अंधविश्वास सामाजिक कैंसर है। अंधविश्वास ने सत्ता और संपत्ति के हितों को सामाजिक स्वीकृति दिलाने में अग्रणी भूमिका अदा की है। आधुनिक विमर्श का माहौल बनाने के लिए अंधविश्वासों के खिलाफ जागरूकता बेहद जरूरी है। आमतौर पर साधारण जनता के जीवन में अंधविश्वास घुले-मिले होते हैं।
अंधविश्वासों को संस्कार और एटीटयूट्स का रूप देने में सत्ता और सत्ताधारी वर्गों को सैकड़ों वर्ष लगे हैं। अंधविश्वासों की शुरुआत कब से हुई इसका आरंभ वर्ष तय करना मुश्किल है। फिर भी ऐतिहासिक साक्ष्य बताते हैं कि सामाजिक विकास के क्रम में जब राजसत्ता का निर्माण कार्य शुरू हुआ था उस समय साधारण लोग किसी से डरते नहीं थे। किसी भी किस्म का अनुशासन मानने के लिए तैयार नहीं थे, राजा की सत्ता को स्वीकार नहीं करते थे। सत्ता के दंड का भय नहीं था। यही वह ऐतिहासिक संदर्भ है जब अंधविश्वासों की सृष्टि की गई।
आरंभिक दौर में अंधविश्वासों को संस्कार और जीवन मूल्य से स्वतंत्र रूप में रखकर देखा जाता था। कालांतर में अंधविश्वासों ने सामाजिक जीवन में अपनी जड़ें इस कदर मजबूत कर लीं कि अंधविश्वासों को हम सच मानने लगे।
अंधविश्वास का दायरा बहुत बड़ा है। इसके दायरे में सामाजिक मान्यताएं, सामाजिक आचार-व्यवहार से लेकर कला, ललित कला, साहित्य, राजनीति, व्यापार तक आता है। इसके कारण सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया बाधित हुई है।
भारत में विगत दो हजार वर्षों में किसी भी किस्म की सामाजिक क्रांति नहीं हुई। हम लोगों ने कभी भी इस सवाल पर सोचा नहीं कि हमारे समाज में विगत दो हजार वर्षों में सामाजिक क्रांति क्यों नहीं हुई? तमाम किस्म की कुर्बानियों के बावजूद आधुनिक भारत में कोई सामाजिक क्रांति क्यों नहीं हुई? यदि गंभीरता से भारतीय समाज पर नजर डालें तो पाएंगे कि भारत में सामाजिक क्रांति न होने के जिन कारणों की ओर आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ध्यान खींचा था उनकी तरह हमारे समाज ने पूरी तरह ध्यान नहीं दिया।
हजारीप्रसाद द्विवेदी का मानना था कि भारत में सामाजिक क्रांति न होने के तीन प्रमुख कारण हैं। पहला, अंधविश्वास, दूसरा, पुनर्जन्म की धारणा और तीसरा कर्मफल का सिध्दांत। हमारी समूची चेतना इन तीन सिद्धांतों से परिचालित रही है। अंधविश्वास के कारण ही रूढ़ियों ने जन्म लिया। साहित्य एवं कलारूपों में रूढ़ियां और सामाजिक जीवन में रूढ़ियां अंधविश्वास की ही देन हैं।
आधुनिककाल आने के बाद साहित्य से रूढ़ियों का खात्मा हुआ बल्कि सामाजिक जीवन में रूढ़ियां बनी रहीं , अंधविश्वासों के खिलाफ सामाजिक संघर्ष लड़ा नहीं गया। वहीं दूसरी ओर, पूंजीवाद ने बड़े कौशल के साथ अंधविश्वास को अपनी मासकल्चर, विज्ञापन रणनीति और मार्केटिंग का अंग बनाकर नई शक्ल दे दी।
आज बड़ी-बड़ी कंपनियां अपने बाजार के विकास के लिए जिन दो तत्वों का प्रचार रणनीति में सबसे ज्यादा इस्तेमाल कर रही हैं वह है धार्मिक संप्रेषण की पध्दति और दूसरा है अंधविश्वास। इन दो के जरिए जहां एक ओर उपभोक्तावाद का तेजी से विकास हो रहा है वहीं दूसरी ओर अंधविश्वासों के प्रति भी आस्था बढ़ रही है।
