है,जिसकी धुरी है सत्य के उद्धाटन का आग्रह और पश्चिमी पूर्वाग्रहों के प्रति घृणा। पश्चिमी मीडिया को आज मध्यपूर्व में अपनी साख बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है।
पश्चिमी मीडिया को मध्यपूर्व की ऑडिएंस कुसमाचार और अमेरिकी प्रचार के तंत्र के रूप में देख रही है। अमेरिका के मीडिया को खासकर इस संघर्ष का सामना करना पड़ रहा है। मध्यपूर्व में पश्चिमी मीडिया के पूर्वाग्रह खासकर इस्राइल-फिलीस्तीनी संघर्ष,लेबनान-इस्राइल संघर्ष,इराक-अमेरिकी संघर्ष के समय साफ दिखाई दिए हैं। इन तीनों क्षेत्रों में भड़काने वाले के रूप में फिलीस्तीन,हिजबुल्ला और सद्दाम प्रशासन को चित्रित किया है।
फिलीस्तीनी इलाकों में इस्राइल इसलिए गया क्योंकि फिलीस्तीनी भड़काऊ कार्रवाई कर रहे थे।यही तर्क अन्य क्षेत्रों के बारे में है। इन क्षेत्रों की रिपोर्टिंग झगड़े से शुरू होती है और झगडे तक ही सीमित रहती है। झगड़े के बुनियादी कारणों को रिपोर्टिंग में खोजने की कोशिश ही नहीं की जाती। इस क्रम में फिलीस्तीनी संगठन क्या चाहते हैं,उनका क्या मानना है, घटना विशेष पर उसकी क्या राय है, इत्यादि के बारे में कभी समग्र तस्वीर पेश नहीं की जाती। किसी घटना विशेष की रिपोर्टिंग करते समय मैनस्ट्रीम मीडिया सटीक रिपोर्टिंग का आभास देता है।
संबंधित घटना को पेश करते समय उसका आरंभ अनुकूल तर्क को केन्द्र में रखकर होता है।जिससे वह आकर्षक और तार्किक लगे।इसके लिए घटना को क्रमवार पेश किया जाता है। किंतु मुख्यधारा का मीडिया फिलीस्तीन नागरिकों के दैनंदिन जीवन के कष्टों के बारे में हमें खबरें नहीं देता। वह यह नहीं बताता है कि किस तरह इस्राइली कार्रवाई ने उनका जीना दूभर कर दिया है ।
इस्राइली आतंक के कारण उन्हें किस तरह की मानसिक,शारीरिक,आर्थिक और राजनीतिक यंत्रणाओं से गुजरना पड़ रहा है ? इस्राइली विमानों के द्वारा बस्तियों पर नीचे तक आकर उडान भरने,बम फेंकने आदि के कारण किस तरह रोज आतंक,उत्पीडन और भड़कानेवाली यंत्रणाओं से गुजरना पड़ता है। गर्भवती औरतों का इसके कारण गर्भपात हो जाता है।बच्चों और औरतों के कान के पर्दे फट जाते हैं।रात में जब ये विमान बस्तियों के ऊपर मडराते रहते हैं तो रात की नींद गायब हो जाती है। मीडिया ने कभी इस्राइल के इस तरह के अमानवीय आचरण को अपनी रिपोर्टिंग का हिस्सा नहीं बनाया।
मध्यपूर्व में दो युध्द चल रहे हैं,पहला युध्द इस्राइली सेना लड़ रही है,दूसरा युध्द मीडिया लड़ रहा है।मीडिया के पर्दे पर बम के धुंए और तबाही के चित्र आते हैं,भागते हुए लोग दिखाई देते हैं। किन्तु मीडिया कभी अपने को आलोचनात्मक नजरिए से नहीं देखता।वह संकट की प्रक्रियाओं को नहीं दिखाता।बल्कि वह ऐसा दृश्य पेश करता है कि सभी पक्ष पूर्वाग्रह से घिरे हैं।इस प्रक्रिया में अनेक किस्म के आख्यान और व्याख्याएं एक ही साथ प्रतिस्पर्धा करते हुए नजर आते हैं।
सवाल यह नहीं है कि सत्य क्या है और आप इसे कैसे जानते हैं ?बल्कि समस्या यह है कि तेजी से परिवर्तित परिस्थितियों में आप क्या जानना चाहते हैं,क्या परिवर्तित परिस्थितियों के सही संदर्भ में चीजें पेश की जा रही हैं ? डच पत्रकार जोरिस लियोनदिजिक ने अपनी नयी किताब ' देआर जस्ट लाइक ह्यूमन विंग' में इस प्रसंग को विस्तार से विश्लेषित किया है।उसने लिखा है ''जब फिलीस्तीन-इस्राइल संघर्ष की रिपोर्टिंग की जाती है तो 'मीडियावार' पदबंध का शायद ही कोई अर्थ हो,समाचारपत्र और टीवी इस संघर्ष की तटस्थ खिड़की नहीं हैं।बल्कि वह मंच ज्यादा बेहतर जगह है जहां लड़ाई लड़ी जा रही है।दोनों ही पक्षों के परिप्रेक्ष्य एक-दूसरे से कोसों दूर नजर आते हैं। ऐसे में निष्पक्षता का बने रहना एकदम असंभव है।
इस समूची प्रक्रिया में मीडिया भाषा और नजरिए का महत्वपूर्ण स्थान होता है।यहां सारी प्रक्रिया शब्द चयन से शुरू होती है,आतंकवादी या स्वाधीनता सेनानी,शांति की प्रक्रिया या शांति स्थापित करने के प्रयास,ज्यों ही इस्राइल के बारे में कवरेज आना शुरू होता है तो इस्राइल की नीतियों की आलोचना आती है तो इस्राइल यही कहना शुरू कर देता है कि मीडिया के उसके प्रति पूर्वाग्रह हैं।जबकि सच यह है कि अधिकांश मैनस्ट्रीम मीडिया इस्राइलपंथी है।पीडितों को ही आक्रामक के रूप में पेश करता है।
सामान्यत: मध्यपूर्व में इस्राइली हिंसा से पीडित हैं उन्हें ही आक्रामक के रूप में पेश किया जाता रहा है। किंतु इस्राइली बमबारी और तबाही के जो विवरण और ब्यौरे आने चाहिए थे,वे एकसिरे से गायब हैं। मुख्यधारा के मीडिया ने इस्राइली हमलों को आत्मरक्षा में की गई कार्रवाई कहा। मध्यपूर्व संघर्ष में मीडिया को सीधे दोषी ठहरा दिया जाए, यह एक तरह का सरलीकरण होगा। मीडिया का काम है मध्यपूर्व में जो मीडिया युध्द चल रहा है उसे उद्धाटित किया जाए। मीडिया युध्द में जो भी पक्ष गलत काम कर रहा है,उसे उजागर किया जाय।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें