[ इब्राहिम अबू लोग़द (Lughod) अमरीकी विश्वविद्यालयों में फिलीस्तीन मुक्ति के सवाल पर संघर्षशील वैचारिक आन्दोलन के असली उद्योक्ता थे। यहां एडवर्ड सईद का लिखा लेख प्रस्तुत है जिसमें उन्होंने इब्राहिम लोग़द को अपना गुरु कहा है । साथ ही उन दिनों का विवरण दिया है जिसके कारण खुद एडवर्ड सईद 'ओरियन्टलिज्म' के लेखन की ओर बढ़ पाये। अल-अहराम पत्रिका में छपे इस लेख का अनुवाद डा. रूपा गुप्ता ,रीडर ,हिन्दी विभाग,वर्धमान विश्वविद्यालय ,वर्धमान,प.बंगाल ने किया है ।]
लंबी बीमारी के बाद बहत्तर वर्ष की आयु में 23 मई को इब्राहिम अबू लोग़द अपने रामल्लाह स्थित घर में चल बसे। वे नॉर्थ वेस्टर्न यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के प्राध्यापक रहे और बाद में बीर .जेट यूनिवर्सिटी, वेस्ट बैंक के उपाध्यक्ष बने। तेलअवीव एयरपोर्ट पर उनसे मिलने के लिए जाते समय मुझे उनकी मृत्यु का समाचार मिला। वे मेरे सबसे पुराने और सबसे प्रिय मित्र थे ।
वे एक ऐसे आत्मविश्लेषक चिन्तक, करिश्माई राजनैतिक गुरू एवं नेता थे जिनकी अन्तर्दृष्टि के कारण हमारी पचास वर्षों की मित्रता निभ सकी। जाफा में हुए उनके अंतिम संस्कार 'आजा-जागरण' - रामल्लाह के कतन केन्द्र उनके घर पर कई सौ शोक संतप्त लोग एकत्रित हुए। उनके दफनाये जाने के अगले दिन उनकी स्मृति में रामल्लाह के थियेटर में हुई स्मृति सभा में उनके कई मित्रों ने अपनी भावनाएं प्रकट कीं। इब्राहिम को पहाड़ के समीप उस कब्रिस्तान में उनके पिता के बगल में दफ़नाया गया जिसकी गोद में बसी जलराशि में इब्राहिम अपने अतिथियों को तैरने के लिए ले जाते थे और हमेशा पास के उस इजरायली बीच कैफे में जाने से इंकार कर देते थे जो अत्यन्त आकर्षक था और निमन्त्रण देता प्रतीत होता था। जाफा में हुई उनकी शोकसभा के एक वक्ता फ़ैसल हुसैनी भी थे जो लोग़द की मृत्यु के ठीक एक सप्ताह बाद कुवैत के अपने होटल के कमरे में गुजर गये।
फिलिस्तिनी अनुभवों के केन्द्र में जो उथल-पुथल और वेदना रही है वह इब्राहिम के सार्थक जीवन और उनकी मृत्यु में भी आद्योपान्त विद्यमान रही है, इसलिये उनके जीवन की पड़ताल जरूरी हो जाती है। यह इसलिये भी जरूरी हो जाती है क्योंकि यह फिलिस्तीनी स्थिति की सारी अनिश्चततताओं का वहन करती है। उनकी मृत्यु के समय सभी ने यह स्पष्ट अनुभव किया कि अबू लोग़द का जाफ़ा लौटने का निर्णय नितान्त व्यक्तिगत था, उनके जैसी अद्भुत इच्छा शक्ति रखने वाला ही कोई व्यक्ति ऐसा कर सकता था। उनके 1992 में फिलिस्तीन लौटने पर सभी ने टिप्पणी की जहां वे चवालीस (44) वर्षो की अनुपस्थिति के बाद लौटे थे। फिलिस्तीन में एक शिक्षक, जन बुद्धिजीवी और बहुत सी संस्थाओं के संस्थापक के रूप में बिताये उनके जीवन का एक दशक भी सभी की दृष्टि का केन्द्र रहा।
