(हाल ही में सुधा सिंह द्वारा अनूदित राससुंदरी दासी की आत्मकथा आयी है। इसे स्वराज प्रकाशन ने छापा है, इस किताब के साथ इसकी भूमिका भी महत्वपूर्ण है।यहां उसका एक अंश प्रस्तुत है।)
इसी तरह से पुरुष आत्मकथा के शीर्षक को लें। शीर्षक से ही इतिहास में अपनी अवस्थिति, परंपरा से जुड़ाव, ऐसे अतीत के निर्माण में हिस्सेदारी जिसका वर्तमान के संदर्भ में आकलन किया जा सके, के निर्माण का दंभ छिपा होता है। उदाहरण के लिए 'अपनी धरती अपने लोग', 'सत्य के साथ प्रयोग', 'मुड़ मुड़ कर देखता हूँ', 'गरबीली गरीबी वह' आदि। इनमें से कोई भी शीर्षक स्त्री आत्मकथा के लिए मुफीद नहीं हो सकता। स्त्री के लिए 'घर की बात' और अपनी धरती, अपने लोग में फर्क करना मुश्किल है। जो घर की बात है, वही उसकी धरती है, वही उसके लोग भी हैं। जहाँ वह जन्मी-बढ़ी, वह धरती और वहाँ के लोग उसके होने को ग्लोरिफाई नहीं करते। न ही पृष्ठभूमि का काम करते हैं। वहाँ वह थी और वहाँ से उखड़े हुए पौधे की तरह वह और कहीं चली गई। विवाह करके जाए या विवाह के बिना अपने अस्तित्व की तलाश में कहीं जाए, या अन्य किसी कारण से अपने परिवेश से उसका विछोह हो; विछोह होता है। ऐसे में वह उन परिस्थितियों पर गर्व नहीं कर सकती जिन से लड़ते हुए उसका अस्तित्व विकसित हुआ है। इन पर विजय उसके किसी भी तरह के विजेता भाव को जन्म देने में असमर्थ होता है। यह तो एक लीलनेवाले परिवेश में अस्तित्व को बचाने की लड़ाई है। इसलिए प्राय: स्त्री अपने जन्मस्थान और अतीत को बहुत जल्दी वर्तमान में अनुकूलित कर लेती है। ऐसे ही सत्य के साथ किसी भी तरह के प्रयोग के दावे में 'सत्य' की जो सत्ता है वह स्त्री के किसी काम की नहीं है। कारण दर्शन जिस वास्तविकता की बात करता है और वास्तविकता के आधार के रूप में सत्य की बात करता है, वह सत्य कितना सत्य है, यह देखने की जरुरत है। जैसा कि उत्तरआधुनिक विचारक ल्योतार ने माना है कि सत्य किसी समाज में मौजूद विश्वासों, तर्कों और सांस्कृतिक आधारों की समरूपता में होता है। दार्शनिकों का यह दावा कि सत्य अखण्ड है और 'एब्सोल्यूट' है; और चूँकि दर्शन का आधार इसी सत्य की खोज है इसलिए दर्शन को प्रत्येक अनुशासनात्मक ज्ञान का आधार होना चाहिए; ग़लत है।
सत्य के साथ प्रयोग के क्रम में जिस आत्मोप्लब्धि की बात की जाती है, वह आत्म 'मैं' होता है। इस मैं से अलग बाकी सब 'अन्य' होते हैं। सच तो यह है कि प्रत्येक दार्शनिक व्याख्या के पीछे दुनिया को मुट्ठी में कर लेने का भाव छिपा होता है। विचारों की लड़ाई जीत लेने का भाव होता है। इस आत्मकेन्द्रित दर्शन के लिए स्त्री, भाषा, समाज, देश आदि अन्य की कोटि में होते हैं। ऐसे में सत्य की खोज स्त्री के लिए क्या मायने रखता है, इसे समझा जा सकता है।
