सईद ने कहा आज संगीत उपभोक्तावाद और वस्तुकरण के द्वंद्व में फंस गया है। डेनियल ने इसके जबाव में कहा कि आज हम स्वर संगति को ही खो चुके हैं। जब आप स्वरसंगति को खोते हैं तो संगीत के भी किसी न किसी आयाम को खो देते हैं। यह काम बगैर सद्भाव के नहीं होता।
संगीत की भाषा होती है। उसके बारे में रेशनल आम सहमति होती है। यह आम सहमति पीढ़ियों से चली आ रही है। किंतु आज वह नहीं है। बल्कि उसका अस्तित्व ही खत्म हो गया है। इस संदर्भ में मुझे एक यहूदी चुटकुला याद आ रहा है, 'ऐसा क्यों होता है कि जब किसी यहूदी से सवाल किया जाता है तो वह सवाल का जबाव देने की बजाय पलटकर सवाल करता है। इसका अर्थ है समाधान का अभाव।
समाधान के अभाव में पलटकर सवाल पेश किया जाता है। फलत: आप घूम फिरकर वहीं आ जाते हैं। किंतु तनाव के उसूल का नियम और तनाव से मुक्त तब होते हैं जब स्वर संगति का लोप हो जाता है। ऐसे में आप दूसरे रास्ते निकाल लेते हैं। किसी न किसी तरह और भी कृत्रिम तरीके निकाल लेते हैं। इसका यह अर्थ नहीं है कि संगीत में स्वर नहीं है तो वह अपने अभिव्यक्त नहीं करेगा। बल्कि अनेक श्रेष्ठतम रचनाएं मिल जाएंगी।
संगीत के शास्त्रीययुग में तुम स्वाभाविक व्यवस्था बनाए रखने की उम्मीद रखते थे। पहले जब आप किसी राग को गाते थे तो यह जानते थे इसे किस स्वर में पेश करना है। किंतु जब पहलीबार सिंफनी को पेश किया गया तो इससे लोगों को शॉक लगा,क्योंकि यह सातवें स्वर से शुरू हुआ न कि तीसरे स्वर से। किंतु यह गतिशील शॉक था। यह सद्भावपूर्ण शॉक था। इससे लय को शॉक नहीं लगा।
सईद ने कहा आज हम संगीत का आनंद लेते हैं उसके इतिहास को जाने बगैर। यह आज के संगीत का अन्तर्निहित अलगाव है। हम इच्छित भाव से संगीत के इतिहास से अपने को अलगाते हैं। पैकेज संगीत जिसे आप आए दिन सुनते रहते हैं, इस संगीत की खूबी है कि आप कुछ भी सुनते रहिए। आप जो भी चाहते हैं उसे सुनते रहिए। इसकी संरचना, संदर्भ ,इतिहास और भाषा कुछ भी जानने की जरूरत नहीं है।
सईद ने कहा एक अन्य फिनोमिना नजर आ रहा है हमने समग्रता में देखना बंद कर दिया है। समग्र संरचना को हम नहीं देखते। शिक्षा से लेकर संगीत तक समग्रता के लोप को देखा जा सकता है। समग्रता में न देखने का सबसे ज्यादा दबाव बौध्दिक और सामाजिक स्तर पर देखा जा रहा है। इसकी जगह व्यवहारवाद ने लेली है। दूसरे शब्दों में विशेषज्ञतापूर्ण ज्ञान ने ले ली है। जिसे संबंधित क्षेत्र के विशेषज्ञ ही अच्छी तरह से समझ पाते हैं। ज्योंही आप किसी क्षेत्र विशेष में दाखिल होते हैं,आपको अन्य क्षेत्र के व्यक्ति के साथ संवाद ही नहीं कर पाते।
