रविवार, 31 अक्तूबर 2010

जॉर्ज सिंपसन- उसने अपनी जान क्यों ली ? - 3-

     हालांकि मनोविश्लेषक मनोविकृति विज्ञान का यह मानना है कि आचरण के उसके व्याख्याकारी सिध्दांतों के बीच ऐसे उपकरण हैं जिनसे आत्महत्या के कारणों का पता लगाया जा सकता है लेकिन अनुभवजन्य आंकड़ों या सत्यापित सिध्दांतों के निष्कर्षों के आधार पर वह कोई भी पक्की कारणवैज्ञानिक अवधारणा तय नहीं करना चाहता। जिलबुर्ग ने लिखा है : '...स्पष्ट है कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से आत्महत्या की समस्या आज भी अनसुलझी है। न तो सामान्य समझ और न नैदानिक और न मनोविकृति विज्ञान इसका कारण कार्यात्मक या अनुभवात्मक समाधान खोज पाया है।'
1918 में विएना में एक मनोविश्लेषक विचारगोष्ठी में सिगमंड फ्रायड ने चर्चा का सारांश इस प्रकार प्रस्तुत किया : 'इस चर्चा से बहुत मूल्यवान सामग्री मिली है, लेकिन हम किसी निश्चित निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाए हैं...हमें तब तक कोई मत तय करने से बचना चाहिए जब तक अनुभव इस समस्या का हल नहीं निकाल देता।' इसके बाद से फ्रायड, जिलबुर्ग, अब्राहम, मैनिंगर, ब्रिल और अन्यों सहित विशेषज्ञ और अत्यधिक प्रशिक्षित मनोविश्लेषकों ने आत्महत्या पर काम किया है।
यहां एक प्रणालीवैज्ञानिक बाधा का उल्लेख किया जाना चाहिए। इस समय इस बाधा पर पूरा नियंत्रण पा लेना असंभव है। जब तक आत्महत्या करने वाले व्यक्ति की और लंबी मनोविकृति जांच (पूर्ण और प्रचुर जीवनवृत्त अभिलेख के साथ मनोविश्लेषण या नैदानिक अध्ययन द्वारा) नहीं कर ली जाती तब तक उसकी आत्महत्या की व्याख्या और वर्गीकरण उसके मरने के बाद उसके जीवनवृत्त का फिर से निर्माण मात्र कहा जाएगा। यह बहुत मुश्किल और अधिकांश मामलों में असंभव काम है। बहुत उत्साही मत संग्रहक या रवैया परीक्षक आत्महत्या संबंधी इंटरव्यू नहीं कर सकते और जनसंख्या के प्रतिनिधिक नमूनों का केवल इस पूर्वाभासी आधार पर अन्वेषण नहीं कर सकते कि नमूने में शामिल कुछ लोग आत्महत्या करेंगे।
इस बाधा पर कुछ हद तक मनोविश्लेषक मनोविकृति विज्ञानियों ने काबू पाया है जिन्होंने उन मरीजों के रिकार्ड की बात फिर से जांच की जिनका इलाज या जांच चल रही थी और जिन्होंने तब या बाद में आत्महत्या की, या उन मरीजों के रिकार्ड की जिन्होंने आत्महत्या का असफल प्रयास किया या जिन्होंने इलाज के दौरान इसका विचार बनाया। संस्थागत मामलों के निकट से अध्ययन द्वारा जिलबुर्ग ने इस समस्या से स्वयं को जोड़ा। अत: उसके निष्कर्षों को इस बारे में मनोविश्लेषक विकृति विज्ञान के निश्चयात्मक कथन का सूचक माना जा सकता है। उसका निष्कर्ष था कि आत्महत्या उन लोगों ने की जो अवसादक मनोविकृति, तंत्रिका रोग, खंडित मनस्कता से पीड़ित थे। अंतत: उसने यह निष्कर्ष निकाला 'जाहिर तौर पर मनोविकृति विज्ञान में ऐसी कोई नैदानिक हस्ती नहीं है जो आत्महत्या प्रवृत्ति से मुक्त हो।