उनके जीवन के सारे नाटकीय निष्कर्षों के उपरान्त भी एक विराट अस्थिरता बनी रही। वे अभी भी निश्चिन्त नहीं थे। यद्यपि उनकी वापसी ने उन्हें बदला नहीं फिर भी घर लौट कर वे निर्वासन से अधिक संतुष्ट थे। फिलिस्तीन एक सवाल था जिसका पूरा उत्तर कभी नहीं दिया गया यहां तक कि पर्याप्त रूप से इसकी प्रस्तुति भी नहीं की गई। उनके व्यक्तित्व की हर बात इस अस्थिरता की पुष्टि करती थी, उनकी मिलनसारिता से लेकर उनकी मूडी आत्मालोचना तक, उनके आशावाद और ऊर्जा से लेकर उनके उस जड़ताबोध तक जो पूरी तरह निष्क्रिय कर देती है और जिसकी जकड़ में हम में से बहुत लोग हैं। उनका जीवन एक साथ पराजय और जय, दीनता और उपलब्धि, हताशा और दृढ़ निश्चय को अभिव्यक्त करता है। संक्षेप में हमारे समय के सबसे अच्छे फिलिस्तिनियों में से एक इब्राहिम का जीवन फिलिस्तीनी जटिलताओं की ही छवि था।
इब्राहिम जो निष्ठुरता की सीमा तक कुशल वक्ता थे, अपने लेखन के लिए कम याद किये जायेंगे। उनका लेखन उनकी सांगठनिक योग्यता की तुलना में कम सघन है। अमेरिका में वे एएयूजी (द एसोसियेशन ऑव अरब-अमेरिका यूनिवर्सिटी ग्रेजुएट्स), द यूनाइटेड होली लैंड फंड, द इंस्टीटयूट ऑव अरब स्ट्डीज क्वार्टरली और मदीनी प्रेस की स्थापना के माध्यम बने। वे फिलिस्तीन मुक्त विश्र्वविद्यालय की स्थापना के मुख्य प्रेरक थे। जिसका मुख्यालय 1982 के लेबनान युद्ध तक बेरुत में रहा। वेस्ट बैंक पर उन्होंने एक पाठयक्रम सुधार केन्द्र की परियोजना तैयार की और उसके बाद शोध और शिक्षा के लिए कतन केन्द्र की परिकल्पना की। इसके बाद भी वे इस तथ्य से भली-भांति परिचित थे कि फिलिस्तीन के लिए किए जा रहे संघर्ष को इस तरह के संस्थानों द्वारा नहीं जीता जा सकता। लोगों के अपने देश लौटने या जबरन कहीं भेजे जाने पर भी। ये अन्ततः स्वतः स्फूर्त स्वयं संदर्भित ही होंगे एवं किसी प्रकार का अत्याचार, संघर्ष और अंतहीन नुकसान इन्हें नष्ट या बर्बाद कर देगा। कॉनराड के नायक की तरह इब्राहिम सदैव अपने आस-पास होते नाटकीय घटनाक्रम से यहां तक कि अपनी खुद की कमजोरियों से एक सार्थकता और गर्वबोध ग्रहण करने का प्रयास करते रहे।
उनके जीवन को घेरे रखने वाली नाटकीय घटनाओं पर विचार करें। उनकी मृत्यु के समय उनके घर के बाहर अत्यन्त शक्तिशाली पर दिशाहीन झंझावात चल रहा था। 1982
में बेरूत पर अधिकार और परिणामस्वरूप साबरा और शातिला का हत्याकाण्ड और लेबनान से निर्वासन (उनके साथ ही पी एल ओ के सदस्यों का भी) 1948 में जाफ़ा का पतन उनके परिवार का बिखरना, अमेरिका में उनके लंबे निर्वासित जीवन का और फिलिस्तीन के पक्ष में उनकी मुखरता का आरंभ साथ ही 1992 में उनका अचानक वेस्ट बैंक लौटना। हर वह अरब नागरिक जो नस्लवादी बद्धमूढ़ता और विचारधारा, इस्लाम के प्रति पुराने बैर भाव से लड़ रहा था इब्राहिम का भारी कर्जदार है। उन्होंने ही यह संघर्ष आरंभ किया और उसे सर्वोच्च प्राथमिकता दी।
