(हैती की प्राकृतिक आपदा की शिकार जनता के लिए सहायता एकत्रित करते फिलीस्तीनी लोग )
जो लोग मुक्ति के लिए संघर्ष करते हैं वे खुदगर्ज नहीं होते। फिलीस्तीनियों का स्वभाव भी कुछ ऐसा ही है उनमें अपने वतन को पाने की जितनी चाह है उससे भी ज्यादा गहरी सहानुभूति दूसरों के प्रति है। बीबीसी लंदन ने 19जनवरी 2010 को खबर दी कि गाजा में बाढ़ आ गयी है। बाढ़ से व्यापक क्षति होने का अनुमान है। जिस समय बाढ़ आयी उसी समय जबर्दस्त बारिश भी हुई। सैंकड़ों परिवार इससे प्रभावित हुए हैं।
बाढ़ और बारिस ने इतनी व्यापक तबाही मचायी कि गाजापट्टी में आपात्काल की घोषणा करनी पड़ी। समूचे इलाके में पानी भर गया। यहां तक कि पशु वगैरह भी पानी में ही फंसे हुए हैं, घरों ,खेतों और और सड़कों पर पानी भरा हुआ है। बाढ के कारण सड़कें और पुल नष्ट हो गए हैं।गाजा शहर का दक्षिणी भाग से संबंध कट गया है।
गाजा में 27 दिसम्बर 2008 से आरंभ हुए 3 सप्ताहव्यापी युद्ध में 1500 से ज्यादा फिलीस्तीनी मारे गए। इनमें 252 बच्चे मारे गए और आधे से ज्यादा नागरिक मारे गए। इसके अलावा बड़े पैमाने पर घर, बिजनेस,और इंफ्रास्ट्रक्चर नष्ट हो गया। दूसरी ओर फिलीस्तीनी फायरिंग से 9 इस्राइली,जिनमें 3 नागरिक मारे गए। इस्राइल की संपत्ति का कोई नुकसान नहीं हुआ। पिछले एक साल से इस्राइल के द्वारा गाजा की नाकेबंदी और पाबंदी चल रही है। इसके कारण फिलीस्तीनी जनता की व्यापक क्षति हुई है।
गाजा की इस्राइल द्वारा नाकेबंदी का एक साल पूरा होने पर हाल ही में एक किताब आयी है जिसका शीर्षक है My Father Was A Freedom Fighter: Gaza’s Untold Story । लेखक रमजी बरौद ने बड़े ही प्रभावशाली ढ़ंग से गाजा की तबाही का वर्णन किया है। गाजा में किस तरह क्रांतिकारी माताएं, पिता और बच्चे समूचे जीवन को मानवीय संवेदनशीलता और जोश से भरे हुए हैं। किस तरह घरों से खदेड़कर फिलीस्तीनियों को शरणार्थी शिविरों में भेजा गया और वहां पर उन्हें नारकीय जीवन जीने के लिए मजबूर किया जा रहा है। शरणार्थी शिविरों से अपनी जान जोखिम में डालकर फिलीस्तीनी युवा मुक्ति संग्राम के लिए हथियार उठाने के लिए मजबूर किए जा रहे हैं।
गाजा में एक तरफ इस्राइली आतंक का तांडव चल रहा है और फिलीस्तीनी जनता बहादुरी के साथ उसका सामना कर रही है। दूसरी ओर फिलीस्तीनी जनता ने मानवीय एकता की शानदार मिसाल कायम करते हुए हैती में प्राकृतिक आपदा के शिकार लोगों के प्रति समर्थन व्यक्त करते हुए एक समारोह का हाल ही में आयोजन किया।
इस मौके पर फिलीस्तीन के सांसद जमाल अल खुदरी ने कहा कि हम लोग मनुष्यकृत तबाही के शिकार हैं लेकिन हम हैती के लोगों के बहाने यह संदेश देना चाहते हैं कि प्राकृतिक आपदा के शिकार हैती के नागरिकों के लिए यत्किंचित सहायता राशि गाजा की पीडित जनता भेज रही है। यह सहायता राशि इस बात का संकेत भी है कि गाजा के पीडितों में मानवीय एकता बची है।
गाजा में आम लोगों में हैती की जनता के प्रति उत्साह देखने लायक था, साधारण लोग अपने घरों से खाने का सामान ,कपड़े आदि लेकर जा रहे थे और गाजा में रेडक्रास के आफिस जाकर जमा कर रहे थे।
उल्लेखनीय है कि गाजा की 15 लाख आबादी में 80 प्रतिशत आबादी बाहर से आने वाली खाद्य सहायता पर आश्रित है। उद्योग बंद हैं। सारी जनता बेकार है। ऐसी दयनीय अवस्था में हैती की जनता के लिए प्रतीकात्मक सहायता राशि एकत्रित करना मानवीय एकता की अविस्मरणीय मिसाल ही कही जाएगी।
