आज बाजार में जिस तरह से सस्ते दामों पर संगीत उपलब्ध है उसका श्रोता पर बहुत कम असर होता है ,इसके अलावा श्रोता भी कमजोर होता है। वह आज ऐसी स्थिति में भी नहीं है कि अच्छे ढ़ंग से संगीत की प्रशंसा कर दे। आज के संगीत ने श्रोता को गूंगा बना दिया है।
आज श्रोता के ऊपर जिस तरह के हमले हो रहे हैं उसने पूरी तरह से श्रोता के अंदर मर्दवादी अनुभवों का संचार किया है। हमारे रोजमर्रा के संगीत कार्यक्रमों में गायकों को जिस तरह के प्रशंसा शब्द बोले जाते हैं वे मर्दानगी का भाव लिए होते हैं। आजकल हम जिस तरह की संगीत प्रिफार्मेंस देख रहे हैं उसमें मौलिकता का अभाव होता है, यह मूलत: नकल है, जो शास्त्रीय संगीतकार आए दिन कार्यक्रमों में पेश करते रहते हैं वहां पर भी मौलिकता के कम और पुनरावृत्ति के दर्शन ज्यादा होते हैं। वे संगीत साधना के नाम पर वर्षों से एक ही चीज को तरह-तरह से दोहरा रहे हैं।
कुछ ने संगीत को स्वर में और कुछ ने वाद्ययंत्रों की पुनरावृत्तिमूलक प्रस्तुतियों में तब्दील कर दिया है। वे संगीत के प्रदर्शनों के जरिए स्वयं की आत्मा को संतोष प्रदान करते हैं। जबकि सार्वजनिक जीवन में उनकी संगीत प्रस्तुतियां कृत्रिम संगीत वातावरण बनाती हैं। यह ऐसा संगीत है जिसमें उत्पादन और पुनर्रूत्पादन की क्षमता नहीं है। इसमें मौलिकता पर कम पुनरावृत्ति पर ज्यादा जोर है, इसमें नए का उदय बहुत ही धीमी गति से हो रहा है। संगीत की पुनरावृत्ति के वातावरण को संचार की नई तकनीक ने चरमोत्कर्ष पर पहुँचा दिया है।
एडवर्ड सईद ने एडोर्नो के द्वारा संगीत की भूमिका के बारे में व्यक्त सैध्दान्तिक विचारों को आधार बनाते हुए लिखा है संगीत के क्षेत्र में तीन बड़े परिवर्तन घटित हुए हैं। इन्हें एडोर्नो ने तीन सिध्दान्त का रूप दिया है। बीथोविन के मरने के बाद (1827 में मौत हुई) संगीत का यथार्थ जगत से पूरी तरह संपर्क टूट गया। अब संगीत के सौंदर्य और यथार्थ में पूरी तरह अंतराल आ गया।
बीथोबिन की अंतिम स्टाइल ने संगीत को सामान्य ऐतिहासिक यथार्थ में नए किस्म की स्वायत्ताता प्रदान की। बीथोबिन के एक सौ साल बाद अरनॉल्ड शोइनबर्ग ने ऐतिहासिक उपलब्धि हासिल की और संगीत को नया अर्थ प्रदान किया। संगीत को नया रेशनल प्रदान किया। दूसरा महत्वपूर्ण विकास यह हुआ कि संगीत की समूची व्यवस्था का तकनीकीकरण हुआ जिसके कारण रूपों,कार्यक्रमों, स्वरलिपि आदि सभी का विवेकपूर्ण निर्धारण हुआ। यह एक तरह से जबर्दस्ती निर्धारित किए गए नियम हैं। ये रूपान्तरणकारी भूमिका को खत्म कर देते हैं। साथ ही वैधता और अलगाव को भी खत्म कर देते हैं। अथवा यह भी कह सकते हैं संगीत से जुड़ी प्रत्येक चीज से अलगाव को खत्म कर देते हैं। इसके बाद ही इम्प्रोबाइजेशन,रचनात्मकता,कम्पोजिशन, आरोपण, वैविध्य, और सामाजिकता की अवधारणा पैदा हुई। इसके बाद जो स्थिति आई उसने एक तरह की जड़ता पैदा की है।
