टेलीविजन के इतिहास में ग्यारह सितंबर मील का पत्थर दिन था।विमान अपहरण और उसके बाद अमरीका के प्रतीक चिह्नों पर आत्मघाती हमलों का सीधा प्रसारण अनेक नए मसलों,अर्थों और संभावनाओं को सामने लेकर आया है।इस घटना के बाद टेलीविजन के पर्दे पर कई तब्दीलियां देखी गयी हैं।खासकर उपग्रह चैनलों में इस्लाम के प्रति रवैयये में बदलाव आया है।
ग्यारह सितंबर के पहले टेलीविजन पर इस्लाम की नकारात्मक छवि पेश की जाती थी।किन्तु ग्यारह सितंबर के बाद इस्लाम के बारे में सकारात्मक इमेज के कुछ टुकड़े सामने आए हैं।जबकि मुसलमान के बारे में टेलीविजन का रवैयया अभी भी बदला नहीं है।मुसलमान की नकारात्मक छवि का प्रसारण अभी भी जारी है।
मुसलमान की नकारात्मक छवि के जरिए यह प्रचार किया जा रहा है कि मुसलमान हिंसक होते हैं।इस्लाम हिंसा को वैधता प्रदान करता है।मुसलमान अपनी औरतों का शोषण और दमन करते हैं।मुस्लिम औरतें यदि बुर्का के अलावा कुछ और पहनें तो उनका भविष्य सुरक्षित नहीं है। खासकर मिनी स्कर्ट पहने तो जिंदगी खतरे में पड़ सकती है।
टेलीविजन में मुसलमान हमेशा पश्चिम के किसी भी सकारात्मक तत्व को घृणा और अस्वीकार करते दिखाया जाता है।मसलन्,मुसलमान लोकतंत्र विरोधी है,बहुलतावाद विरोधी है,स्वतंत्रता विरोधी है,नागरिक अधिकारों का विरोधी है।इस तरह के स्टीरियोटाईप प्रचार अभियान की खूबी यह है कि इसमें इजराइली जीवन शैली और पश्चिमी जीवन शैली को मुस्लिम जीवन शैली की तुलना में श्रेष्ठ करार दिया जाता है।इस तरह के प्रचार अभियान के मुस्लिम युवा खासतौर पर निशाना हैं।उन्हें पश्चिमी मूल्यों जैसे डेटिंग,ड्रिंकिग ,डांसिंग और पार्टीबाजी से अलग दिखाया जाता है।टेलीविजन का जोर इस तथ्य पर रहता है कि मुस्लिम युवक पश्चिम संस्कारों को नहीं मानते।
स्टीरियोटाईप प्रस्तुतियों के मूल्य-निर्णय के लिए किसी सामाजिक ग्रुप से जुड़ा होना जरूरी है। स्टीरियोटाईप वस्तुत:वगैर किसी बौध्दिक श्रम के स्वचालित अनुकरण भाव पैदा करता है। जबकि स्टीरियोटाईप के लिए निजी ग्रुप का होना जरूरी है।खासकर बाहरी या बहिष्कृत ग्रुप के खिलाफ।ऐसे स्थिति में वगैर सोचे अपने ग्रुप के भावों के आधार पर व्यवहार करते हैं,सोचते हैं,बोलते हैं,लिखते हैं।
टेलीविजन में जब भी कोई खबर मुसलमानों के बारे में पेश की जाती है तो उन्हें'अन्य' की कोटि में रखा जाता है।'अन्य' की कोटि में रखने के कारण उसके निर्माण में परिश्रम नहीं करना पड़ता।हमारे सोच में पुराने प्रतीक सक्रिय हो जाते हैं,पुराने फ्रेम या संदर्भ सक्रिय हो जाते हैं।इन्हें हम बिना परखे अपना लेते हैं।स्टीरियोटाईप से माध्यम प्रक्रिया का सरलीकरण हो जाता है।कालान्तर में यही सरलीकरण समस्या बन जाता है।इसके परिणामस्वरूप नकारात्मक इमेज जन्म लेती है।
ग्यारह सितंबर की घटना और इराक युध्द के अमरीकी चैनलों में भावुकता की बाढ़ थी। वहां रिपोर्टर 'इस्लाम के खिलाफ संदेह और अविश्वास को सबसे बड़ी सेवा मान रहे थे।'अमरीकी चैनलों में 'मुस्लिम मिलिटेंट' या इस्लामिक टेररिस्ट'पदबंध का सबसे ज्यादा प्रयोग किया गया।इस तरह की प्रस्तुतियां 'मुसलमान' और 'आतंकवादी' के बीच घालमेल कर रही थीं।सवाल किया जाना चाहिए कि यदि 'मुस्लिम टेररिस्ट' पदबंध का प्रयोग सही है तो 'क्रिश्चियन टेररिस्ट' पदबंध का प्रयोग भी सही होगा।क्योंकि कुछ आतंकवादी ईसाईयत की हिमायत में गर्भपात कराने वाले डाक्टर की हत्या को न्यायपूर्ण ठहराते हैं।क्या ऐसे हत्यारों को 'क्रिश्चियन टेररिस्ट' कहा जाए?