सईद ने कहा मैं एकबार चिकित्सकों के बीच में व्याख्यान देने गया और मैंने परवर्ती शैली के बारे में व्याख्यान दिया। मुझसे किसी डाक्टर ने कहा ''तुम जानते हो कि तुमने संगीत पर भाषण दिया,साहित्य पर बोला, किंतु हमारी दुनिया में इसे कोई सुनने वाला नहीं है। हमारी दुनिया तो मेडीसिन अथवा नेचुरल साइंस की है।'' मैंने कहा ऐसा क्यों है ? वह बोला '' क्योंकि मैं न्यूरोबायोलॉजिस्ट हूँ,मैं सिर्फ न्यूरोलॉजिस्ट से बात कर सकता हूँ।''
सईद ने कहा कहने का तात्पर्य यह है कि साझा विषयों पर विमर्श के विचार का अंत हो गया है। इस प्रसंग में पहली बात यह है कि हमलोगों की शिक्षा पूरी तरह विशेषज्ञता केन्द्रित है। दूसरा कारण यह है कि ज्ञान के लिए जो फंड मिलता है वह हमेशा विखंडित ज्ञान के लिए मिलता है। ऐसे में लोग ज्यादा से ज्यादा करते हैं कम से कम लेते हैं। विज्ञान के क्षेत्र में संभवत: यह अच्छी बात हो किंतु इस प्रक्रिया के पीछे वैचारिक धुलाई ज्यादा काम कर रही है। आपके पास कोई समस्या है तो लोग कहते हैं यह आपकी समस्या है और इसका समाधान करने वाले मिल जाएंगे। यह हमारी समस्या नहीं है। तुम इसके लिए जिम्मेदार नहीं हो।
अमरीका में खासकर यह अनुभूति पैदा हुई है हमें सारी दुनिया के बारे में जानने की जरूरत नहीं है। समूचे समाज के बारे में जानकारी की जरूरत नहीं है,यह जानना जरूरी नहीं है कि हम किस दिशा में जा रहे हैं, हमारे पर्यावरण ,कला,इतिहास के प्रति सरोकार क्या हैं ,इन सबके बारे में जानने की जरूरत नहीं है।
मसलन् अमरीका में इतिहास उसे मानते हैं जिसे हम भूल चुके हैं। जब आप किसी से कहते हैं कि आप इतिहास में हैं, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि आप इतिहास का हिस्सा हैं। इसका अर्थ है आप विलुप्त का हिस्सा हैं। यही इतिहास का अर्थ है।
आज हमारी शिक्षा इस तरह हो रही है कि हम कहीं बीच में ही खो गए हैं। हमारी शिक्षा में आज जो हो रहा है उसे मैं अच्छी तरह से जानता हूँ। आज युवा छात्र कम से कम जानते हैं। आज उनके बारे में पूर्वकल्पना करना संभव नहीं है। पहले आप पूर्वकल्पना कर सकते थे कि छात्र कम से कम दो भाषा जानता होगा। एक शिक्षक के नाते महसूस करते थे कि वह साहित्य के बारे में जानता होगा। कम से कम अंग्रेजी अथवा फ्रेंच साहित्य के बारे में जानता होगा। उसने कम से कम यह तो पढ़ा ही होगा। जो पढ़ा होगा उसमें फलां-फलां महान लेखकों की रचनाएं तो पढ़ी ही होंगी। आज इस तरह की पूर्वकल्पना नहीं कर सकते। आज बहुत ही सीमित दायरे में प्रयास किए जा रहे हैं। खास दिशा,विशेषज्ञता की दिशा में प्रयास किए जा रहे हैं। इसके कारण समग्र लड़ाई बेहद जटिल हो गयी है। विमर्श अथवा बौध्दिक आदान-प्रदान में बेहद कठिनाईयां आ रही हैं। इसने सामाजिक वातावरण का अभाव पैदा कर दिया है।