समाज में चौतरफा बुर्जुआ संगीत का बिगुल बज रहा है। मजदूरवर्ग अपना संगीत बनाने में समर्थ रहा। इस प्रक्रिया में जो संगीत पैदा हुआ है वह पूरी तरह 'अ-सामाजिक' है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि सामाजिक सरोकारों से कटा हुआ है। यह बिच्छिन्ना सद्भाव संगीत है। अर्थहीन संगीत है। इस संगीत का सौंदर्य यही है कि यह सभी किस्म के सौंदर्य को अस्वीकार करता है। सौंदर्य के भ्रमों को अस्वीकार करता है। यह ऐसा संगीत है जो बगैर सुने ही मर जाता है। जिसकी गूंज कहीं पर भी सुनाई नहीं देती।इसके संग्रहकर्त्ता बहुत छोटे लोग होते हैं। यह नपुसंक बंदूक की तरह है।
एडोर्नो के शब्दों में आधुनिक संगीत अपने अंतिम अनुभव में तकनीकी अनुभव प्रदान करता है। आधुनिक संगीत अपने लक्ष्य से पूरी तरह भटक गया है। शोएनबर्ग के शब्दों में कहें तो आधुनिक संगीत पुराना होता जा रहा है। एडोर्नो कहता है आज हम शास्त्रीय संगीत को नए रूपों में सुन रहे हैं। ये नए किस्म के सौंदर्यबोधीय और सामाजिक अनुभव को लेकर आ रहा है। इस संगीत की सबसे बेहतरीन चीज है इसका आरंभ। सईद ने लिखा संगीत हमेशा सामाजिक परिवेश से जुड़ा रहता है। विशेष किस्म के सौंदर्य और सांस्कृतिक अनुभवों को अभिव्यक्त करता है। इसके गर्भ से नागरिक समाज जन्म लेता है।
सईद ने फूको के हवाले से लिखा है सामयिक बुध्दिजीवियों की यह खूबी है कि उन्हें संगीत के बारे में कुछ भी पता नहीं है। बुध्दिजीवी संगीत के बारे में कुछ भी नहीं बोलते। चाहे वह शास्त्रीय संगीत हो अथवा बाजारू संगीत हो, बुध्दिजीवियों को किसी भी किस्म के संगीत के बारे में कुछ भी पता नहीं होता।
आधुनिक संगीत के बारे में एडोर्नो ने आखिरी बात यह कही थी कि उसमें 'एक्सक्लूसिविज्म' यानी बहिष्करण या एकांतिता है। इसके कारण वह किसी नए को निर्मित नहीं करता बल्कि संगीत को पागल की तरह अलग ले जाता है उसकी आवाज बंद कर देता है। अंतत: गैर-विमर्शात्मक कला में तब्दील कर देता है।
मौजूदा दौर आधुनिकतावादी संगीत का दौर है। इस दौर में संगीत के अनुभव फ्रेंगमेंटेड होते हैं। चंचल होते हैं। विखंडित होते हैं। ऐतिहासिक संगीतशास्त्र,सिध्दान्त,जातीय संगीतशास्त्र,कम्पोजीशन आदि को अधिकांश अकादमिक विभागों में चार रूपों में पढ़ाया जाता है। इसके हिस्से के तौर पर संगीत समीक्षा में आजकल रिपोर्ट के नाम पर संगीतसभाओं में आने वाले लोगों की तादाद के बारे में चर्चा रहती है, संगीत सभाएं कभी-कभार ही होती हैं। इनकी पुनरावृत्ति नहीं होती,आमतौर पर इनकी रिकॉर्डिंग नहीं होती। इसके बावजूद इस सबको सांस्कृतिक अध्ययन के नाम पर पढ़ाया जाता है। सईद ने लिखा कि संगीत के कुछ आयाम तो पश्चिमी जगत की सामयिक संगीत अवस्था में ही समझ में आते हैं। प्रस्तुति का समय उनमें से एक पक्ष है। इसीलिए संगीत के बारे में व्यापक सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में विचार करने की जरूरत है।