अमेरिका के अपने चालीस वर्षों के संघर्ष के बाद भी उनके लिए लौटने की गुंजाइश बची थी पर यह लौटना विपत्ति भरी स्थितियों की ओर लौटना था। यह लौटना मुक्त फिलिस्तीन में नहीं बल्कि ओस्लो के क्षेत्रक में अमेरिकी पासपोर्ट के साथ लौटना था, यह उस जाफा में लौटना था जो इजरायली अधिकार क्षेत्र में था। फिलीस्तीन लौटना इजरायली P(A) अधिकार क्षेत्र में लौटना है - यह समझने वाले वे पहले व्यक्ति थे। और उनके अंतिम संस्कार को रोक देने की धमकी तक दी गयी ।
फिलीस्तीन नेशनल काउन्सिल और पी.एल.ओ. के चरित्रगत परिवर्तन को 1988 में ही लक्षित करने वाले वे पहले व्यक्ति थे। वे यह समझ गये थे कि अपने मुक्ति संग्राम का लक्ष्य छोड़ कर पी.एल.ओ ने राष्ट्रीय स्वाधीनता-संग्राम की राह पकड़ ली है जो हर हाल में उसके पहले उद्देश्य से कमतर था। जैसा कि बाद में ओस्लो अनुबंध से भी प्रमाणित हुआ।
पराजय की गहन हताशा को भी किस प्रकार छोटी ही सही - उपलब्धि में बदला जाता है यह इब्राहिम से बेहतर कोई नहीं जानता पर वे केवल नैतिक विजयों से संतुष्ट नहीं थे। फौजी शक्ति के यथार्थ से वे भलीभांति परिचित थे। उदाहरण के लिए 1982 में बेरुत की प्रलयंकारी घटना से अराफ़ात के बचने पर उन्होंने कहा - ''हमारे पास टैंक नहीं है मतलब हमारे पास वास्तविक शक्ति नहीं है। इसीलिए इजराइलियों के लिए हमारे संस्थानों को नष्ट करना एवं हमारे लोगों को मार डालना संभव हुआ।''
मैं इब्राहिम से सन् 1954 में प्रिन्सटन में मिला था। उन दिनों विश्र्वविद्यालय में विदेशी स्नातक नहीं हुआ करते थे - न कोई अफ्रीकी अमेरिकन, न औरतें। वहां थे केवल वे उच्च वर्गीय श्वेतवर्णी युवक जिन्हें सबसे अच्छी शैक्षणिक सुविधा मिली थी जिन्हें सदा यह महसूस करवाया जाता था कि वे दुनिया पर शासन करने के लिए जन्मे हैं। बाद में उनमें से बहुतों ने शासन किया भी। उन्हीं दिनों शहर के एक धनिक ने संगीत विभाग को एक राशि दी ताकि प्रिन्सटन के अत्यन्त सम्मानजनक संगीत समारोह में विद्यार्थियों को टिकटें मुहैया करवाई जा सकें। मुझे टिकटों को बांटने का काम सौंपा गया। सितम्बर की एक खासी गर्म शाम को एक चपल नीली हरी तीव्र आंखों और उच्चारण के विशेष लहजे वाले एक युवक ने आकर मुझसे टिकट मांगा। उसने मुझे जल्दी से अपना परिचय पत्र दिखाया। (मैं उसका नाम नहीं देख पाया मैंने उसे केवल स्नातक विद्यार्थी में रूप में दर्ज किया।) जाते जाते हठात् मुड़कर उसने मेरा नाम दोबारा पूछा मेरे फिर से बताने पर वह लौट कर आया और पूछा कि मैं कहां का हूँ । अभी इजिप्ट का हूँ पर पहले मैं फिलीस्तीन का था'' ऐसा ही कुछ मैंने कहा । उसका चेहरा चमक उठा - मैं भी फिलीस्तीन का हूं'' उसने कहा - ''जाफा से''। यह युवक जो थे इब्राहिम फिलिप हित्ती (Hitti) के साथ अध्ययन कर रहे थे जो लेबनान के मूल निवासी थे और उन्होंने 'ओरियन्टल स्टैडीज' (प्राच्य अध्ययन) विभाग की स्थापना की थी। यह विभाग मुख्यतः अरब के इतिहास एवं संस्कृति से सम्बद्ध था। इब्राहिम ने मुझे दूसरे अरब स्नातकों से मिलाया और पलक झपकते ही वे मेरे पुराने मित्र बन गये जिनके साथ मैं अरबी भाषा बोल सकता था। प्रिन्सटन में जियोनिस्ट उपस्थिति पर शोक कर सकता था जो स्वेज (Suez) संकट के समय सबसे अधिक प्रत्यक्ष थी।
