इस फर्क के बावजूद लोकप्रिय विज्ञान के जरिए टुकड़ों-टुकड़ों में विज्ञान के परिणामों को आम जनता तक पहुंचाने में मदद मिलती है। या जब इन्हें सनसनीखेज ढंग से पुनर्प्रस्तुत किया जाता है तो भी परिणाम आम लोग जान ही जाते हैं। लेकिन यह टुकड़ों-टुकड़ों में होता है और लोग विज्ञान की विधि और भावना से अपरिचित ही रह जाते हैं।
आज विज्ञान और लोकप्रिय विचारों के बीच आदान-प्रदान टूट चुका है। विज्ञान को लेकर वैसी सघन और प्रशिक्षित गुणग्राहकता कहीं नहीं मिलती जैसी क्रिकेट या फुटबाल मैचों को लेकर देखी जाती है। इसकी व्याख्या केवल वैज्ञानिक आनंद में वित्तीय हितों की कमी या इस विषय की अंतर्निहित कठिनाई के जरिए नहीं की जा सकती।
आम लोग महीनों क्रिकेट की बारीकियों को लेकर चर्चाएं करते रहते हैं यहां तक कि सट्टे में पैसा तक दांव पर लगाते हैं। यदि विज्ञान में लोगों की रुचि होती तो एक बड़ा दिलचस्प खेल दिखाई देता और वह यह कि आम लोग किसी समस्या पर प्रोफेसर 'क' के सिध्दांत पर प्रोफेसर 'ख' के सिध्दांत की अपेक्षा दस और एक का दांव लगाते।
अंधविश्वास को हमारे जनमाध्यम सबसे पहले कवरेज देते हैं। खासकर हिंदी मीडिया की स्थिति तो बेहद खराब है। हिंदी में किसी भी दैनिक मीडिया में विज्ञान के स्थायी पेज या स्तंभ नहीं हैं। न विज्ञान संवाददाता हैं, न विज्ञान संपादक हैं, और न विज्ञान पर लिखने वाले वैज्ञानिक लेखक ही हैं। विज्ञान की यदा-कदा खबरें आती हैं तो लगता है चिप्पियां जोड़कर खबर बनाई गई है। अथवा सनसनीखेज ढंग से विज्ञान खबर प्रकाशित होती है। जनमाध्यमों का विज्ञान के प्रति इस तरह का उपेक्षा भाव जनमाध्यमों की सामाजिक भूमिका पर सवालिया निशान लगाता है।
आमतौर पर यह देखा जाता है वैज्ञानिक खबरों को हिंदी का कोई अखबार छापता ही नहीं या छापता है तो छपी हुई चीजें आती हैं। वे पूरी तरह टुकड़ों-टुकड़ों में होती हैं। लोकप्रिय अखबार किसी खोज के बारे में सिर्फ इसलिए छापते हैं क्योंकि वह चौंकाने वाली लगती है और हमारे स्वीकृत दृष्टिकोण में कुछ उलटफेर करती है। अधिक गंभीर अखबार भी यथार्थत: इससे बेहतर कुछ नहीं करते।
जब वे विज्ञान संबंधी खबर बनाते हैं तो किसी वैज्ञानिक से एक पैराग्राफ उधार मांग लेते हैं और वह विशेषज्ञ न सिर्फ यह मानकर चलता है कि बाकी लोग भी उसके जितने ही जानकार हैं बल्कि जानकार और गैर-जानकार सारे ही लोग इस नई पहेली का कोई मतलब नहीं निकाल पाते जो विज्ञान नाम की समूची पहेली में आ चिपकी है। ऐसी खबरों में कोई बौध्दिक रुचि लेने के बजाय उन्हें एक सरसरी उत्सुकता के साथ ही, पढ़ा जा सकता है। हमारे लिए इन टुकड़ों में से छांटना, छानना और जोड़ना तब तक और भी कठिन होता है जब तक हम यह न देख सकें कि विज्ञान की विकासमान सीमाओं में इस तरह की खबरें क्या जोड़ती हैं।
अधिकतर लोकप्रिय विज्ञान पत्रिकाएं बेहतर होती हैं किंतु इनमें से अधिकांश हिस्सा आश्चर्यजनक कथाओं और व्यावहारिक गुरों से भरा होता है। इनमें यदाकदा ही गंभीर और सटीक लेख प्रकाशित होते हैं। ऐसा एक भी प्रकाशन नहीं है जिसकी अकेली भूमिका समकालीन आर्थिक और राजनीतिक विकास के संदर्भ में विज्ञान की प्रगति को सहज ग्राह्य रूप में पेश करने की हो। लोकप्रिय विज्ञान पर लिखी पुस्तकों की अवस्था इससे भी खराब है। अंधविश्वास के खिलाफ लड़ने के लिए हमें इस स्थिति को बदलना होगा।