ज्यादातर उपग्रह चैनलों ने तयशुदा व्याख्या के ढ़ांचे में खबरों की प्रस्तुति की।'अच्छे' और 'बुरे' के बीच में संघर्ष के तौर पर वर्गीकरण किया।इसे अमरीका ने 'आतंकवाद के खिलाफ युध्द'कहा।सीमोन फ्रेशर विश्वविद्यालय में कम्युनिकेशन के प्रोफेसर रॉबर्ट हैकेट ने अमरीकी टेलीविजन की प्रस्तुतियों पर टिप्पणी करते हुए कहा कि'मुझे चिंता है कि बहुत कुछ संकुचित दृष्टिकोण से बताया गया।इसे युध्द की बजाय'मानवता के प्रति अपराध' या'आतंकी कार्रवाई' कहना सही होगा।
हमने खास तरह की खबरों को दबाया और खास तरह की खबरों को बताया।इसके कारण हम दर्शकों को कम सूचनाएं दे पाए।इसके कारण दर्शकों की प्रतिक्रियाएं भी हल्की रहीं।हैकेट का मानना है कि इस तरह अमरीकी विदेशनीति को बचाने के लिए बड़े पैमाने पर वैचारिक श्रम किया गया।कायदे से हमें किसी फ्रेम विशेष पर जोर दिए बिना जनता को सभी तार्किक परिप्रेक्ष्यों के तहत सूचनाएं देनी चाहिए थी।संयुक्त राष्ट्र संघ और अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के तहत आतंकवादियों के खिलाफ क्या कार्रवाई हो सकती थी इस पर बहस होनी चाहिए थी।साथ ही अमरीकी विदेशनीति के दोहरे चरित्र पर भी बहस होनी चाहिए थी।बताया जाना चाहिए था कि किस तरह विदेशनीति अमरीका के हितों को नुकसान पहुँचा रही है।
इराक युध्द हो या राष्ट्रवादी उन्माद का समय हो ऐसे में माध्यम किसके साथ हों यह सबसे महत्वपूर्ण है।अमरीकी माध्यमों के रूख से सारी दुनिया के माध्यम प्रभावित हो रहे थे।अत: अमरीकी माध्यमों पर पत्रकारिता और राष्ट्रवाद के बीच संतुलन बनाने की सबसे ज्यादा जिम्मेदारी थी।
ध्यान रहे संकट की अवस्था में माध्यमों को राज्य के साथ नहीं जनता के साथ होना चाहिए।जनता के साथ होने का मतलब है ठोस खबरें,खोजी खबरें,विश्लेषण,विचारों और परिप्रेक्ष्य की बहुलता की रक्षा और प्रस्तुति।ऐसी स्थिति में हमें सवाल करना चाहिए कि हमारी सरकार क्या कर रही है ?हमें कहां और किस दिशा में ले जाना चाहती ?साथ ही हमें इस क्रम में पैदा होने वाले अंतर्विरोधों और दुविधाओं को उजागर करना चाहिए।हमें जनता की बहस में मदद करनी चाहिए।जिससे वह सही निर्णय ले सके।हमें सभी स्रोतों के प्रति आग्रह से बचना चाहिए।तथ्यों की परीक्षा करनी चाहिए।
झूठ और तथ्य में फर्क करना चाहिए।अफवाहों को खारिज करना चाहिए।कोई भी पत्रकार अपने देश की सबसे अच्छी सेवा तब ही कर सकता है जब वह आलोचनात्मक दृष्टिकोण रखे और स्वतंत्र हो।चाहे मसला कितना ही सही क्यों न हो।
पत्रकारों का राष्ट्रवादी उन्माद आम जनता को खून की नदी में डुबो देता है। राष्ट्रवाद की अपील पत्रकार के दिमाग को कुंद कर सकती है।किसी भी पत्रकार को राष्ट्रविरोधी कहकर लांछित नहीं किया जाना चाहिए।क्योंकि राष्ट्रवाद पदबंध भावनात्मकता को भड़काने वाला है।