हम दोनों ने 1957 में प्रिन्सटन शहर छोड़ा। वे तब तक पीएचडी कर चुके थे और मैं बी.ए.। मैं एक वर्ष में लिए इजिप्ट लौट गया। मैं इब्राहिम और उनकी पत्नी जैनेट से काइरो में नियमित रूप से मिलता रहा। इब्राहिम वहां यूनेस्को के लिए काम कर रहे थे। फिलवक्त हम दोनों के अंदर संचित राजनैतिक ऊर्जा का अल्पांश ही दिखाई पड़ा था। मैं बहता बहता हार्वर्ड के स्नातक स्कूल से जा लगा। अबू लोग़द से मेरी मुलाकातें कम हो गयीं । हालांकि मैं जानता था कि वे शिक्षक के रूप में अमेरिका लौट चुके थे। तभी अचानक 1967 के झंझावात ने हम सबको हिला कर रख दिया। इब्राहिम ने मुझे एक पत्र लिख कर पूछा क्या मैं न्यूयॉर्क से प्रकाशित होने वाली अरब लीग मासिक ''अरब वर्ल्ड'' के विशेष अंक के लिए कुछ लिख सकता हूँ , जिसके वे अतिथि संपादक थे, और युद्ध पर अरब दृष्टिकोण से प्रकाश डालना चाहते थे। मैंने इस अवसर का उपयोग किया। मैंने मीडिया और लोकप्रिय साहित्य में अरब की छवि पर प्रकाश डालते हुए मध्य युग तक इसके सांस्कृतिक प्रतिनिधित्व को सामने रखा। यही मेरी पुस्तक ओरियन्टलिज्म का उत्स था जिसे मैंने जैनेट और इब्राहिम को समर्पित किया।
बाद के वर्षों में यद्यपि लोग़द दम्पति शिकागो में रहते थे और मैं न्यूयॉर्क में फिर भी हम राजनीति के कारण एक दूसरे के नजदीक आते गये। हम एक साथ कांग्रेस के साक्षी रहे, 1988 में जॉर्ज शुल्त्ज से मिले, बॉस्टन में हमने 'अरब स्टैडीज' संस्थान बनाया, ''अरब स्टैडीज क्वार्टरली की स्थापना की और काइरो, अम्मान एवं अल्जीयर्स में फिलिस्तीन नेशनल काउन्सिल के अधिवेशनों में भाग लिया। महत्वपूर्ण गतिविधियों के उन वर्षों में अमेरिका और अरब की प्रतिभाओं को पहचानने में इब्राहिम ने अद्भुत बुद्धिमानी का परिचय दिया। उन्होंने इन प्रतिभाशाली लोगों का आपस में परिचय करवा कर उनके मिल-जुल कर कार्य करने का मार्ग प्रशस्त किया ।
पेरिस में एक वर्ष रहने के पश्चात् 1982 के जून में वे मुक्त विश्र्वविद्यालय की स्थापना के लिए बेरूत चले आये। यह कार्य उन्होंने यूनेस्को और पीएलओ के साथ मिल कर किया । उनके बेरूत आगमन के दो दिनों के बाद आइ डी एफ (IDF) ने लेबनान पर आक्रमण कर दिया और उसके तुरन्त बाद ही उनक नया घर एक इजरायली रॉकेट द्वारा ध्वंस हो गया । अगले दो महीने वो बेरूत में फंसे रहे । यह समय उन्होंने अपने घनिष्ठ मित्र सोहेल मियारी के साथ मेरी मां के घर में गुजारा। उन कठिन दिनों में हम निरन्तर एक दूसरे के सम्पर्क में थे। इसमें अराफात ने हमारी सहायता की । अराफात में अमेरिकी प्रशासन से मध्यस्थत्ता में बहुत से लोगों की सहायता ली जिनमें एक मैं भी था।