स्त्री की आत्मकथा या आत्मकथात्मक लेखन का आरंभ 'स्व' (सेल्फ) के चित्रण के जरिए व्यक्तिमत्ता या अस्मिता को हासिल करने का प्रयास है। वह आत्मकथा के जरिए अपनी पहचान तलाश रही होती है। यह स्त्री की सामाजिक अवस्थिति का भी सवाल है। स्त्री का एक सामाजिक राजनीतिक परिघटना है; उसका बोलना भी एक बड़ी घटना है। स्त्री की आत्मकथा में उसके अनुभव का संसार बोलता है।
आत्मकथा स्त्री के 'स्व' की होती है। निजी होती है। स्त्री की आत्मकथा इस स्व के निर्माण की सामाजिक संरचना का बयान करते हुए संपर्क और अर्थ की नई संभावनाओं की तलाश होती है। विधा के नजरिए से देखें तो 'आत्मकथा' एक न्यूट्रल विधा के रूप में दिखाई देती है। इसमें विषय स्वयं नैरेटर होता है। अन्य विधाओं की तुलना में इसमें लेखक को अनुशासनात्मक तौर पर थोड़ी छूट होती है। फिर भी यदि विशिष्टताओं की परख करनी हो तो पुरुष आत्मकथा में स्त्री का संदर्भ किस रूप में आता है और स्त्री की आत्मकथा में पुरुष का संदर्भ कैसे आता है, इस पर विचार किया जाना चाहिए।
पुरुष आत्मकथा - स्त्री अनुपस्थित, पत्नी की औपचारिक भूमिका जिसमें गृहस्थी का जिक्र, दायित्व, बोझ, जिम्मेदारी आदि के रूप में आता है या फिर मर्दानगी के प्रदर्शन के रूप में एकाधिक प्रेमिकाओं का जिक्र, कामुक संबंधों की मुखर अभिव्यक्ति का रूप मिलता है।
स्त्री आत्मकथा - केन्द्र में पुरुष, स्त्री के पूरे व्यक्तित्व को आच्छादित करनेवाली पति और पिता की मुख्य भूमिका, घरेलू श्रम कार् कत्ताव्य के रूप में उल्लेख, स्त्री का समर्पणकारी/आज्ञाकारी की भूमिका, पति के अलावा अन्य प्रेम का उल्लेख नहीं, कामुकता का न के बराबर या संकेत रूप में जिक्र, प्राय: इन्हें बचा लेना या संकेत से काम लेना।
स्त्री के लिए आत्मकथा संपर्क बनाने का जरिया है। दुनिया और अपने परिवेश की व्याख्या का जरिया है। उससे जुड़ने और उसकी आलोचना का जरिया है। अपनी स्थिति पहचानने का जरिया है। बदलाव की अभिव्यक्ति का जरिया है। यह महान स्मृतियों और परिवेश से शुरु नहीं होता न किसी महानता में खत्म होता है। स्त्री आत्मकथा दुनिया पर नियंत्रण के लिए नहीं बदलाव और परिवर्तन के लिए सचेष्ट होती है।
स्त्री आत्मकथा में अमूमन देखा गया है कि पिता और पति केन्द्रीय भूमिकाओं में होते हैं। कई बार तो यह भ्रम भी होता है कि स्त्री आत्मकथा पढ़ रहे हैं या पुरुष कथा! लेकिन ऐसा कहने या निर्णय देने के पहले कारणों की पड़ताल करनी चाहिए। क्या यह सचेत तौर पर हो रहा है या अभ्यासवश। मन्नू भण्डारी की आत्मकथा 'एक कहानी यह भी' , प्रभा खेतान की आत्मकथा 'अन्या से अनन्या तक' इसका आदर्श उदाहरण हैं। स्त्री के व्यक्तित्व के लिए बाधक भी पिता है और उसके किसी भी तरह की सामाजिक उपलब्धि की अभिपुष्टि का साधन भी पिता ही है। माँ को स्त्री आत्मकथाकारों ने कैसे देखा है, यह देखना-परखना हो तो मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा 'गुड़िया भीतर गुड़िया' और 'कस्तूरी कुण्डल बसै' में देख सकते हैं। माँ, अन्य है। प्रतिद्वन्द्वी है। अंग्रेज़ी के 'मदर' का विखण्डन कीजिए तो वह 'माई अदर' बनता है। कोई लड़की अपनी माँ से सहानुभूति रखते हुए भी अपनी माँ का जीवन नहीं जीना चाहती। उसके जैसी नहीं बनना चाहती।
