शुक्रवार, 22 जनवरी 2010

फिलीस्तीन मुक्ति सप्ताह - फिलीस्तीन के बिना अधूरा है प्राच्यवाद - सुधा सिंह






आलोचकगण जब 'ओरिएण्टलिज्म' पर विचार करते हैं तो यह भूल जाते हैं कि आखिरकार सईद को यह किताब लिखने की जरूरत क्यों पड़ी ?
     यह किताब जब लिखी गयी थी तब सारी दुनिया में नए सिरे से नव्य-औपनिवेशिकता और नव्य-आर्थिक उदारतावाद की मुहिम शुरू हो चुकी थी। इस मुहिम का लक्ष्य नए किस्म की वैचारिक गुलामी था। द्वितीय विश्वयुध्दोत्तार दौर में मध्य-पूर्व से इसका सिलसिला आरंभ हुआ था और आज वह अपनी पकड़ में सारी दुनिया को ले चुका है। यही वह प्रस्थान-बिंदु है जिसके कारण 'ओरिण्टलिज्म' का संदर्भ-सूत्र मध्यपूर्व और साम्राज्यवाद विरोध है। 'ओरिण्टलिज्म' लिखने का मकसद विचार-विमर्श करना मात्र नहीं है बल्कि साम्राज्यवाद के वैचारिक ताने-बाने से कैसे मुक्त हुआ जाए,उसके रास्ते तलाशना भी है। युध्दोत्तार दौर में साम्राज्यवाद के खिलाफ विश्वव्यापी चेतना पैदा करने में इस कृति को केन्द्रीय भूमिका है। यह किताब साम्राज्यवाद निर्मित विचारों ,केटेगरी,संस्थान, प्रक्रिया और प्रभाव का समग्रता में मूल्यांकन पेश करती है। इस किताब का लक्ष्य है साम्राज्यवाद के द्वारा निर्मित केटेगरी ,अवधारणाओं आदि को चुनौती देना और उनके विकल्पों की खोज करना। उल्लेखनीय है कि नई समीक्षा,रूपवादी समीक्षा,संरचनावाद,कांग्रेस फोर कल्चरल फ्रीडम आदि के माध्यम से संस्कृति,साहित्य और कला जगत में जिस तरह का अ-राजनीतिक,जनतंत्र विरोधी और वर्चस्ववादी माहौल बनाया गया था उसे विश्वस्तर पर अपदस्थ करने में इस किताब की केन्द्रीय भूमिका है।
         'ओरिण्टलिज्म' को पढ़ते समय अनेक बार यही लगता है कि 'यह छूट गया' ,मेरी बात भी कह दी जाती अथवा मेरा संदर्भ होता तो अच्छा होता। यह अनुभूति स्वयं इस किताब की सबसे बड़ी ताकत है। मानविकी और समाजविज्ञान में साम्राज्यवादी विचारों के वर्चस्व को इस अकेली किताब ने जितनी बड़ी चुनौती पेश की,वैसे चुनौती माक्र्स रचित 'कम्युनिस्ट घोषणापत्र'' के बाद अन्य कोई किताब पैदा नहीं कर पायी है। जिस तरह पश्चिम से लेकर पूरब तक सभी विचारधारा के लोगों को 'कम्युनिस्ट घोषणापत्र '' ने आकर्षित किया, उसे मानव मुक्ति का महापाठ बनाया ठीक वैसे ही 'ओरिण्टलिज्म' को साम्राज्वाद विरोधी मुक्तिकामी ताकतों ने अपना महापाठ बनाया। माक्र्स ने मजदूरों और समूचे समाज की मुक्ति के सपने को केन्द्र में रखकर पूंजीवाद की तीखी आलोचना की और समाजवाद का विकल्प पेश किया। वहीं सईद ने 'ओरिण्टलिज्म' के जरिए साम्राज्यवाद से मुक्ति और समतावादी जनतंत्र का सपना पेश किया। फर्क यह है माक्र्स पूंजीवाद की जगह समाजवाद चाहिए था, जबकि सईद को पूंजीवाद में ही गैर-साम्राजी जनतांत्रिक विकल्प चाहिए। आत्मनिर्भर संप्रभु राष्ट्र और जनतांत्रिक समाज व्यवस्था चाहिए।