हमें विज्ञान और लोकप्रिय विचारों के बीच आदान-प्रदान पर जोर देना होगा। आज विज्ञान और वैज्ञानिक अलगाव की स्थिति में हैं। अलगाव का आलम यह है कि वैज्ञानिक दूसरी दुनिया का हो गया है।
वैज्ञानिक का सामाजिक अलगाव वस्तुत: विज्ञान के सामाजिक अलगाव का द्योतक है। अपने विषय से इतर वह साधारण व्यक्ति लग सकता है, गोल्फ खेल सकता है, अच्छे किस्से सुना सकता है और एक समर्पित पति और पिता भी हो सकता है, लेकिन उसका विषय उसकी अपनी 'दुकान' है, जो उसे समझने वाले चंद लोगों को छोड़कर उसे पूरी तरह आत्मकेंद्रित बना देती है। साहित्यिक संस्कृति के लोगों में विज्ञान के बारे में कुछ भी न जानने का एक आकर्षण होता है, स्वयं वैज्ञानिक भी इस आकर्षण से बच नहीं पाते। उनके बारे में भी यह बात अन्य विज्ञानों पर लागू होती है।
वैज्ञानिक विषयों पर अच्छी सामान्य बातचीत दुर्लभतम अवसरों में से एक होती है और यदि किसी समूह में वैज्ञानिकों की बहुतायत हो तो भी यह बात लागू होती है।आज स्थिति यह है कि संस्कृति और विज्ञान का अलगाव बढ़ गया है। इस अलगाव की शुरुआत विज्ञान की शिक्षा शुरू होने के बाद हुई। यह एक भारी विरोधाभास है। इसके बाद से ही विज्ञान का शौकिया चरित्रा खत्म हुआ और व्यापक जनता की रुचि भी इसमें से जाती रही। अब खुद से विज्ञान के बारे में सोचने की जरूरत किसी को नहीं है, विज्ञान के क्षेत्रा में अब ऐसे ही लोग मिलते हैं जो बस अपने काम से काम रखते हैं।
अंधविश्वास सिर्फ जनता तक सीमित नहीं हैं बल्कि प्रशासन और राजनीति के क्षेत्रा में भी इसका गहरा प्रभाव देखा जा सकता है। इसी तरह विज्ञान के प्रति अज्ञान सिर्फ जनता तक सीमित नहीं है बल्कि प्रशासन और राजनीति तक इसका क्षेत्रा फैला हुआ है। यह अचानक नहीं है कि लोकचेतना, राजनीति और प्रशासन में विज्ञान इतना तिरस्कृत है।
विज्ञान के प्रति हमारा मौजूदा रवैया हमारी मौजूदा सामाजिक व्यवस्था का अनिवार्य और मौलिक अंग है। समाज की मौजूदा जरूरतें अपनी संतुष्टि के लिए विज्ञान को जाग्रत रखना चाहती हैं, लिहाजा ये जरूरतें कुछ भी हों, कुछ विज्ञान इनके लिए जरूरी है। लेकिन इन जरूरतों की पूर्ति के लिए आया विज्ञान नई जरूरतें पैदा करता है और पुरानी जरूरतों की आलोचना करता है। ऐसा करते हुए समाज में सुधार करने में उससे भी कहीं ज्यादा और भिन्न भूमिका अदा करने लगता है। यही कारण है कि शासक वर्ग यह कोशिश करता है कि विज्ञान और वैज्ञानिक दोनों को सामाजिक अलगाव की अवस्था में रखा जाए और विज्ञान को एक उपयोगी नौकर की तरह इस्तेमाल किया जाए।
विज्ञान का यदि सामाजिक अलगाव खत्म हो जाएगा तो वह सामाजिक परिवर्तन का अस्त्र बन जाएगा, मालिक बन जाएगा। यही वजह है कि वैज्ञानिकों को अपने-अपने पेशों में मगन रहने दिया जाता है। समाज में जिन लोगों का वर्चस्व है वे नहीं चाहते कि विज्ञान आम लोगों तक पहुंचे और आम जनता विज्ञानसम्मत चेतना से संपन्न बने। विज्ञानसम्मत चेतना के माध्यम से ही आम लोगों में आलोचनात्मक ढंग से सोचने और देखने का नजरिया विकसित होता है। जो नजरिया सिर्फ आलोचनात्मक हो और विज्ञानसम्मत न हो तो उसमें अंधविश्वासों को अपदस्थ करने की क्षमता नहीं होती।