जिलबुर्ग के अनुसार, 'आत्महत्या एक विकासात्मक स्वरूप की प्रतिक्रिया है जो सभी प्रकार के मानसिक रोगियों और संभवत: तथाकथित सामान्य व्यक्तियों में सभी जगह और आम तौर पर पाई जाती है।उसका विचार है कि 'आगे मनोविश्लेषक अध्ययनों ... से आंकड़ों का सांख्यिकीय सरणियन किया जा सकेगा और आत्महत्या के चिकित्सीय प्रकार का पता लगाया जा सकेगा और उसका पुष्टीकरण किया जा सकेगा।'
लेकिन मनोविश्लेषक मनोविकृति विज्ञान के सिध्दांतों से हमें आत्महत्या से संबंधित रोग हेतु विज्ञानिक नियमों का पता चलता है। इस बारे में एक बुनियादी स्थापना यह है कि आत्महत्या प्रेरणा संबंधी मनोविश्लेषक खोजों को आत्महत्या की सामाजिक स्थितियों से जोड़ना इस विषय पर हमारे ज्ञान में प्रगति का सर्वाधिक फलदायक तरीका है। इस स्थापना से कई उपस्थापनाएं की जा सकती हैं।
इस तरह की स्थापनाओं तक पहुंचने के लिए हमें दार्शनिकों के उपदेशात्मक और अटकलबाजीपूर्ण विचारों से बचना होगा। विलियम जेम्स ने अपने निबंध 'इज लाइफ वर्थ लिडिंग?' में महत्वपूर्ण अस्तित्व की जो बात की है न तो वह और न ही अपने नैतिक प्रबंधों में आत्महत्या को नैतिक नियमों का उल्लंघन बताने वाले इम्मेनुअल कांट के विचार आधुनिक वैज्ञानिक आंकड़ों के अनुरूप हैं। मानव जीवन में आत्महत्या द्वारा तबाही को कम करने के लिए उसकी सचाई से नफरत करना काफी नहीं। आत्महत्या करने के व्यक्ति के अधिकार की पैरवी करने वाले डेविड ह्यूम और जीवनेच्छा के त्याग के साथ आत्महंता की संगति की बात करने वाले शॉपेनहॉर हमारी वैज्ञानिक जानकारी में वृध्दि नहीं करते हैं। मानवों को आत्महत्या करने का सामाजिक या दार्शनिक अधिकार है, इस घोषणा से हमें यह पता नहीं चलता कि वे आत्महत्या क्यों करते हैं। और जब तक हमें यह पता नहीं चलेगा कि वे ऐसा क्यों करते हैं तब तक चाहे हम जेम्स और कांट की तरह इसकी निंदा करते रहें या ह्यूम और शॉपेनहॉर की तरह उसकी पैरवी करते रहें हम उस पर नियंत्रण नहीं पा सकते।
मनोविश्लेषक मनोविकृति विज्ञान के नजरिए से कहा जा सकता है कि प्रत्येक व्यक्ति में आत्महत्या की संभावना, खुद को मारने की प्रवृत्ति रहती है जिसकी तीव्रता अलग-अलग व्यक्तियों में अलग-अलग होती है। निश्चित रूप में इस तीव्रता को मनोमितिकों ने कभी नहीं मापा और इसे मापने में दिक्कत स्पष्ट रूप में बहुत ज्यादा है। इस संभावना की तीव्रता की मात्रा यह मत करो, दूध छुड़ाई, यौन शिक्षा, बच्चों में वैमनस्य, माता-पिता द्वारा अस्वीकृति या अतिस्वीकृति और पर-निर्भरता के रूप में पारिवारिक वातावरण के कारण व्यक्ति में भय, चिंता, कुंठा, प्रेम और नफरत द्वारा शैशवकाल और प्रारंभिक बचपन में ही तय हो जाती है। जिन मामलों में मां के अत्यधिक प्रेम, पिता द्वारा तिरस्कार, भाई-बहन द्वारा