बेरूत संभवतः इब्राहिम के जीवन के अब तक और बाद के अनुभवों में सबसे महत्वपूर्ण रहा । इस अनुभव ने सबसे पहले उन्हें यह सिखाया कि मध्य पूर्व में किस प्रकार श्रेष्ठ संगठनों को औसत बुद्धि के लोगों और राजनैतिक तथा सामाजिक क्रूर अस्थिरता ने नष्ट कर दिया। दूसरी सीख उन्होंने यह ली कि सत्ता की शक्ति का वास्तविक समीकरण किस प्रकार सत्तानशीनों को प्रभावित करता है और उन्हें भी जो सत्ताविहीन हैं। तीसरी और शायद सबसे महत्वपूर्ण बात उन्होंने यह जानी कि जीवन में प्रयास करते रहना चाहिये भले ही असफलता कितने ही डरावने रूप में मंडरा रही हो। इब्राहिम का यही रूप सबसे वास्तविक था - एक ऐसा आदमी जो लगातार प्रयत्नशील रहने के महत्त्व को समझता है, अपने साथियों के प्रति सदैव निष्ठा रखता है, जो सर्वदा आशावादी बना रहता है (और मृत्युदंश जैसी परिस्थितियों में भी अपना हास्य बोध बनाये रखता है)।
वे मुझसे अक्सर कहा करते थे - हमलोग बहुत सामान्य लोग हैं एडवर्ड, बहुत सामान्य पर अंत में देखना इजरायलियों की सारी प्रतिभा को यही सामान्यता पराजित करेगी किन्तु साथ ही यह अवश्य कहते - हम अच्छे इंसान हैं और .जिद्दी भी, हांलाकि हम हमेशा चतुर नहीं हैं। उन्हें ओस्लो अनुबंध की सबसे अधिक परेशान करने वाली बात फिलिस्तीनियों की अवमानना लगती थी। अराफ़ात की दीनता और विदूषक जैसी भावभंगिमा ने हम दोनों को बहुत उद्वेलित किया था और हम इस बात पर बहुत शर्मिन्दा थे कि ओस्लो अनुबंध के पहले हम उसके साथ थे। मुझसे विपरीत इब्राहिम फिलिस्तीन के उस भाग में रहना चाहते थे जो ओस्लो अनुबंध द्वारा तैयार हुआ था और आंशिक रूप से ,जबरन इजरायली 'एरिया ए' से दूर था और यही वह स्थान था जहां इब्राहिम ने स्वयं को, अपने साथियों को और अपने विद्यार्थियों का कर्म-स्थल बनाया।
इब्राहिम विद्वानों और बुद्धिजीवियों में आस्था रखते थे - वे चाहे अरब के हों या पश्चिम के । किसी में प्रतिभा देखकर वे उत्साहित हो जाते थे क्योंकि इससे उन्हें उस छिपी हुई प्रतिभा को सामने लाने का अवसर मिलता था। उनके द्वारा प्रशंसित एवं श्रेणीबद्ध लोगों को हमेशा लगा कि दुनिया में लोग तो बहुत से हैं पर मैं विशिष्ट हूं। उनके जैसा उत्साहबर्द्धक संरक्षक और प्रायोजक कोई नहीं था। उनके मुंह से 'तुम अद्भुत तो' सुनने जैसा और कोई अनुभव नहीं था पर साथ ही जब वे किसी के लिए यह कहते थे कि वह मूर्ख (Jerk) है तो प्रथम ध्वनि को अपनी भारी जाफा उच्चारण के साथ और भारी कर देते थे।
शिक्षक के रूप में वे दो मनःस्थितियों के मध्य झूलते रहे। विद्यार्थियों को प्रभावित एवं शासित करने की इच्छा और उनके साथ समान होने की कामना । तीन प्रतिभाशाली पुत्रियों के पिता और बेहद प्रतिभा सम्पन्न नारी के पति होने के कारण वे अन्य अरब अथवा पश्चिमी पुरूषों की तुलना में स्त्रियों के प्रति अधिक सहिष्णु थे। यहां तक कि पितृवत् व्यवहार करते समय भी वे भ्रातृवत् समानता बनाये रखते थे किसी ने शायद ही कभी उनके तानाशाह रूप को देखा हो हांलाकि किसी महत्वपूर्ण लक्ष्य के लिए वे तानाशाही बहुत प्रभावशाली ढंग से उपयोग कर सकते थे। उनके व्यक्तित्व की दहाड़ती सतह के नीचे एक बेहद दयालु हृदय धड़कता था।
