डेनियल और सईद के बीच में चली बातचीत में नाटक ,ऑपेरा और कविता के पाठ के मूल्यांकन की समस्या भी उठी, इस पर सबसे पहले डेनियल ने कहा कथोपकथन वाले नाटक और ऑपेरा में अंतर है। इन दोनों के बुनियादी अंतर को कम करके नहीं देखना चाहिए।
ऑपेरा बुनियादी तौर पर सांगीतिक है। इसमें स्पीड यानी गति और ध्वनि के स्वर ऊँचे भी जाते हैं। जबकि कथोपकथन वाले रंगमंच में ऐसा कुछ भी नहीं होता। यही वजह है कि रंगमंच के अनेक बड़े निर्देशकों को ऑपेरा का मंचन करने में दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। क्योंकि वे महसूस करते हैं कि वे तयशुदा खांचे से बंधे हुए हैं। किसी भी गायक से अचानक कम्पोजर के निर्देश पर गाना नहीं गवा सकते। वाचिक पाठ और संगीत में यही अंतर है।
ऑपेरा का मूलत: ध्वनि से संबंध है। ऑपेरा के लिए ध्वनि के तत्वों को जानना बेहद जरूरी है। आपको ध्वनि के उन तत्वों को जानना जरूरी है जिनसे आपको त्रासदी की ध्वनियां मिलें। यदि आप ध्वनि में निरंतरता बनाए रखते हैं तो स्वर एक दूसरे का अनुसरण करते हैं। स्वत: ही जहां एक स्वर खत्म होने वाला होता है दूसरा स्वर अपने आप शुरू हो जाता है। इस प्रक्रिया में ध्वनि की निरंतरता के साथ तनाव को भी बनाए रखता है। कुछ ऐसा भी होता है जो आपको हवा के मध्य में बनाए रखता है।
आप यदि ध्वनि को छोड़ देते हैं तो आप रंगमंच को भी त्याग देंगे। डेनियल कहता है आरंभ में ही ध्वनि के साथ तनाव का तत्व जुड़ा होता है। क्योंकि आपके पास शब्द नहीं होते। एक अन्य जरूरी पहलू है, यदि आप संगीत की गंभीरता के साथ शब्द के संदर्भ में मीमांसा करते हैं तो पाते हैं कि सभी किस्म के संबंध,स्वरलिपि की अन्तर्निर्भरता, सद्भाव,लय और इन सबका गति के साथ संबंध, ये सारी चीजें बगैर किसी पुनरावृत्तिा के संगीत से जुड़ी हैं। प्रत्येक समय जो अंतर नजर आता है उसका प्रधान कारण है भिन्ना क्षण में उसकी प्रस्तुति। इस क्रम में आप दुनिया,प्रकृति,मनुष्य,मानवीय संबंध आदि के बारे में बहुत सारी चीजें सीख सकते हैं। साथ ही साथ इस जगत से पलायन भी कर सकते हैं। यही संगीत का दुरंगापन है,पैराडॉक्स है।
मजेदार बात यह है संगीत आपको प्रकृति,मनुष्य,भगवान आदि के बारे में बहुत कुछ बताता है, शिक्षित करता है, फिर उनसे ही पलायन कराता है। संगीत जिसकी शिक्षा देता है उसी से पलायन कराता है। यही चीज स्वयं में बड़ी आकर्षक और लुभाने वाली है।
हम जब भी संगीत के बारे में बातें करते हैं तो हमेशा उसके प्रभाव के बारे में बातें करते हैं। संगीत के बारे में बातें नहीं करते। इस अर्थ में यह भगवान की तरह है। हम भगवान के बारे में बातें नहीं करते बल्कि भगवान के प्रभाव के बारे में बातें करते हैं। हम हमेशा भगवान की प्रतिक्रियाओं के बारे में बातें करते हैं। कुछ लोगों के लिए भगवान का अस्तित्व है तो कुछ के लिए भगवान का अस्तित्व नहीं है। किंतु हम उसके बारे में बात नहीं करते। हम सिर्फ उसके बारे में अपनी प्रतिक्रियाओं के बारे में बातें करते हैं। यही स्थिति संगीत के बारे में है। आप संगीत के बारे में भी नहीं बता सकते। आप संगीत के बारे में अपनी आत्मगत (सब्जेक्टिव) प्रतिक्रियाओं को ही व्यक्त करते हैं।
संगीत,कला,साहित्य आदि के संदर्भ में बार-बार प्रामाणिकता का सवाल उठता रहा है। प्रामाणिकता का पैमाने क्या है ? सईद ने कहा कि क्या हम प्रामाणिक बीथोविन हासिल कर सकते हैं। अगर ऐसा होगा तो उसे कोई समझ ही नहीं पाएगा। बीच में ही सईद की बात काटकर एरा गुजिलीमियां ने कहा कि इसके किसी न किसी पैमाने पर तो ध्यान देना ही होगा। पुनर्रूत्पादन के लिए ऐतिहासिक सटीकता का ख्याल रखना ही होगा।
सईद ने कहा नहीं, प्रत्येक भाषा और प्रत्येक समय में उसके भिन्न किस्म के बिंदुओं पर जोर रहा है। हम प्रामाणिकता के आग्रह के मारे हुए हैं,यह प्रामाणिकता आखिरकार क्या है ? डेनियल ने कहा कि वह प्रामाणिक अनुभूति की बात कह रहा है। सईद ने कहा मैं जानता हूँ, किंतु अनुभूतियों की प्रामाणिकता ,जैसा वह शिक्षा देता है ध्वनि पर आधारित है। किंतु इन सबकी प्रामाणिकता क्या है ?