इसका विश्लेषण ब्राजीलियन लेखिका क्लेरिस लिस्पेक्टर की एक कहानी 'सण्डे बिफ़ोर फॉलिंग एस्लिप' के जरिए करना चाहूँगी। इस कहानी में लिस्पेक्टर ने पिता का चित्र कुछ इस प्रकार खींचा है कि पिता अपने अकेले उदास बच्चे को एक शब्द उपहार में देता है। वह शब्द है 'ओवोमाल्टीन' यह शब्द बच्चे के लिए किसी 'जादुई दरवाजे' की तरह काम करता है। कुछ कुछ 'खुल जा सिम सिम' की तरह। यह जादुई दरवाजा दूसरी दुनिया पर खुलता है। यह 'ओवोमाल्टीन' एक रहस्यमय शब्द है। इसका नाम थोड़ा सा अजीब है, टेढ़ा विदेशी नाम है। लेकिन यह आनंद की ओर जानेवाला रास्ता खोलता है। पिता को खुश करने के लिए बच्चा अनजानी जगहों की तरफ जाता है, पता चलता है कि वह इस शब्द के सहारे अमेरिका पहुँच गया। वह असाधारण शब्दों का इस्तेमाल करता है। 'ओवोमाल्टीन' जैसे गुप्त शब्द की चाबी जिसका अर्थ है 'द टॉप ऑफ द वर्ल्ड' बच्चे के कब्जे में है। इस शब्दों की दुनिया में जिसकी चाबी बच्चे को पिता थमाता है, माँ भी रहती है लेकिन वह शब्दों की दुनिया में संगीत या लय की तरह रहती है। वह माई अदर है। सब में समाई हुई लेकिन अलग से कुछ भी नहीं। वह अत्यंत परिचित है, पर पहले से ही 'अन्य' है। उससे जुदा होकर ही बच्चा अस्तित्व में आया है। गर्भ से बाहर आने के बाद नाल कटने पर ही बच्चा माँ से अलग हो पाता है। यह उसके जिंदा रहने की शर्त है।
बच्चे के लिए माँ की दुनिया छोड़कर आना, उससे अलग होकर उसे अन्य के रूप में देखना एक असुरक्षा और नुकसान का भाव पैदा कर सकता है, पर शब्दों की दुनिया के जरिए वह उस नुकसान/अभाव की पूर्ति करता है। इस अर्थ में भाषा एक क्षतिपूर्ति (कम्पेन्सेशन) भी है और जिंदा रहने का साधन भी। लिस्पेक्टर की कहानी पर गौर करें तो बच्चे के लिए सब कुछ खो जाता है शब्दों के अलावा। यह बच्चे का अनुभव है कि शब्द दूसरी दुनिया जो जादू से भरी है की तरफ खुलनेवाला रास्ता है। रहस्य-रोमांच की यह दुनिया का रास्ता पिता बतलाता है। लेखिकाओं की आत्मकथात्मक रचनाओं में पिता और पति का केन्द्र में होना इस कहानी के जरिए समझा जा सकता है। शब्दों की दुनिया मूलत: पिता की दुनिया है।
लेखन का एक बड़ा सरोकार है कि वह जिंदगियों को बचाता है। जीवन के प्रति आशा का संचार करता है। स्त्री लेखन की खूबी है कि यह न केवल आशा का संचार करता है बल्कि जीवन का अनुसरण करते हुए जीवन का विस्तार भी करता है। विशेष तौर पर स्त्री आत्मकथा की खूबी है कि यह जीवन का अनुसरण करती है। यह जीवन को विस्तार देनेवाला है। स्त्री जब आत्मकथा लिखती है तो वह अपनी निजी हानियों से उबरने के लिए आत्मकथा लिखती है। वह दया, करुणा आदि भाव को जगाने के लिए नहीं लिखती है। समाज में स्त्रियों की जो नारकीय अवस्था है वह किसी भी चेतनासंपन्न स्त्री को परेशान कर सकता है। ऐसे में स्त्री आत्मकथा कोई ट्रेन्ड सेट करने, वाद चलाने या इतिहास में अमर होने के लिए नहीं होता बल्कि इस नारकीय अवस्था के मूल्यांकन और पड़ताल के लिए होता है। इसमें वह आत्म (सेल्फ) को परिभाषित करने के संघर्ष से गुजरती है।