हममें से बहुतों की तरह इब्राहिम भी कभी फिलिस्तीन के अभाव को भूल नहीं सके, उनके आरम्भिक जीवन के शरणार्थी दिनों की स्मृति उन्हें कभी नहीं भूली । हांलाकि उन दिनों की स्मृतियों को उन्होंने कभी अभिव्यक्त नहीं किया पर इजरायल के प्रति उनके क्रोध का वे सदैव एक अंश बनी रहीं और इसी कारण वे जानते समझते थे कि यह संघर्ष जटिल है और लंबा चलने वाला है, हमारे जीवन में हमें आत्म निर्णय का अधिकार मिलने वाला नहीं है। ''फिलीस्तीन के रूप परिवर्तन'' (उनके सुप्रसिद्ध निबन्ध संग्रह का शीर्षक भी है जिसमें उन्होंने .जियोनिज्म द्वारा देश की लूट को कठोर शब्दों के स्थान पर तनिक कोमलता से व्यक्त किया है) ने उनके जीवन के कार्यों को किसी न किसी रूप में प्रभावित किया, किन्तु वे विचारहीन उग्रपंथी नहीं थे बल्कि भयजनक सीमा तक स्वतंत्र चिन्तक थे। वे अक्सर धीमी गति से प्रहार करने वाले आलोचना मूलक बुद्धिजीवी थे। इस तथ्य के उपरान्त भी कि वे आजीवन व्यक्तिगत एवं पेशागत रूप में किसी विशेष उद्देश्य के लिए कार्य करते रहे उन्हें किसी भी तरह पेशेवर नहीं कहा जा सकता बल्कि वे सदा एक ऐसे अनाड़ी की तरह कार्य करते रहे जो प्यार और प्रतिबद्धता से चालित था।
इब्राहिम ने मुझे फिलिस्तीन के वास्तविक विषयों और अनुभवों से परिचित करवाया था । वे मुझसे सात वर्ष बड़े थे और फिलिस्तीन की अवश्यम्भाविता से ज्यादा गहरे गुंथे हुए थे । उन्होंने मुझमें और मेरे जैसे बहुतों में अपनी दफनायी हुई आरम्भिक स्मृतियों को फिर से पाने की इच्छा जगायी, इसके पहले कि नक्ब सब कुछ समाप्त कर दे। उन्हें हमारे इतिहास की विस्तृत और सूक्ष्म जानकारी थी, वे इतिहास बहुत अच्छा समझते थे साथ ही उन्हें अद्भुत रूप से यह स्मरण था कि कौन सी वस्तु और व्यक्ति कहां से आये, कहां गये, वे अब कहां हैं अथवा वे कब लुप्त हो गये।
सन् 1940 के दशक में जाफ़ा का उल्लेखनीय महत्व है। इब्राहिम के स्कूल 'अमरिये' से चकित कर देने वाले प्रतिभाशाली किशोरों - युवकों का दल निकला । इनलोगों ने शरणार्थी के रूप में, कार्यकर्त्ता, विद्वान और व्यवसायी बन कर जीवन आरम्भ किया। इब्राहिम ने इनलोगों से मेरा परिचय करवाया और वे मेरे घनिष्ठ मित्र बने। उन्हीं में इब्राहिम के भव्य, पी.एल.ओ. महारथी एवं कुशल वक्ता मित्र शफ़ीक-अलहुत भी थे जिन्होंने बेरूत कभी नहीं छोड़ा, 1982 की शरत् ऋतु में शहर के इजरायइलियों द्वारा हस्तगत कर लेने पर भी नहीं। हां ओस्लो अनुबंध में अराफ़ात से तीव्र असहमति के कारण उन्होंने कार्यकारी समिति से त्यागपत्र अवश्य दे दिया था। और थे अब्दुल मोहसिन-अल-क़तन - एक सफल व्यवसायी जिन्होंने फिलिस्तिनियों की संस्थाओं की स्थापना के लिए अपनी अधिकांश सम्पत्ति दी और शफ़ीक तथा इब्राहिम की तरह वे भी ओस्लो अनुबंध के मुखर आलोचक थे।