एडोर्नो की जिस आखिरी बात को सईद ने उध्दृत किया है, वह है बहिष्करण। इसने संगीत को यथास्थितिवादी और गैर-विमर्शात्मक बना दिया है। आज जब भी कोई संगीत के बारे में सोचता है अथवा लिखना चाहता है तो उसके अर्थ और व्याख्या की खोज करता है उसके सामने यही सवाल रहता है कि इतनी सारी समस्याओं के बावजूद भी संगीत अपने प्रतिरोध, मास्टरी,अप्रत्यक्ष चुप्पी को कैसे बनाए रखता है और यही इसकी स्वायत्ताता का प्रतीक भी है।
सईद ने कहा हमें संगीत की सार्वजनिक प्रस्तुतियों की महत्ता को कम करके नहीं देखना चाहिए, इन प्रस्तुतियों के जरिए पेशेवराना,उत्सवधर्मी और विशेषज्ञकेन्द्रित भाव को बनाए रखा है। इन प्रस्तुतियों के जरिए एक ओर सामाजिक और सांस्कृतिक अंतराल को पाटने का मौका मिलता है। साथ ही संगीत के अंदर से आत्मसातकरण की प्रक्रिया को बल मिलता है। प्रस्तुतियों के जरिए विशेष और सामान्य के बीच सम्मिलन होता है।
संगीत पूरी तरह सौंदर्यबोधीय धरातल पर विशिष्ट अनुशासन है। सामान्यत: इसकी प्रस्तुतियां सामाजिक तौर पर उपलब्ध रूपों के जरिए ही पेश की जाती हैं। इस प्रसंग में संगीत सभाओं के सामाजिक असामान्यत्व पर गौर करने जरूरत है। इन कार्यक्रमों में जाने वाले अधिकांश लोग संगीत प्रस्तुतियों को समझ ही नहीं पाते अथवा प्रेरित नहीं होते। इस ठोस वास्तविकता के बावजूद जब भी हम मंच पर प्रस्तुति देखते हैं दर्शक इन प्रस्तुतियों को हजम करते हैं। इसी को सईद ने 'चरम क्षण' की संज्ञा दी है। यह ऐसा अवसर है जो रोजमर्रा की गतिविधि से भिन्ना होता है। इसे आप किसी अन्य में समाहित नहीं कर सकते। यह तात्कालिक होता है, इसकी पुनरावृत्तिा संभव नहीं है। इसके बुनियादी अर्थ की अनुभूति हम तुलनात्मक तौर पर अघोषित परिस्थितियों के साथ ही कर सकते हैं।
संगीत की इन प्रस्तुतियों को जो लोग पेश करते हैं वे एडोर्नो के शब्दों में ''लौह अनुशासन'' से बंधे होते हैं। 'लौह अनुशासन' के कारण ही संगीत को जहां जाना होता है वहां पहुँच जाता है। उसे नियंत्रित करना संभव नहीं होता। पुराने संगीत से सामयिक संगीत इस अर्थ में भिन्ना है कि इसमें संगीत के ऊपर तकनीक और प्रशासन ने वर्चस्व स्थापित कर लिया है।
संगीतसभाओं के जरिए मिलने वाला आनंद अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद साधारण आदमी को वैकल्पिक सौंदर्यबोधीय मानवीय अनुभव प्रदान करता है। संगीतसभाओं में आम दर्शक जिस संगीत से दो-चार होता है वह संप्रेषण के जटिल रूपों में सामने आता है इसके कारण प्रत्यक्ष संप्रेषण नहीं हो पाता। संगीत का उद्धाटन नहीं हो पाता,संगीत को पारदर्शी ढ़ंग से हम समझ नहीं पाते। इसके कारण हम नॉस्टेल्जिया में लटके रहते हैं। हमें संगीत में इस्तेमाल होने वाले वाद्ययंत्रों और उनकी स्वरलिपि का कोई ज्ञान नहीं होता किंतु गीत के बोल याद रह जाते हैं।