प्रामाणिकता एक तरह से वर्तमान को पुष्ट करना है। तुम जानते हो कि अतीत के साथ इसका संबंध होता है। यदि मैं कहूँ कि यह प्रामाणिक है, और मैं जो कह रहा हूँ वह सत्य भी है। ईसाईयत में लोग हमेशा सच्चे क्रॉस को देखते रहते हैं,इस अर्थ में वह हमेशा वर्तमान भी होता है। अतीत के बारे में प्रामाणिकता की बात करना स्वयं में दिग्भ्रमित करने वाली बात है। असल में यह वर्तमान के बारे में उठा सवाल है कि वर्तमान के नजरिए से आप अतीत को कैसे देखते हैं। वर्तमान के नजरिए से अतीत को किस तरह निर्मित करते हैं। कौन सा अतीत चाहते हैं ? आप जानते हैं कि आपको किस तरह का अतीत चाहिए। इसी तरह 'इच्छा' (डिजायर) की प्रामाणिकता के बारे में भी विचार करने की जरूरत है।
सईद ने कहा मैं एक अन्य समस्या की ओर आप लोगों का ध्यान खींचना चाहता हूँ क्या यह संभव है कि जो लोग कलाओं के बारे में अथवा किसी एक कला विशेष के बारे में जानते हैं तो उन्हें संगीत के बारे में कुछ भी ज्ञान नहीं होता, इस स्थिति को सईद ने संगीत के प्रति भेदभाव की संज्ञा दी है। यह भेदभाव शिक्षितों में ज्यादा पाया जाता है। यह इस युग की विशेषता है। जबकि संगीत का समाज में केन्द्रीय स्थान है। खासकर 19वीं शताब्दी के बाद से मध्यवर्ग,अभिजन समाज में संगीत का केन्द्रीय स्थान रहा है। यह शिक्षितों और बौध्दिकों के बीच में विमर्श का सबसे बड़ा क्षेत्र रहा है। किंतु आज ऐसी स्थिति नहीं है।
सईद ने कहा आज दो तरह की ऑडिएंस मिलती है। ऑडिएंस का एक रूप वे लोग हैं जो काम करते हैं,कारपोरेट जगत में काम करते हैं,धनी हैं।मेरा मानना है वे पूरी तरह कंजरवेटिव होते हैं। वे नया संगीत नहीं चाहते। वे संगीत के अंतहीन कार्यक्रम चाहते हैं। इसमें शास्त्रीय संगीत और बाजारू संगीत दोनों शामिल हैं।
दूसरे किस्म की ऑडिएंस की तादाद बहुत कम है। इस कोटि के लोगों की संख्या में लगातार कमी आ रही है। वे जानते हैं कि संगीत उनके जीवन का हिस्सा है। ऐसे लोगों ने संगीत को अलंकार की तरह धारण किया हुआ है। इस तरह के लोगों के बारे में ही एडोर्नों ने सवाल उठाए हैं। वे जानते हैं कि संगीत समाज का प्रतिनिधित्व करता है,लेकिन वे लोग संगीत के प्रतिनिधि बने घूमते रहते हैं। ऐसे लोग यह समझने में असमर्थ रहे हैं कि संगीत समाज में अपनी भूमिका अदा नहीं कर पा रहा है।
संगीत समाज में अपनी भूमिका अदा करे इसके लिए सईद के मुताबिक तीन चीजें जरूरी हैं,(1) प्रिफार्म करे,(2) समझा जाए,(3) सुना जाए। क्या इन तीनों के बीच में कोई द्वंद्वात्मक संबंध है ? स्पांसर,संरक्षण के अलावा हम क्या अन्य कोई ऐसा सुझाव सुन पाते हैं कि मैं इस तरह का संगीत चाहता हूँ ? इस रूप में चाहता हूँ ? मुझे संदेह है संगीत सुनकर लोग महसूस भी करते हैं ?
एक प्रिफार्मर के नाते यदि तुम संगीत का इतिहास उठाकर देखो तो पाओगे कि संगीत की जटिलताएं बढ़ी हैं। अपनी संगीत प्रस्तुतियों के दौरान तुमने क्या यह महसूस नहीं किया कि संगीत और समाज में अंतराल बढ़ा है। क्रमश: इनमें विभाजन बढ़ा है। इस संगीत को उपलब्ध कराके क्षतिपूर्ति कर रहे हो। इसका अर्थ यह भी है कि तुम संगीत के साथ प्रवाह की विपरीत दिशा में जा रहे हो। संगीत को ज्यादा से ज्यादा घरेलू बनाकर तुम उसे धोखा दे रहे हो।
( लेखक- जगदीश्वर चतुर्वेदी,सुधा सिंह )
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