फिलीस्तीन जनता के कष्टों और मानवीयता के आपको बहुराष्ट्रीय मीडिया में कहीं पर भी नजारे देखने को नहीं मिलेंगे। इस समस्या को गंभीरता से समझने की जरुरत है।
एडवर्ड सईद ने ''कवरिंग इस्लाम''(1997) में विस्तार से भूमंडलीय माध्यमों की इस्लाम एवं मुसलमान संबंधी प्रस्तुतियों का विश्लेषण किया है।सईद का मानना है भूमंडलीय माध्यम ज्यादातर समय इस्लामिक समाज का विवेचन करते समय सिर्फ इस्लाम धर्म पर केन्द्रित कार्यक्रम ही पेश करते हैं।इनमें धर्म और संस्कृति का फ़र्क नजर नहीं आता। भूमंडलीय माध्यमों की प्रस्तुतियों से लगता है कि इस्लामिक समाज में संस्कृति का कहीं पर भी अस्तित्व ही नहीं है।इस्लाम बर्बर धर्म है। इस तरह का दृष्टिकोण पश्चिमी देशों के बारे में नहीं मिलेगा।ब्रिटेन और अमरीका के बारे में यह नहीं कहा जाता कि ये ईसाई देश हैं। इनके समाज को ईसाई समाज नहीं कहा जाता।जबकि इन दोनों देशों की अधिकांश जनता ईसाई मतानुयायी है।
भूमंडलीय माध्यम निरंतर यह प्रचार करते रहते हैं कि इस्लाम धर्म ,पश्चिम का विरोधी है।ईसाईयत का विरोधी है।अमरीका का विरोधी है।सभी मुसलमान पश्चिम के विचारों से घृणा करते हैं।सच्चाई इसके विपरीत है।मध्य-पूर्व के देशों का अमरीका विरोध बुनियादी तौर पर अमरीका-इस्राइल की विस्तारवादी एवं आतंकवादी मध्य-पूर्व नीति के गर्भ से उपजा है।अमरीका के विरोध के राजनीतिक कारण हैं न कि धार्मिक कारण।
एडवर्ड सईद का मानना है 'इस्लामिक जगत' जैसी कोटि निर्मित नहीं की जा सकती।मध्य-पूर्व के देशों की सार्वभौम राष्ट्र के रुप में पहचान है।प्रत्येक राष्ट्र की समस्याएं और प्राथमिकताएं अलग-अलग हैं।यहाँ तक कि जातीय ,सांस्कृतिक और भाषायी परंपराएं अलग-अलग हैं।अत: सिर्फ इस्लाम का मतानुयायी होने के कारण इन्हें 'इस्लामिक जगत' जैसी किसी कोटि में 'पश्चिमी जगत' की तर्ज पर वर्गीकृत नहीं किया जा सकता।
ऐतिहासिक दृष्टिकोण देखें तो पाएंगे कि भूमंडलीय माध्यमों का मध्य-पूर्व एवं मुस्लिम जगत की खबरों की ओर सन् 1960 के बाद ध्यान गया।इसी दौर में अरब-इस्राइल संघर्ष शुरु हुआ।अमरीकी हितों को खतरा पैदा हुआ।तेल उत्पादक देशों के संगठन'ओपेक' ने कवश्व राजनीति में अपनी विशिष्ट पहचान बनानी शुरु की।तेल उत्पादक देश अपनी ताकत का एहसास कराना चाहते थे वहीं पर दूसरी ओर विश्व स्तर पर तेल संकट पैदा हुआ।ऐसी स्थिति में अमरीका का मध्य-पूर्व में हस्तक्षेप शुरु हुआ।अमरीकी हस्तक्षेप की वैधता बनाए रखने और मध्य-पूर्व के संकट को 'सतत संकट' के रुप में बनाए रखने के उद्देश्य से भूमंडलीय माध्यमों का इस्तेमाल किया गया।यही वह दौर है जब भूमंडलीय माध्यमों से इस्लाम धर्म और मुसलमानों के खिलाफ घृणा भरा प्रचार अभियान शुरु किया गया। माध्यमों से यह स्थापित करने की कोशिश की गई कि मध्य-पूर्व के संकट के जनक मुसलमान हैं। जबकि सच्चाई यह है कि मध्य-पूर्व का संकट इस्राइल की विस्तारवादी-आतंकवादी गतिविधियों एवं अमरीका की मध्य-पूर्व नीति का परिणाम है।
सईद ने लिखा है पश्चिमी जगत में इस्लाम के बारे में सही ढ़ंग़ से बताने वाले नहीं मिलेंगे।अकादमिक एवं माध्यम जगत में इस्लामिक समाज के बारे में बताने वालों का अभाव है।