   सईद ने जब प्राच्यवाद पर लिखा तो उस पर व्यापक प्रतिक्रिया व्यक्त हुई। सईद ने 'पश्चिम' और 'प्राच्य' की एक ही केटेगरी बनायी, जबकि सच यह है कि 'पश्चिम' एक नहीं अनेक हैं, उसी तरह 'प्राच्य' एक नहीं अनेक हैं। इन दोनों के बीच के अन्तर्विरोधों को सामान्यीकरणों के सहारे नहीं समझा जा सकता। समय-समय पर इनके अंतर्विरोध के मुख्य बिंदु में भी बदलाव होता रहा है। स्वयं सईद ने माना है कि प्राच्यविदों ने काफी काम किया है उन्होंने भाषा के नियम बनाए,डिक्शनरी,मृतयुगों को जिंदा किया, सैंकडों किताबों का अनुवाद किया, सीखने लायक बहुत कुछ निर्मित किया।
      'ओरिएण्टलिज्म'  में शुरू से अंत तक सईद का प्राच्यवादी ज्ञान को लेकर एक तरह संदेह का भाव  है। वे इस ज्ञान को सत्ता के आईने में रखकर देखते हैं। सत्ता के संबंधों के साथ जोड़कर देखते हैं। सवाल यह है क्या यह बात भाषा के नियमों अथवा संहिता पर भी लागू होती है ? क्या यह बात अनुदित पाठ पर भी लागू होती है ? सवाल यह है कि किस तरह का ज्ञान साम्राज्य के संपर्क के कारण दुरंगी भूमिका अदा करता है ? उसे हम स्वीकार करें या न करें ? प्राच्यवाद का आम विमर्श के रूपों और प्रस्तुतियों के साथ किस तरह का संबंध है ? व्यक्तिगत का प्राच्यवाद से क्या संबंध है ? सईद ने जब प्राच्यवाद के बारे में लिखना शुरू किया था तो कहा था कि प्राच्यवाद उन्माद है। प्राच्यवाद एटीट्यूट यानी संस्कार है। यह मूलत:''इम्पीरिकल'' विरोधी है। सवाल यह है ये तीनों बातें सभी प्राच्यविदों पर लागू होती हैं अथवा कुछ पर ही लागू होती हैं।
      'ओरिएण्टलिज्म' के पन्द्रह साल बाद 'कल्चर एंड इम्पीरियलिज्म' नामक किताब आयी और इस किताब में सईद ने व्यापक तौर पर यह स्थापित किया कि ज्ञान और सत्ताा का गहरा रिश्ता होता है। इसकी व्याख्या के क्रम में संस्कृति और साम्राज्य के अन्तस्संबंध पर सईद ने नयी धारणाएं पेश कीं, कुछ लोगों को इनमें स्पष्टता का अभाव भी नजर आता है। समग्रता में संस्कृति और साम्राज्य के अन्तस्संबंध की धारणा उलझनें ज्यादा पैदा करती है। इसमें भी सामान्यीकरण्ा के फार्मूलों को सईद ने लागू किया है। सईद के लेखन की विशेषता है कि उन्होंने बार-बार प्राच्यवाद पर ही लिखा है। सवाल यह पैदा होता है कि प्राच्यवाद के विभिन्ना विमर्शों को पेश करते हुए सईद आखिरकार क्या कहना चाहते हैं ? वह किस तरह के विचारों के इतिहास को पेश करना चाहते हैं ?प्राच्यवाद के विमर्श में कौन सा विचारक सबसे ज्यादा प्रभावित करता है और किन लोगों को प्रभावित करता है ? वर्चस्वशाली अभिजन कौन है ?राज्य के संस्थान किस तरह के हैं ? जनता की राय क्या है ? ये सवाल हैं जिन पर सईद के यहां साफ नजरिया दिखाई नहीं देता। यह भी स्पष्ट नहीं होता कि विभिन्ना विधा रूपों का आपस में किस तरह का संबंध था ? अपने युग के साथ किस तरह का संबंध था ? अथवा विभिन्ना युगों के साथ विधा का किस तरह का संबंध था ? विभिन्ना संस्कृतियों और इतिहास के बीच किस तरह का संबंध था ? विभिन्ना साम्राज्यवादी देशों का अपने उपनिवेशों के साथ किस तरह का संबंध था ?