सईद के अनुसार परवर्ती पूंजीवाद में संगीतसभाएं ''संगीत निर्मिति'' अथवा '' व्याख्याकारों के समुदाय'' अथवा मूलत: 'सब्जेक्टिविटी' अथवा भावना पर आधारित होती हैं। इससे पुराने प्रस्तुति के मानकों का उल्लंघन होता है। इससे यह भी पता चलता है कि संगीत की यह परंपरा कभी हमारे यहां नहीं थी। पुराने संगीत परंपरा से इसका संबंध पूरी तरह टूट चुका है। अब संगीतसभाएं कारपोरेट संरक्षण,स्पांसरशिप आदि के जरिए ही होती हैं। वे ही इनके लिए पैसा देते हैं। इसके आधार पर ही संस्कृति उद्योग सक्रिय है। इसके अलावा इस तरह की प्रस्तुतियों में कृत्रिमता और उसकी सीमाएं साफतौर पर देखी जा सकती हैं। इस तरह के संगीत को एडोर्नो ने 'हीरोइक' और 'ट्रैजिक' कहा था।
आज बाजारूसंगीत और शास्त्रीय संगीत में जबर्दस्त प्रतिस्पर्धा चल रही है,देश में जगह-जगह शास्त्रीय संगीत के आयोजन हो रहे हैं इसके अलावा फिल्मी संगीत के समारोह भी हो रहे हैं। किंतु शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रमों की तादाद ज्यादा है। इन समारोहों में संगीतकार और गायकों के बीच में जबर्दस्ती प्रतिस्पर्धा भी देखने को मिलती है। इसके कारण संगीत के उत्पादन का विकल्प तैयार हो रहा है।
आज से सौ साल पहले संगीतकार ही था जो सारी जगह पर कब्जा जमाए हुए था। किंतु आज प्रिफार्मर प्रमुख हो गया है, इसमें प्रमुख गायक,पियानोवादक,वायलिनवादक आदि कुछ भी हो सकता है। अब प्रिफार्मेंस को विशेष महत्व दिया जा रहा है। इससे वह यथार्थ के साथ प्रतिस्पर्धा करता नजर आता है।जिससे दिमाग के नियंत्रण का उद्धाटन भी होता है। संगीत में आज जिस तरह की कृत्रिमता आ गयी है वह पहले कभी नहीं थी और इसी कृत्रिमता को सामान्य माना जा रहा है। जबकि यह असामान्य है। कृत्रिम गले को जादुई गला और कृत्रिम संगीत प्रदर्शन करने वाले कलाकारों की अंगुलियों को जादुई अंगुलियां कहा जा रहा है। इसे जन्मजात प्रतिभा,सर्जक प्रतिभा वगैरह वगैरह कहा जा रहा है।
सईद ने लिखा किसी भी लेखक,आलोचक अथवा संस्कृतिकर्मी के विचार,सृजन और सैध्दान्तिकी में अन्तस्संबंध स्थापित करके पढ़ा जाना चाहिए। हमें देखना चाहिए कि लेखक के सौंदर्यबोधीय नजरिए और बौध्दिक नजरिए में क्या संबंध है और इसमें किसे वरीयता प्रदान की जाए।
इस परिप्रेक्ष्य में सईद ने अनेक लेखकों और आलोचकों के विचारों के सृजन और विचारों के अन्तर्विरोधों की विस्तार के साथ चर्चा की है। इस क्रम में सईद ने लिखा है हमें रेहटोरिक या आत्मरक्षा या आरोप लगाने से बचना चाहिए। इस क्रम में ही सईद ने पाल दे मान के यहूदीवाद समर्थक विचारों की तीखी आलोचना पेश की है। अनेक बड़े लेखक हुए हैं जिन्होंने महान् साहित्य की रचना की किंतु फासीवाद अथवा नस्लवाद का समर्थन किया। यही स्थिति संगीतकारों की भी है।
