नकल की प्रवृत्ति को पूंजीवाद का प्रधान गुण माना जाता है। इस अर्थ में पूंजीवाद अपने विकास के साथ-साथ सामंती और पूर्व सामंती कला रूपों और मूल्यबोध को बरकरार रखता है।
कलाओं में अंधानुकरण आधुनिक काल में नकल में रूपांतरित कर लेता है। इससे जहां कभी न खत्म होने वाले मनोरंजन की सृष्टि करने में मदद मिलती है वहीं दूसरी ओर अंधानुकरण के एटीटयूट्स, रवैए और संस्कार का विकास होता है। कलाओं से यथार्थ गायब हो जाता है। उसकी जगह काल्पनिक यथार्थ या आभासी यथार्थ ले लेता है।
इसी तरह अंधविश्वास या नकल की संस्कृति का परजीवीपन और पेटूपन की संस्कृति से गहरा संबंध है। इसका स्वतंत्राता के विचार से विरोध है, यह उन तमाम विचारों को अस्वीकार करती है जो नकल या अंधानुकरण के विरोधी हैं।
पूंजीवाद अपनी सामान्य प्रकृति के अनुसार अंधविश्वासों को भी वस्तु के रूप में बदल देता है, उन्हें संस्थागत रूप दे देता है। अंधविश्वासों को कामुकता एवं रोमांस के साथ प्रस्तुत करता है और यह कार्य फिल्म, टी.वी. और वीडियो फिल्मों के संगठित औद्योगिक माल के उत्पादन के रूप में करता है।
कामुकता, पोर्नोग्राफी, अतिलयात्मक गीत और संगीत तथा नकल के आधार पर निर्मित कलाएं जितनी ज्यादा बनेंगी उतना ही ज्यादा अंधविश्वास भी बढ़ेगा। उतनी ही ज्यादा सामाजिक असुरक्षा, भेदभाव और तनाव की सृष्टि होगी। इसका प्रधान कारण यह है कि आज अंधविश्वास को मासकल्चर ने अपना सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा बना लिया है।
अंधविश्वास की रणनीति और धार्मिक संप्रेषण की शैलियों को अपनाकर विज्ञापन, फिल्म और टी.वी. उद्योग तेजी से अपना विकास कर रहा है। पहले अंधविश्वास के माध्यम से राज्य अपने लिए जहां एक ओर धन जुटाता था वहीं दूसरी ओर जनता के दिलो-दिमाग पर शासन करता था। आज भी इस स्थिति में बुनियादी फर्क नहीं आया है। सिर्फ तरीका बदला है और इस कार्य में परंपरागत अंधविश्वास प्रचारकों के अलावा जो नया तत्व आकर जुड़ा वह है पूंजीपति वर्ग, बाजार और संस्कृति उद्योग।
अब अंधानुकरण की प्रवृत्ति का बाजार की शक्तियां खुलकर अपने मुनाफों के विस्तार के लिए इस्तेमाल कर रही हैं। अंधानुकरण के लिए जरूरी है कि स्टीरियोटाइप प्रस्तुतियों पर जोर दिया जाए। इनमें खर्च कम और मुनाफा ज्यादा होता है और प्रस्तुतियां जल्दी ही समझ में आ जाती हैं। इस तरह की प्रस्तुतियां यथार्थ के निषेध और स्वतंत्र सृजन या मौलिक सृजन के निषेध को व्यक्त करती हैं।
वे ऐसे उन्माद, आनंद और मनोरंजन की सृष्टि करती हैं जो प्रभेदों का सृजन करता है। ध्यान रहे, प्रभेद वहीं पैदा होते हैं जहां भय हो, अंधविश्वास हो या जहां एक-दूसरे को धोखा देकर हराने का प्रयत्न किया जाता है। वहां परस्पर व्यवहार में सहज भाव नहीं होता।
अंधविश्वास मूलत: ऐसी स्वाधीनता की हिमायत करते हैं जो मनुष्य को पीड़ित करती है। यह संबंधहीन स्वाधीनता है। यह बुनियादी तौर पर नकारात्मक स्वाधीनता है। अंधविश्वास तरह-तरह के धार्मिक उपकरणों को जमा करने और धार्मिक उपकरणों के माध्यम से अंधविश्वासों से राहत पाने का रास्ता सुझाते हैं। रवींद्रनाथ टैगोर के शब्दों में, 'मानव जीवन में जहां अभाव है वहीं उपकरण जमा होते हैं। ... इस अभाव और उपकरण के पक्ष मेंर् ईष्या है, द्वेष है, वहां दीवार है, पहरेदार है, वहां व्यक्ति अपना प्रभाव बढ़ाना चाहता है और दूसरों पर आघात करना चाहता है।'
अंधविश्वास, पुनर्जन्म और कर्मफल के सिध्दांत से मुक्ति पाने के लिए जरूरी है कि तर्क और विमर्श के पुराने पैराडाइम को बदलें। पुराने पैराडाइम से जुड़े होने के कारण हम प्रभावी ढंग से अंधविश्वास का विरोध नहीं कर पा रहे हैं। तर्क के पैराडाइम को बदलते ही हम विकल्प की दिशा में बढ़ जाएंगे। पैराडाइम को बदलते ही विचारों में मूलगामी परिवर्तन आने लगेगा।