     सईद के ओरिएण्टलिज्म में अनेक महत्वपूर्ण चीजें अनुपस्थिति हैं। मसलन् इसमें किपलिंग के मात्र पांच संदर्भ हैं। फ्रांसीसी भाषा विज्ञानियों और ब्रिटिश घुमंतू बौध्दिकों ,जर्मन प्राच्यविदों का कहीं पर भी जिक्र नहीं है। इसके अलावा पापुलर कल्चर के बारे में एकसिरे से मूल्यांकन गायब हैं। 19वीं और बीसवीं सदी के उत्तारार्ध्द के प्रेस को लेकर कोई समझ नजर नहीं आती। सईद के एकांगी नजरिए का ही परिणाम है कि उन्हें पश्चिम की आक्रामकता नजर आती है किंतु पूरब की आक्रामकता नजर नहीं आती। क्या यह संभव है कि मध्ययुग के पूरब के हमलावरों को भूल जाएं ? सईद के अनुसार प्राच्य पीड़ित रहा है पश्चिम के द्वारा। पश्चिम का वर्चस्व रहा है। सवाल यह है कि पश्चिम का जिस जमाने में वर्चस्व था उस समय पश्चिम का प्रतिरोध हो रहा था या नहीं ? उस प्रतिरोध की आवाज को खोजने में सईद असमर्थ रहे हैं। सईद की प्राच्यवाद संबंधी प्रस्तुति यही संदेश देती है गैर पश्चिमी जगत पराजित हो रहा है अथवा चुप है। वे यह बात कहीं पर भी रेखांकित नहीं करते कि गैर पश्चिमी समाज के प्रतिरोध और प्रतिवाद के क्या रूप रहे हैं ? इन समाजों के आंतरिक क्या कारण अथवा अंतर्विरोध रहे हैं ? साम्राज्यवाद का फिनोमिना बहुत बाद के वर्षों में आया है इसे मध्यकाल में अथवा मध्यकालीन मानसिकताओं और मूल्यों की जड़ों में खोजना मूर्खता होगी। यह सच है कि साम्राज्यवाद ने मध्यकालीन रूढ़ियों का अपने पक्ष में इस्तेमाल किया है। किंतु प्रत्येक देश में उसके आंतरिक ताने-बाने पर नजर डालने की जरूरत है ,आंतरिक अन्तर्विरोधों और पहले से चली आ रही मूल्य-संरचनाओं और संस्कृति के बीच के द्वंद्वात्मक संबंध की जटिलताओं को खोला जाना चाहिए। सईद के नजरिए में असल कमजोरी यहीं पर है। सईद की सबसे बड़ी कमजोरी है कि उन्होंने सारी बीमारियों की जड़ साम्राज्यवाद को बना दिया है। काले और गोरे के भेद को बना दिया है। आधुनिककाल में सामाजिक,सांस्कृतिक अध्ययन में साम्राज्यवाद समस्या का एक बड़ा बिंदु है किंतु इसे सर्वस्व नहीं समझना चाहिए। आज भी मध्यकालीन प्रेतबाधाएं और मूल्य हैं जो पूरब के देशों में तबाही मचा रहे हैं। कायदे से देशज समस्या की आंतरिक सांस्कृतिक परतों का मूल्यांकन किया जाना चाहिए।  
      'ओरिएण्टलिज्म' में फिलीस्तीन व्यापक संदर्भ में दाखिल होता है। अरब,इस्लाम,पूरब आदि के प्रति साम्राज्यवाद के पूर्वाग्रहों और घृणा के वे अंतिम पीड़ितों में से एक हैं। साम्राज्यवाद के पूर्वाग्रह सिलेसिलेबार,योजनाबध्द और सुसंगत रूप में काम करते हैं। उन्हें ही सईद ने 'ओरिएण्टलिज्म' की संज्ञा दी है। इस किताब का इसलिए भी महत्व है कि इसने प्राच्यवाद की परिभाषा और दायरा भी बदला है। पहले प्राच्य अध्ययन की शाखाएं यूरोपीय परंपरा का अध्ययन करती रही हैं। खासकर यूरोपीय इतिहासकारों और कला संग्रहकत्तर्ााओं का अध्ययन करती रही हैं।