फासीवाद के दौर में अनेक बड़े संगीतकार हिटलर के साथ थे जिनकी एडोर्नो ने तीखी आलोचना की है। इस क्रम में सईद ने लिखा है संगीत को किसी कालक्रम अथवा युग में बांधना संभव नहीं है। इस प्रक्रिया में हमें प्राणहीन वस्तु के द्वारा यथार्थ जीवन के अनुकरण किए जाने पर गौर करना चाहिए। हमें यह देखना चाहिए कि आंतरिक तत्व क्या है। क्योंकि आंतरिक तत्व के गर्भ से ही महान् बीथोवन संगीत पैदा हुआ।
सईद के अनुसार कोई भी सामाजिक व्यवस्था, ऐतिहासिक विजन, सैध्दान्तिक सर्वसत्तावाद चाहे वह कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो, वह सभी विकल्पों को समाप्त नहीं कर सकता। हमेशा रूपान्तरण की संभावना बची रहती है। रूपान्तरण का अर्थ है अतिक्रमण। इसका अर्थ यह भी है कि आप जिस पर जोर दे रहे हैं उसे वह छोड़कर आगे चला जाए।
धर्मनिरपेक्ष रूपान्तरण एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में स्थानान्तरित होता रहता है। सीमा को चुनौती देता रहता है। वह एक-दूसरे में मिश्रित होता रहता है, वैविध्य में शामिल होता रहता है। उम्मीदों का अतिक्रमण करता रहता है। इसके कारण ही वह अकल्पनीय आनंद देता है। खोज करता है और अनुभव प्रदान करता है। सर्वसत्ताावादी प्रवृत्तिा को ज्योंही चुपचाप सहमति देना बंद करते हैं श्रृंखलाबध्द रूपान्तरण की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। संगीत प्रस्तुति में परफेक्शन की मांग और उच्चस्तरीय पेशेवराना र्काकलापों की वजह से संगीत विमर्श पूरी तरह पेशेवर होकर रह गया है। खासकर शास्त्रीय संगीत और समाज में सांस्कृतिक गतिविधियों के चारों ओर घेराबंदी कर ली गयी है।
सईद ने रिचर्ड लेपर्ट की कृति '' म्यूजिक एंड इमेज : डोमेस्टीसिटी,आइडियोलॉजी एंड सोशियो-कल्चरल फारमेशन इन एटींथ सेंचुरी इंग्लैंड'' के आधार पर लिखा कि रिचर्ड के अनुसार संगीत का बुनियादी लक्ष्य है सामाजिक नियंत्रण स्थापित करना। संगीत के आधार पर वर्गीय और लिंगीय भेदभाव को लागू किया जाता है। संगीत वर्गभेदों पर आश्रित है। संगीत के जरिए प्रतिष्ठा और मर्दानगी में इजाफा होता है। स्त्रीवादी परिप्रेक्ष्य में सुसान मेक्कलेरी ने लिखा संगीत का खास किस्म के कामुक स्टीरियोटाईप के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान है। संगीत के जरिए ही कमनीय,छरहरी और उत्तोजक स्त्री की कल्पना का प्रसार हुआ है।
सईद ने लिखा संगीत और समाज के अन्तस्संबंध में जब हम संगीत की रूपान्तरणकारी भूमिका की बात करते हैं तो हमारा इशारा संगीत को समाज के मातहत रखकर देखने की ओर होता है। संगीत की दर्पण की भूमिका मानी गयी है। इसके विपरीत सिविल सोसायटी में संगीत तटस्थ अथवा विकल्प नहीं होता। बल्कि सामाजिक निर्माण में भूमिका अदा करता है। पश्चिमी शास्त्रीय संगीत को एक तरह से बौध्दिक श्रम माना जाता है। ग्राम्शी ने इसकी पश्चिमी समाजों के 'एलोबरेशन' के रूप में चर्चा की है।