विज्ञान को जनप्रिय बनाने के काम में सबसे बड़ी बाधा है धन की। आज अंधविश्वास के कार्यों के लिए जिस तरह बेशुमार धन उपलब्ध है उसकी तुलना में विज्ञान के अनुसंधान कार्यों के लिए धन उपलब्ध नहीं है। राज्य और निजी क्षेत्रा दोनों ही की तरफ से विज्ञान के बुनियादी अनुसंधान के लिए सकल घरेलू उत्पाद का एक फीसदी हिस्सा भी खर्च नहीं होता। जो कुछ खर्च होता है उस पर बाजार की शक्तियों की नजर लगी हुई है।
इसके अलावा फासीवादी ताकतें विज्ञान का अपने हितों और राजनीतिक विस्तार के लिए इस्तेमाल करना चाहती हैं। वे इसका युध्द सामग्री के निर्माण के लिए इस्तेमाल करने के पक्ष में सक्रिय हैं। वहीं दूसरी ओर आम जनता में पौराणिक मिथों, कथाओं और रहस्यवादी अतार्किकता का जमकर प्रचार कर रही हैं। यहां तक कि गणेश दूध पी रहे हैं जैसे चमत्कारों का प्रचार करते रहे हैं। बहुत सारे संत-महंत अपने जादुई चमत्कारों के नाम पर जादूगरी के करतबों और विज्ञान के नुस्खों का प्रयोग कर रहे हैं और आम जनता में अंधविश्वास फैला रहे हैं।
फासीवादी ताकतें पोंगापंथी बातों का दृढ़ सत्यों के साथ घालमेल कर रही हैं। आज यह प्रचार किया जा रहा है कि हिंदू जन्मना श्रेष्ठ होते हैं, उनमें सिर्फ अनुशासन की कमी है यदि वे अनुशासित हो जाएं, कद काठी मजबूत कर लें और संघर्ष के लिए तैयार हो जाएं तो वे अपनी नियति बदल सकते हैं, भारत पर राज कर सकते हैं और सारी दुनिया फिर उनका लोहा मानने के लिए मजबूर होगी। इस तरह के विचारों का विज्ञानसम्मत ज्ञान से कोई लेना-देना नहीं है। बल्कि इस तरह की बातें अंधविश्वास का हिस्सा हैं।
फासीवादी दृष्टिकोण भारतीय परंपरा में हिंदुओं के अलावा किसी अन्य समुदाय के योगदान को स्वीकार ही नहीं करता और बार-बार यह प्रचार किया जा रहा है कि भारतीय परंपरा में मुसलमानों की विध्वंसक भूमिका रही है। वे लुटेरे और हमलावर रहे हैं। इस तरह के तर्क भारतीय संगीत, दर्शन, स्थापत्य, विज्ञान, समाजविज्ञान, राजनीति, ललित कला आदि के क्षेत्रों में मुसलमानों के योगदान को एकसिरे से खारिज करते हैं और परंपरा के बारे में अंधविश्वास का फासीवादी प्रपंच निर्मित करते हैं।
ये लोग विज्ञान के फौजी इस्तेमाल के पक्ष में हैं किंतु सामाजिक जीवन में विज्ञानसम्मत चेतना और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास के सख्त खिलाफ हैं। सामाजिक जीवन में पोंगापंथ, दंतकथाएं, विज्ञान विरोधी बातें और अंधविश्वास इन्हें पसंद है। आज ये ही ताकतें अंधविश्वास का सबसे ज्यादा प्रचार कर रही हैं। इससे इन्हें अपना सामाजिक-राजनीतिक आधार बढ़ाने में मदद मिली है। इस सबको देखते हुए और भी जरूरी है कि अंधविश्वास के खिलाफ संघर्ष को ज्यादा व्यापक पैमाने पर चलाया जाए।
मुझे समझ में नहीं आता इतना निःसंग होकर आप क्यों यह (उत्कृष्ट ) लेखन कर रहे हैं -ब्लॉगजगत में कई ब्लॉग लोकप्रिय विज्ञान पर है -आप उनका जिक्र कर सकते थे -ब्लोगिंग में लिंक्स देने की भी एक प्रथा है -काहें प्रोफ़ेसर साहब एकला चल रहे हैं?
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