इब्राहिम इन सबों को अपने मध्यकालीन तिथिविज्ञान और अद्भुत उत्साह से दीप्त रखते थे। नेशनल काउन्सिल वेलफेयर ऐसोसियेशन की सभाओं में उन्होंने संख्या में सदैव विस्तारित होते फिलिस्तीनियों को एक दूसरे से मिलवाया। इन संकोची और शर्मीले लोगों से वे आश्चर्यजनक सूचनाएं एकत्रित कर लेते थे जिनका वे बड़ा समुचित उपयोग करते थे। फिलिस्तीन की कहानी के सबसे ठोस पक्ष के रूप में वे शिक्षकों, वकीलों, विद्वानों, बैंक कर्मचारियों और इंजीनियरों को विशेष महत्व देते थे। जैसे-जैसे वे कहानी कहते जाते थे सुनने वाले को लगता था कि वे कुछ भी भूलते नहीं हैं। उनकी कॉनरेडी (Conradian) विशिष्टता उनकी कही हुई हर बात को गहराई प्रदान करती थी। अरब और उस के राष्ट्रीय मुक्ति संग्रामों और उत्तर औपनिवेशिक राजनीति का अमेरिका से परिचय हो जाता है।
इब्राहिम में क्षेत्रीयतावाद नहीं था वे केवल फिलिस्तीनी राष्ट्रवाद के समर्थक नहीं थे। उनका व्यापक दृष्टिकोण एवं पूरी दुनिया घूमने की उनकी आकांक्षा ईर्ष्या योग्य थी। वे उन स्थानों के बारे में अत्यन्त अधिकार पूर्वक बात करते थे जहां जाने के बारे में मैं सोच भी नहीं सकता था। ऐसे स्थानों की सूची में पेरू, चीन और रूस भी थे। वे बड़े शहरों में रहना पसंद करते थे और अक्सर अपना समय पेरिस, काइरो और शिकागो में व्यतीत करते थे।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि फिलिस्तीनी मुद्दे पर लोगों की सहायता करने की शक्ति और सीमा से वे भली-भांति परिचित थे। जैसे मुझसे एक दशक पहले ही वे इस बात को समझ गये थे कि सी.एल.आर. जेम्स अपने को पश्चिम के व्यक्ति के रूप में देखता है अरबों के साथ अपने को जोड़ा जाना वह सहज ही स्वीकार नहीं करेगा। इसी के साथ वे अफ्रीकी अध्ययन के नार्थ वेस्टर्न यूनिवर्सिटीज प्रोग्राम के निदेशक होने के नाते अफ्रीका के मुक्ति संग्राम से बहुत अच्छी तरह परिचित थे। इसके कुछ महत्वपूर्ण नेताओं को उन्होंने नॉर्थवेस्टर्न निमंत्रित भी किया था। अमिलकर काबराल और ऑलिवर टैम्बो जैसे व्यक्तित्वों की सराहना वे बहुत पहले ही कर चुके थे। न केवल उन्होंने इन व्यक्तित्वों की विशिष्टता पहचानी थी बल्कि वे उन कारणों के महत्व को भी रेखांकित कर सके थे जिनके लिए ये महान शख्सियतें संघर्ष कर रही थी। उन्होंने इन सभी संघर्षों एवं समस्याओं से फिलिस्तीन को जोड़ कर देखा। उन्हीं के माध्यम से अरब राष्ट्रवादी विमर्श के महान व्यक्तित्वों से परिचय संभव हो जाता है जैसे मुहम्मद हसनैन हकाल और मुनीफ़ अल रजाज से परिचय संभव हो पाता है।