सईद कहता है इस तरह संगीत को देखना असल में उसके पराएपन के साथ देखना है। संगीत के पास बौध्दिक श्रम का साझा इतिहास है , वह जिस समाज में पैदा होता है उसका आवयविक हिस्सा होता है। इसीलिए हम संगीतकार को भी बुध्दिजीवीवर्ग में शामिल करते हैं। वैसे वह भिन्ना विशिष्ट उपसमूह में रहता है। उसके अपने संबंध,संगठन,शक्तियां और मानक होते हैं। आज के दौर में उनका योगदान है समाज को बनाए रखना। समाज को सैध्दान्तिक, सामाजिक, और गैरकथात्मक अस्मिता प्रदान करना,यह काम वह अपनी संगीत रचनाओं,प्रस्तुतियों,व्याख्याओं और विद्वता के जरिए करता है। इस तरह का पेशेवराना नजरिया संगीत को उसके अपने आदर्श क्षेत्र के परे ले जाता है।
सईद ने लिखा है हमें समग्रता में शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र को देखना चाहिए। उसके निरंतर चले आ रहे वर्चस्व और यथास्थितिवाद को देखना चाहिए। अथवा मानवीय विकास के क्रम में अन्य संस्कृतियों के द्वारा समय-समय पर दी गई चुनौतियों ,गैर आभिजात्य समूहों,वैकल्पिक उपसंस्कृतियों आदि को समग्र सामाजिक संदर्भ में खोलकर देखना चाहिए जिससे उस चीज का पता चले कि संगीत का कैसे निर्माण हुआ ? सातवीं शताब्दी अथवा नवीं शताब्दी में संगीत कैसा था और किस तरह की राजनीतिक और सामाजिक शिरकत की प्रक्रिया में उसका जन्म हुआ और किस तरह वह रूपान्तरित होकर आया है और यथार्थ को अभिव्यक्त करता रहा है, इत्यादि सवालों पर विचार करना चाहिए।
इसके अलावा यह भी देखना चाहिए कि संगीत का समय से क्या संबंध है ? क्या संगीत समय काटने का माध्यम है अथवा संगीत समयबध्द है ? संगीतकार जिन सांगीतिक रूपों में चुप रहता है वे उसके संगीत की गंभीर समस्याओं की ओर ध्यान खींचते हैं। वहां पर संगीतकार को समझने में बेहद गंभीर कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है।
यह भी विचारणीय सवाल है कि क्या संगीतकार मिथ बना रहा है ? संगीत का केन्द्रीय पक्ष है कि उसमें विशिष्ट चीजें ही अभिव्यक्ति पाती हैं, विलक्षण ही स्थान पाता है। सामान्य का संगीत में कोई स्थान नहीं होता। कलाकार की व्यक्तिवादिता अभिव्यक्ति पाती है। इसके अलावा संगीतकार की आंतरिकता,चंचलता और अस्तित्व की परिस्थितियां अभिव्यक्त होती हैं। इसके कारण ही संगीत किन्हीं खास क्षणों के बोध को पैदा करने में सफल हो पाता है। इसके फलस्वरूप हमें संगीत की स्वतंत्र स्थिति का अहसास होता है। संगीत पूरी तरह व्यक्तिवादिता और असामान्य भावों को अपने अंदर समेटे होता है जिसके फलस्वरूप वह हमारे समय गुजारने में भी काम आता है।
(लेखक-जगदीश्वर चतुर्वेदी, सुधा सिंह)
nice
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