सईद ने कहा आज बड़ी रोचक समस्या सामने आ खड़ी हुई है। यह मानवीय लक्ष्य की समस्या है। साहित्य या संगीत हो अथवा अन्य कोई कला रूप हो। आज भिन्नाताओं को वर्चस्व स्थापित किए बगैर संरक्षण देने की जरूरत है। दूसरी ओर पहचान के लिए कोहरेंट व्यक्तित्व निर्मित करने की जरूरत है। हमें भिन्नाताओं को बगैर किसी तरह के वर्चस्व को स्थापित किए संरक्षण देना चाहिए। कायिक तौर पर किसी की पहचान पर वर्चस्व स्थापित किए बगैर सामान्यत: व्यक्तित्व और अस्मिता के विकास को बढ़ावा देना चाहिए। किंतु ऐसा करना आजकल बेहद जटिल हो गया है।
एडवर्ड सईद ने सन् 1989 में संगीत पर तीन व्याख्यान वेलेक लाइब्रेरी व्याख्यानमाला के तहत दिए। इनका आयोजन क्रिटिकल थ्योरी इंस्टीट्यूट,कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय ने किया था। इन व्याख्यानों को सुव्यवस्थित रूप देकर ही कालान्तर में ''म्यूजिकल एलोबरेसनस''(1991) नामक कृति प्रकाशित हुई।
सईद ने इस किताब की भूमिका में लिखा है आज संगीत कारपोरेट अथवा गिल्ड के ऊपर निर्भर है। खासकर पेशेवर संगीत उन पर निर्भर है। इस निर्भरता के कारण स्थिति यह हुई है कि संगीत में यथास्थिति बनी हुई है। कारपोरेट जगत और गिल्ड पर निर्भरता के कारण संगीत जगत में नए विचारों का प्रवेश नहीं हो पा रहा है। वे सीमाबध्द होकर संगीत साधना कर रहे हैं। मैं इस तरह की सीमाबध्दता को खारिज करता हूँ। अथवा मैं इसके महत्वपूर्ण पक्षों को अस्वीकार करता हूँ। मैं विश्लेषण के जरिए यह बताना चाहता हूँ कि वे आलोचनात्मक नजरिए से किन चीजों को नहीं देख रहे हैं। साथ ही यह भी बताना चाहता हूँ कि इस क्षेत्र के जो बेहतरीन स्कॉलर हैं उन्होंने बहुत कम काम किया है।
सईद ने अपने पहले व्याख्यान के आरंभ में रिचर्ड पोइरिर को उध्दृत किया है। उसने ''दि प्रिफाफर्मिंग सेल्फ'' शीर्षक से महत्वपूर्ण लेख लिखा है। जिसमें उसने अंग्रेजी के आधुनिक रचनाकारों का मूल्यांकन किया है। रिचर्ड ने लिखा है प्रिफॉर्मेंस एक तरह से शक्ति का अभ्यास है। कोई भी रचनाकार जब प्रिफार्म करता है तो वह अपने एक्शन को शक्ल प्रदान करता है। प्रिफॉर्मेंस महज घटना नहीं है। अपने एक्शन के जरिए लेखक रेडीएशन की तरह प्रभावित करता है। अपनी तरफ ध्यान खींचता है।
एक अर्सा पहले एडोर्नो ने अपना चर्चित निबंध ''रिग्रेशन ऑफ म्यूजिक'' लिखा था जिसमें श्रोता में निरंतरता, एकाग्रता और ज्ञान के अभाव को रेखांकित किया था। इन तीन चीजों के अभाव के कारण ही श्रोता असली संगीत सुन नहीं पाता। अथवा असली संगीत को समझ नहीं पाता। एडोर्नो ने इस अवस्था के लिए रेडियो और रिकॉर्ड को जिम्मेदार ठहराया । इसके कारण ही लोग संगीत सभाओं में नहीं जाते अथवा जाते भी हैं तो स्वर और संगीत के ज्ञान को अर्जित किए बगैर ही जाते हैं। एडोर्नो की इस धारणा के साथ सईद ने एक बात और जोड़ दी है और वह है प्रिफार्मेंश का पूरी तरह पेशेवर हो जाना। इसके कारण कलाकार और दर्शक अथवा साधारण श्रोता के बीच में व्यापक अंतराल पैदा हो गया है।
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