संकट के समय संवेदनशील सूचनाओं को जारी नहीं किया जाना चाहिए।ऐसी सूचनाएं भी नहीं छापनी चाहिए जिनसे आतंकवादियों को मदद मिले।ध्यान रहे पत्रकार की भावनाओं का कोई अन्य दुरूपयोग न करे।हमें राष्ट्रवाद से ज्यादा जनता के हितों से जुड़े मसलों पर ध्यान देना चाहिए।ध्यान रहे जब युध्द के बादल छाए हों तो सबसे पहले 'सत्य' की हत्या होती है।पत्रकार का काम सत्य की रक्षा करना और राष्ट्रवाद यह कार्य करने नहीं देता।
युध्द की भाषा हथियार तय करते हैं।हथियार की भाषा मीडिया तय करता है।यही वजह है कि मीडिया को हथियार का खुदा कहा गया है।युध्द और भाषा का रिश्ता विलोम का रिश्ता है।युध्द के दौरान मीडिया जिस भाषा का इस्तेमाल करता है वह अमूमन ठंडी, भ्रम,भय और सामंजस्य पैदा करने वाली होती है। भ्रम और भय की भाषा का आम तौर पर वे लोग इस्तेमाल करते हैं जो कमजोर या अपराधी होते हैं।
इराक पर अमेरिकी गठबंधन के हमले के लिए मीडिया में काफी अर्सा पहले से तैयारियां चल रही थीं।इसकी बानगी के तौर पर टेलीविजन चैनलों में मुख्य शीर्षक और कुछ पदबंधों के नामों पर गौर करना समीचीन होगा।मसलन्, 'प्रिएमटिव वार','वेपन ऑफ मास डिस्ट्रक्शन','टेरर','रिजीम चेंज' आदि।इसी तरह मुख्य शीर्षक में सीएनएन ने युध्द के पहले कहा 'शो डाउन इराक',युध्द शुरू होने के बाद कहा 'इराक वार' बीबीसी ने कहा 'शो डाउन सद्दाम',एमएसएनबीसी ने कहा 'इराक वाच','काउण्ट डाउन इराक',डीडी ने कहा 'खाड़ी युध्द 2' आदि।ये सारे भाषायी प्रयोग इराक पर अमेरिकी गठबंधन सेना के हमलावर चरित्र को छिपाते थे।
मजेदार बात यह है कि बीबीसी और सीएनएन के पर्दे पर कभी यह नहीं कहा गया कि अमेरिकी या ब्रिटिश सेना ने इराक पर हमला किया। अमेरिका-ब्रिटेन को कभी हमलावर नहीं कहा गया।साथ ही इराक पर अमेरिका-ब्रिटेन के कब्जे को कभी इराक पर आधिपत्य या कब्जा नहीं कहा गया। इराक से बीबीसी संवाददाता जब भी रिपोर्ट भेजता।यही कहता कि हमारे संवाददाता को इराकी सेना की सेंसरशिप या निगरानी या स्वीकृति के बाद ही रिपोर्ट भेजने का मौका मिला है। जबकि अमेरिकी गठबंधन सेना के साथ चल रहे संवाददाताओं ने यह कभी नहीं कहा कि उन्हें गठबंधन सेना की सेंसरशिप या स्वीकृति के बाद ही रिपोर्ट भेजने का अवसर मिला है।
कहने का तात्पर्य यह कि इराकी सेंसरशिप को उभारा गया और गठबंधन सेना की सेंसरशिप को छिपाया गया।जबकि गठबंधन सेना ने घोषित तौर पर सेंसरशिप जारी की थी। 'वेनकूवर सन' के अंतर्राष्ट्रीय मामलों के संवाददाता और बीस वर्षों से युध्द संवाददाता का काम करने वाले जोनाथन माथ्रोप ने लिखा कि इराक कवरेज के दौरान जो सामग्री पेश की गई उससे यह अर्थ संप्रेषित हुआ है कि इस युध्द का जमीन और खून से कोई लेना-देना नहीं है।
इराक कवरेज की भाषा के बारे में स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय के मनोवैज्ञानिक डा.अलबर्ट बांदुरा का मानना है कि नैतिक रूप से अवांछित सरोकारों से बचने का आसन तरीका यह है कि ऐसी भाषा का इस्तेमाल किया जाए जो युध्द को वैध बनाए।यदि पत्रकार 'जार्गन' या 'रेहटोरिक' की भाषा से अलग करने में असमर्थ होता है तो मीडिया में युध्द के नैतिक विरोधों को खत्म कर देता है।
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