अपने दूसरे साथी इकबाल अहमद से 1970 में पहली बार मैं इब्राहिम के सौजन्य से ही मिला। इकबाल अहमद की असमय मृत्यु ने मुझे बहुत खालीपन से भर दिया। इब्राहिम की तरह इकबाल भी (अगर इब्राहिम द्वारा किसी की प्रशंसा में कहे गये सर्वोच्च शब्द का व्यवहार करूं तो) 'असल' इंसान थे - 'सच्चे', 'खरे'। इब्राहिम की ही तरह वे भी अत्यन्त उर्वर प्रतिभा के धनी थे, किसी बात को समझाने में वे अपनी सानी नहीं रखते थे। इन दोनों के साथ देर रात तक बैठकर उनकी सम्मोहक, विस्तीर्ण और ज्ञानप्रद बातें कभी कभी रहस्यमयी भी सुनते हुए खामोशी के गहन आगोश में डूबते जाना एक अद्भुत अनुभव था।
बातचीत की शैली चाहे जैसी भी रही हो पर वार्ता अपने लक्ष्य से कभी नहीं भटकी। मेरे दोनों गुरूओं में से कोई भी वक्त के प्रति कभी कंजूस नहीं रहा शायद इसी वजह से वे प्रिंट मीडिया की सापेक्षिक कंजूसी के प्रति लापरवाह रहे। मेरी बीमारी के दिनों में उन लोगों ने अपनी भाषा शैली, कई भाषाओं के ज्ञान और किस्से कहानियों और अपने विचारों की उदारता से मुझे जिस प्रकार उपकृत किया उसे स्वीकार कर मैं आज भी संकोच में पड़ जाता हूँ । यह संकोच मुझे उन बातों का यहां उल्लेख करने से रोक रहा है । मुझे सबसे अधिक सदमा उस बात से लगा है कि वे मुझसे पहले चले गये, वह भी आज के इन हालातों में जब मानवता के हक में उनकी आवाजों की सबसे अधिक जरूरत थी।
दो वर्ष पहले इक़बाल की मृत्यु के समय उन पर लिखते हुए और आज इब्राहिम पर लिखते हुए उनकी उपलब्धियां गिनवाना मेरे लिए एक कठिन कार्य है। ये दोनों जिससे भी मिले उस पर उन्होंने अपनी अमिट छाप छोड़ी। इनकी उपलब्धियां किसी एक संस्था में सीमाबद्ध नहीं थी वे तो विभिन्न सभाओं, संस्थाओं, दलों, संगठनों और परिवारों के बीच बिखरी हुई हैं । उन्होंने अपने सम्पर्क में आने वाले हर व्यक्ति को प्रभावित किया प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों रूपों में।
अपने जीवन के अंतिम वर्षों में दोनों अपनी जड़ों की और लौट गये; इकबाल, बिहार के मूल निवासी, इस्लामाबाद और इब्राहिम, जाफा के मूल निवासी, रामल्लाह लौट गये। पर असल में घर नहीं लौटे।
अपनी स्मृतियों को पुनः पाने की प्रक्रिया में हम उसे अधिक जड़ बनाते चलते हैं, उन्हें कैद करने के इस प्रयास में हम उन स्मृतियों से धोखा करते हैं - उन स्मृतियों से जिनके पक्ष में ये लोग खड़े थे - ऊर्जा, प्रवाह, खोज और खतरे उठाने की क्षमता । फिलिस्तीन के लंबे इतिहास की स्मृति में इब्राहिम सदा अनुकरण योग्य व्यक्तित्व बने रहेंगे। किसी लक्ष्य के प्रति समर्पित होना किसे कहते हैं इब्राहिम को देख कर समझा जा सकेगा। वे केवल श्रद्धानत नहीं करते बल्कि उसी प्रकार जीने और जीवन के निरन्तर पुनर्परीक्षण के लिए प्रेरित करते हैं। उन्हें पूरी तरह समझने के लिए उन संघर्षों और सिद्धांतों को अच्छी तरह समझना होगा जिनसे उनका जीवन एक क्षण भी विलग नहीं हुआ, उनकी सार्थकता उनके अनुकरण में नहीं उनके जिये सिद्धांतों को फिर से जीने में है इस गुंजाइश के साथ कि भविष्य में इनके प्रति आलोचनात्मक दृष्टि रख इन्हें सुधारा जा सके।
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