जो लोग सामाजिक परिवर्तन करना चाहते हैं उन्हें बहुराष्ट्रीय कंपनियों की धार्मिक संप्रेषण की रणनीति और अंधविश्वास की जुगलबंदी को तोड़ना होगा। उन तमाम क्षेत्रों में हमले तेज करने होंगे जिनसे इन दो तत्वों को संजीवनी मिलती है। इसके अलावा पुनर्जन्म और कर्मफल के सिध्दांत के प्रति आम जनता में आलोचनात्मक रवैय्या पैदा करना होगा। आज अंधविश्वास संस्कृति उद्योग का अनिवार्य तत्व बन गया है। संभवत: कुछ लोगों को यह बात समझ में न आए और कुछ लोगों की भावनाएं भी आहत हों। किंतु इस डर से अंधविश्वासों के खिलाफ जागरूकता पैदा करने के काम को छोड़ा नहीं जा सकता।
प्रश्न उठता है अंधविश्वास क्या है? इसे किन तत्वों से मदद मिलती है? इसका सामाजिक आधार कौन सा है? इससे किस तरह का समाज निर्मित होता है? किस तरह के कला रूप जन्म लेते हैं? और इसका विकल्प क्या है? ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखें तो पाएंगे कि अंधविश्वास की धारणा का बुनियादी सारतत्व एक जैसा रहा है। मिस्र, यूनान और भारत में अंधविश्वासों की शुरुआत तकरीबन एक ही तरह हुई।
अंधविश्वास की बुनियादी विशेषता है अंधानुकरण, वैज्ञानिक विवेक का त्याग और स्वतंत्र चिंतन का विरोध। सामाजिक जीवन में इसका लक्ष्य था आम लोगों को अपने श्रेष्ठजनों के किसी भी आदेश के पालन का अभ्यस्त बनाया जाए। दूसरा , वे उन्हीं पर भरोसा करना सीखें जो हर मामले में समान भाव से धार्मिक विधि-विधानों का पालन करते हों। कलाओं की दुनिया में इसने नयनाभिराम चित्रों और मधुर गीतों की सृष्टि की। नयनाभिराम चित्रों और मधुर गीत-संगीत को मंदिरों में मानदंड के रूप में स्थापित किया गया। कला के क्षेत्र में किसी को यह इजाजत नहीं थी कि उनमें परिवर्तन करे। इसके कारण कलाओं के रूप सैकड़ों वर्षों तक अपरिवर्तित रहे। किसी ने यह साहस नहीं दिखाया कि कलाओं और मधुर गीतों में परिवर्तन करे। ये कलारूप सैकड़ों वर्षों से एक जैसे हैं। मिस्र के कलारूप इस अंधानुकरण के आदर्श उदाहरण हैं। विगत दस हजार साल से उनकी शैली में किसी तरह का परिवर्तन नहीं हुआ है। इस दौरान वे न तो बेहतर बन पाए और न बदतर ही बन पाए।
इसी तरह अंधविश्वास को जनप्रिय बनाने में झूठ खासकर इष्टकर झूठ की बहुत बड़ी भूमिका रही है। एक ऐसा झूठ, उदात्त झूठ जिसके सहारे संपूर्ण समुदाय को, संभव हो सके तो शासकों को भी स्वीकार करने के लिए राजी किया जा सके।
इस तरह के झूठ के आदर्श उदाहरण हैं हमारे रीति-रिवाज और संस्कार जिनकी प्रशंसा करते हुए हमारे शास्त्र थकते नहीं हैं। रीति-रिवाज और संस्कारों की प्रशंसा के क्रम में सबसे ज्यादा हमला स्वतंत्र चिंतन पर किया गया, उन लोगों पर हमले किए गए जो स्वतंत्र चिंतन के हिमायती थे। जो प्रत्येक बात पर शंका करते थे। प्रश्न करते थे।
इस लेख के लिये बधाई, दर असल मैं भी इसी दिशा का वर्षों से पक्षधर रहा हूं किंतु आश्चर्य होता है कि बाम पंथी विचारकों ने तक इस दिशा में काम करना बन्द कर दिया है जबकि इसके बिना वे कहीं नहीं पहुँचने वाले
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