स्त्री आत्मकथा के इतिहास, भूगोल या परंपरा से मुक्त होने के पीछे कारण यह कि स्त्री वर्त्तमान में रहना चाहती है। इतिहास उसके वश में नहीं, उसकी शक्तियाँ उसके वश में नहीं, वह कभी किसी भी तरह के इतिहास लेखन के केन्द्र में नहीं रही। ऐसे में स्त्री आत्मकथा में जो कुछ आएगा वह वर्तमानकेन्द्रिक होगा। वर्तमान से लड़ना, संघर्ष करना, उसे बदलने के लिए स्थितियाँ तैयार करना उसके वश में है। इतिहास के धुंधलके की तुलना में वह ज्यादा साफ है और इसमें स्त्री की कुछ उपलब्धियाँ भी नजर आती हैं। इसलिए स्त्री का स्वर्ग-नरक वर्तमान ही हो सकता है अतीत नहीं। अतीत के प्रति आग्रह पुरुष लेखन में दंभपूर्ण ढंग से मिलता है, स्त्री की आत्मकथात्मक लेखन में अतीत का आग्रह नहीं के बराबर है। उदाहरण के लिए महादेवी की कविता। छायावादी कविता में अतीत का आग्रह इसकी विशेषता मानी जाती है लेकिन महादेवी के लेखन में अतीत का आग्रह नहीं है।
यह ध्यान रखना चाहिए कि स्त्री आत्मकथा दूरी बनाने के लिए नहीं अन्य प्रमुख दुनिया से संबंध बनाने के लिखी जाती हैं। साथ ही स्त्री आत्मकथा को खास नियमों या साहित्यिक विधानों में नहीं बाँटा जा सकता। स्त्री के दुख-दर्द और अनुभव का संसार अभिव्यक्ति का कोई भी फॉर्म ले सकता है। लोकगीतों से लेकर मीरा, महादेवी, ललदद्य की कविता में स्त्री आत्मकथा व्यक्त हो सकती है। मुश्किल यह है कि पाश्चात्य साहित्य में आत्मकथा का आरंभ ही तब माना गया, जब सब्जेक्ट के रूप में 'मैं' केन्द्र में आया। इस 'मैं' की कहानी, इसका अता-पता, इतिहास, भूगोल बताकर, 'मैं' के जिए संसार का बयान करने की शैली को आत्मकथा का नाम देते हैं। यह नहीं भूलना चाहिए कि प्रथम पुरुष के लिए प्रयुक्त 'मैं' का स्त्री द्वारा प्रयोग जरुरी तौर पर स्त्रीत्व की पहचान करानेवाला नहीं होता। अत: स्त्री आत्मकथा में आए इस 'मैं' की चौकन्नी पड़ताल करनी चाहिए। कबीर, तुलसी आदि ने जितना अपने देखे-जिए संसार के बारे में बताया है, अण्डाल जिस भाषा में अपनी इच्छाओं की दुनिया को रचती है, मीरा अपने साथ पूरे कुनबे और समाज के दुर्व्यवहार का जिस तरह वर्णन करती है वह 'आत्मकथा' नहीं बन पाया। महादेवी की कविता और आत्मपरक गद्य भी आत्मकथा नहीं कहला सके। स्त्रियों के दुख-दर्द की अभिव्यक्ति करनेवाला लोकगीत और लोकनाटय (शादी में बारातवाले दिन घर की स्त्रियाँ तरह तरह से वेश बनाकर नाटक करती हैं, इसमें मर्द शामिल नहीं होते) स्त्री के अनुभव संसार का हिस्सा होते हुए भी 'आत्मकथा' नहीं कहलाए यानि 'आत्मकथा' की पुंसवादी आलोचना में स्वीकृति तभी है जब 'मैं' इसका नायक बन जाता है। उसके पहले नहीं। स्त्री तो 'सब्जेक्ट' भी नहीं बन पाई है तो आत्मकथा लेखन उनके द्वारा संभव ही नहीं माना गया।
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