आम तौर पर हमारे बहुत से बुध्दिजीवी पुराने पैराडाइम को बनाए रखकर तर्कों में परिवर्तन कर लेते हैं। ध्यान रहे, अंधविश्वास को तर्क और विवेक से अपदस्थ नहीं किया जा सकता। जब तक वैज्ञानिक दृष्टिकोण के आधार पर नया पैराडाइम निर्मित नहीं किया जाता तब तक अंधविश्वास को अपदस्थ करना मुश्किल है।
अंधविश्वास का जबाव तर्क नहीं विज्ञान है। जो लोक तर्क में विश्वास करते हैं वे पैराडाइम बदलते ही असली शक्ल में सामने आ जाते हैं। ध्यान रहे, जब पैराडाइम बदलते हैं तो उसके साथ ही, सारी दुनिया भी बदल जाती है। कहने का तात्पर्य यह है कि पैराडाइम बदलते ही हमारा विश्व दृष्टिकोण बदल जाता है, नए का जन्म होता है, वैज्ञानिक चेतना के विकास की संभावनाएं प्रबल हो जाती हैं। यही वह बिंदु है जिस पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है।
अंधविश्वास का जबाव तर्क से देंगे तो अंतत: पराजय हाथ लगेगी यदि पैराडाइम बदलकर विज्ञानसम्मत चेतना से इसका जबाव देंगे तो अंधविश्वास को अपदस्थ कर पाएंगे। हमारे रैनेसां के चिंतकों ने अंधविश्वास का प्रत्युत्तर तर्क से देने की चेष्टा की और इसका अंतत: परिणाम यह निकला कि हम आज अंधविश्वास से संघर्ष में बहुत पीछे चले गए हैं। तर्क को आज अंधविश्वास ने आत्मसात कर लिया है। अंधविश्वास का तर्क से बैर नहीं है उसकी लड़ाई तो विज्ञानसम्मत चेतना के साथ है।
अंधविश्वास के कारण बौध्दिक अधकचरापन पैदा होता है। इन दिनों विज्ञान और विज्ञानसम्मत चेतना के बजाय मिथकीय चेतना पर जोर दिया जा रहा है। आज विज्ञान को सत्य की खोज के काम से हटाकर व्यावहारिक उपयोग, उद्योग और युध्द के साजो-सामान के निर्माण में लगा दिया गया है। यहां तक कि धर्म और विज्ञान में सहसंबंध स्थापित करने की कोशिशें चल रही हैं। अब विज्ञान को पूंजीवाद ने महज एक चिंतन का रूप या शुध्द विज्ञान बना दिया है या उपयोगी रूप तक सीमित कर दिया है।
एक जमाना था विज्ञान पर विश्वास था। किंतु एक अर्से के बाद विज्ञान के प्रति संशय का भाव पैदा हुआ। शुरू में विज्ञान के प्रति प्रशंसाभाव था। बाद में मोहभंग हुआ और विज्ञान के प्रति संशय भाव पैदा हुआ। आज पूंजीवादी वैज्ञानिक निराश और हताश हैं कि क्या करें? वे पीछे मुड़ नहीं सकते। आगे किस तरह बढ़ना है? बढ़ गए तो कहां पहुचेंगे? आज विज्ञान के पूंजीवादी पक्षधर परेशान हैं कि विज्ञान के इतने विराट जुलूस को कहां ले जाएं? इसके कारण विज्ञान और विज्ञानसम्मत चेतना के प्रति अविश्वास और गहरा हुआ है।
आम लोगों से लेकर बुध्दिजीवियों तक संशयवाद बढ़ा है। इसके कारण पुन: एकसिरे से अंधविश्वास और आध्यात्मिकता की बाढ़ आ गई है। कुछ लोग मानव स्वभाव की उन्नतिशीलता को लेकर कुछ भी होता न देखकर हताशा में डूबे जा रहे हैं और विज्ञान को तिलांजलि दे रहे हैं। कुछ ऐसे भी लोग हैं जो पहले से ही यह मानकर चल रहे हैं कि विज्ञान की सामाजिक परिणतियों पर कोई भी विचार-विमर्श हानिकर होने को बाध्य है।
कुछ ऐसे लोग भी हैं जो विज्ञान के व्यावहारिक उपयोग के अलावा और किसी भूमिका पर सोचने के लिए तैयार नहीं हैं। कुछ लोगों के लिए विज्ञान का विनाश के अलावा और किसी काम में उपयोग संभव नहीं है। कुछ के लिए यह संपत्तिा और मुनाफों के अंबार खड़ा कर देने का साधन मात्रा है। यह सही है कि पूंजीवाद समाजों में विज्ञान का सही उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा रहा। यह भी सच है कि वैज्ञानिक वेतनभोगी कर्मचारी होकर रह गए हैं।
आज वैज्ञानिक या तो किसी विश्वविद्यालय में काम करता है या किसी उद्योग या संस्था में काम करता है। निजी साधनों से वैज्ञानिक अनुसंधान करने वाले वैज्ञानिक अब दुर्लभ हो गए हैं। जाहिरा तौर पर वैज्ञानिक जहां काम करता है वहां के हितों की उसे सबसे पहले पूर्ति करनी होगी। यही ्रूबदु है जहां पर हमें विज्ञान की सामाजिक भूमिका पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। यदि विज्ञान बंदी है और वैज्ञानिक खरीदा जा चुका है तब अंधविश्वास के खिलाफ विज्ञान और विज्ञानसम्मत चेतना की भूमिका शून्य के बराबर होगी।
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