         सईद का सबसे बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने प्राच्यवाद को 'भेद की विचारधारा' के आधार पर व्याख्यायित किया है। यह ऐसी विचारधारा है जो पूरब पर अपने आधिपत्य को हर तरह से वैध ठहराने की कोशिश करती रही है। प्राच्यवाद एक तरह से प्रच्छन्ना नस्लवाद है जो अपनी प्रतिगामिता और निरंतरता को होमर के समय से लेकर आज तक बनाए हुए है। खासकर इनलाइटेनमेंट से आज तक अपनी निरंतरता बनाए हुए है। सईद के अनुसार 'प्रत्येक यूरोपीय अपने को प्राच्यविद ,नस्लवादी,साम्राज्यवादी और कुल मिलाकर जातीयकेन्द्रिक मानता है।'' अपने तर्क की पुष्टि के लिए सईद ने व्यापक परिप्रेक्ष्य में विभिन्ना विधा रूपों में काम करने वाले बौध्दिकों के संदर्भ का इस्तेमाल किया है। ये सारे संदर्भ और विधा रूप मिलकर एक ही विमर्श तैयार करते हैं जिसे हम प्राच्यवाद के नाम से जानते हैं। ज्ञान की विभिन्ना शाखाओं के पाठ का इस्तेमाल करते हुए सईद ने इन पाठों के बीच के अन्तर्सबंधों का भी खुलासा किया है। विभिन्ना शाखाओं के पाठ मिलकर किस तरह प्राच्यवाद का पाठ तैयार करते हैं और किस तरह यह प्रक्रिया प्रच्छन्ना तरीके से हमारी चेतना में प्रवाहित होती रहती है और किस तरह साम्राज्यवादी पूर्वाग्रह हमारे बौध्दिक चिन्तन और संस्कृति में घुस आए हैं, इन सब पहलुओं पर 'ओण्टिलिज्म' में प्रकाश ड़ाला गया है।
सईद के 'ओरिएण्टलिज्म' संबंधी विवेचन की मूल चिन्ता प्राच्यवाद को समग्रता में उद्धाटित करने की है। वे प्राच्यवाद के संभावित दायरों का भी खुलासा करते हैं। साथ ही प्राच्यवादी कठमुल्लेपन को निशाना बनाते हैं। प्राच्यवादी कठमुल्लापन कविता,कहानी,उपन्यास आदि के जरिए साधारण जनता के बीच प्रवाहित होता रहा है। प्राच्यवादी चिन्तकों ने अपनी एक खास किस्म की पहचान बनायी हुई है। वे अपने को खोजी, सत्यान्वेषक के रूप में पेश करते रहे हैं। सईद उनके इसी पाखण्डी रूप को उद्धाटित करते हैं। सईद ने लिखा है कि प्राच्यविद वे लोग हैं जो पश्चिम के श्रेष्ठत्व को किसी न किसी रूप में पेश करते हैं उसकी वकालत करते हैं। ये साम्राज्यवादी सत्ता के खेल का हिस्सा हैं। इस प्राच्यवादी मानसिकता के लेखक और बुध्दिजीवी अरब और मुस्लिम जगत में साम्राज्यवाद के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए जाने-अनजाने मदद करते रहे हैं।  इससे तीसरी दुनिया के देशों के ज्ञान को सत्ता को प्रदूषित करने में सफलता मिली है। सत्ता के प्रदूषण से बचने का क्या उपाय है ? सईद ने सन् 1981 में लिखा '' मैं सोचता हूँ कि ज्ञान को गैर-विशेषज्ञों के लिए खोल देना चाहिए।''

( लेखिका- सुधा सिंह , एसोसिएट प्रोफेसर , हिन्दी  विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय , दिल्ली )
  




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