भूमंडलीय माध्यमों के इस्लाम विरोध की यह पराकाष्ठा है कि जो मुस्लिम राष्ट्र अमरीका समर्थक हैं उन्हें भी ये माध्यम पश्चिमी देशों की जमात में शामिल नहीं करते।यहाँ तक कि ईरान के शाह रजा पहलवी को जो घनघोर कम्युनिस्ट विरोधी था और अमरीकापरस्त था,बुर्जुआ संस्कार एवं जीवन शैली का प्रतीक था,उसे भी पश्चिम ने अपनी जमात में शामिल नहीं किया।इसके विपरीत अरब-इस्राइल विवाद में इस्राइल को हमेशा पश्चिमी जमात का अंग माना गया और अमरीकी दृष्टिकोण व्यक्त करने वाले राष्ट्र के रुप में प्रस्तुत किया गया।
आमतौर पर इस्राइल के धार्मिक चरित्र को छिपाया गया। जबकि इस्राइल में धार्मिक तत्ववाद की जड़ें अरब देशों से ज्यादा गहरी हैं।इस्राइल का धार्मिक तत्ववाद ज्यादा कट्टर और हिंसक है।आमतौर पर लोग यह भूल जाते हैं कि गाजापट्टी के कब्जा किए गए इलाकों में उन्हीं लोगों को बसाया गया जो धार्मिक तौर पर यहूदी कट्टरपंथी हैं।इन कट्टरपंथियों को अरबों की जमीन पर बसाने का काम इस्राइल की लेबर सरकार ने किया, जिसका तथाकथित 'धर्मनिरपेक्ष' चरित्र था।इतने बड़े घटनाक्रम के बाद भी भूमंडलीय प्रेस यह प्रचार करता रहा कि मध्य-पूर्व में किसी भी देश में जनतंत्र कहीं है तो सिर्फ इस्राइल में है।
मध्य-पूर्व में पश्चिमी देश इस्राइल की सुरक्षा को लेकर सबसे ज्यादा चिंतित हैं।अन्य किसी राष्ट्र की सुरक्षा को लेकर वे चिंतित नहीं हैं।अरब देशों की सुरक्षा या फिलिस्तीनियों की सुरक्षा को लेकर उनमें चिंता का अभाव है।इसके विपरीत फिलिस्तीनियों के लिए स्वतंत्र राष्ट्र की स्थापना के लिए संघर्षरत फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन को अमरीका ने आतंकवादी घोषित किया हुआ है।
आज अमरीका ने अरब देशों और फिलिस्तीनियों की सुरक्षा की बजाय इस्राइल की सुरक्षा के सवाल पर आम राय बना ली है।इस इलाके में अमरीका पश्चिम का वर्चस्व स्थापित करना चाहता है।वे यह भ्रम पैदा कर रहे हैं कि 'ओरिएण्ट' के ऊपर'पश्चिम' का राज चलेगा।दूसरा भ्रम यह फैला रहे हैं कि पश्चिम की स्व-निर्मित इमेज सर्वश्रेष्ठ है।तीसरा भ्रम यह फैलाया जा रहा है कि इस्राइल पश्चिमी मूल्यों का प्रतीक है। एडवर्ड सईद ने लिखा कि इन तीन भ्रमों के तहत अमरीका का सारा प्रचारतंत्र काम कर रहा है।इन भ्रमों के इर्द-गिर्द राष्ट्रों को गोलबंद किया जा रहा है।
ध्यान रहे माध्यमों में जो प्रस्तुत किया जाता है वह न तो स्वर्त:स्फूर्त्त होता है और न पूरी तरह स्वतंत्र होता है और न वह यथार्थ की तात्कालिक उपज होता है।बल्कि वह निर्मित सत्य होता है।यह अनेक रुपों में आता है।उसके वैविध्य को हम रोक नहीं सकते।इसकी प्रस्तुति के कुछ नियम हैं जिनके कारण हमें यह विवेकपूर्ण लगता है।यही वजह है कि वह यथार्थ से ज्यादा सम्प्रेषित करता है।उसकी इमेज माध्यम द्वारा प्रस्तुत सामग्री से निर्मित होती है।वह प्रच्छन्नत: उन नियमों के साथ सहमति बनाता है या उनको संयोजित करता है जो यथार्थ को 'न्यूज' या'स्टोरी' में रुपान्तरित करते हैं।चूँकि माध्यम को सुनिश्चित ऑडिएंस तक पहुँचना होता है,फलत: उसे इकसार शैली में यथार्थ अनुमानों से नियमित किया जाता है।इकसार छवि हमेशा संकुचित और सतही होती है।इसी कारण जल्दी ग्रहण कर ली जाती है,मुनाफा देने वाली होती है और इसके निर्माण में कम लागत लगती है।इस तरह की प्रस्तुतियों को वस्तुगत कहना ठीक नहीं होगा।बल्कि ये विशेष राजनीतिक संदर्भ और मंशा के तहत निर्मित की जाती हैं।इसके तहत यह तय किया जाता है कि क्या प्रस्तुत किया जाय और क्या प्रस्तुत न किया जाय।
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