प्रेरित हीनता के कारण व्यक्ति समाज के रिवाजों और लोकप्रथा के अनुरूप वयस्क जीवन के लिए तैयार नहीं हो पाता, वहां व्यक्ति में आत्महत्या की संभावना अधिक हो सकती है। दूसरे छोर पर ऐसा व्यक्ति है जिसके पालन-पोषण ने बुनियादी मानसिक विन्यास को कार्य गतिविधियों या अन्य गतिविधियों की ओर मोड़ दिया है, वहां व्यक्ति में आत्महत्या की संभावना बहुत कम होती है। लेकिन यह संभावना कितनी भी कम हो वयस्क जीवन की तकलीफें, मुसीबतें और कष्ट उसे इतना बढ़ा सकते हैं कि आत्महत्या एक निश्चित संभावना बन जाती है। आत्महत्या अहं का प्रकटीकरण है हालांकि यह अहं का ही विध्वंस है। यह अहं को पहुंचाई गई पीड़ा है जो अपराध के लिए क्षतिपूर्ति या चिंता से राहत के नाते मुक्ति का एकमात्र रूप हो सकती है, 'आनंद के सिध्दांत से आगे' की बात।
इस प्रकार मनोभाव आचरण की सरल विशेषताएं नहीं हैं जिनकी तत्काल स्थिति के अनुसार व्याख्या की जा सके। इनका व्यक्ति के जीवनवृत्त से ताल्लुक होता है। विषाद, दु:ख या ऐसी ही अन्य कोई अवस्था जिसका वर्णन दुर्खीम ने सामाजिक कारणों के आधार पर आत्महत्या के रूपात्मक वर्गीकरण के समय किया है, आत्महत्या के क्षण की अवस्था नहीं है। व्यक्ति में उनका लंबा इतिहास होता है और उसे आत्महत्या की ओर ले जाने वाला कोई तत्काल उद्दीपक प्रतीत हो सकता है। लेकिन इस तरह के उद्दीपक की परिणति तब तक आत्महत्या में नहीं हो सकती है, जब तक कि इसमें कार्य करने वाला आचरण पैटर्न से ही मौजूद न हो। सभी मानव कुंठा और निग्रह, पापबोध और चिंता की प्रक्रिया से गुजरते हैं। अत: एक निश्चित भावनात्मक दबाव में परिणति आत्महत्या में हो सकती है। कुछ व्यक्ति इस मार्ग को चुनते हैं। इसलिए जो व्यक्ति इस मार्ग को नहीं चुनते हैं उनमें चल रही इस प्रक्रिया की दुर्बलता की तुलना में आत्महंतक लोगों में चल रही प्रक्रिया की सघनता की जांच जरूरी है।
आज मनोविश्लेषकों के बीच सर्वाधिक स्वीकार किया जाने वाला विचार यह है कि आत्महत्या अधिकांशत: 'विस्थापन' है अर्थात जिसने व्यक्ति को बाधित किया है उसे मारने की इच्छा का शिकार वह व्यक्ति स्वयं बन जाता है या तकनीकी रूप में इस बात को इस तरह कहा जा सकता है : आत्महंता इंट्रोजेक्टेड पात्र की हत्या करता है और पात्र को मारने की इच्छा से उत्पन्न पापबोध का प्रायश्चित करता है। अहं की संतुष्टि हो जाती है और पराहं आत्महत्या द्वारा प्रशमित होता है।
आत्महत्या में प्रकट सभी मनोभावों की व्याख्या व्यक्ति के जीवनवृत्त, विशेष रूप में परिवार के जरिए बुनियादी मनोविन्यास के प्रवाह के संदर्भ में की जा सकती है। इस प्रकार दुर्खीम जिसे असंभव समझते थे वह संभव हो सकता है अर्थात आत्महत्याओं को प्रेरणाओं के आधार पर और बकौल उनके रूपात्मक वर्गीकरण किया जा सकता है। आत्महत्या के मनोभाव साइकोजेनिक होते हैं और साथ ही एक पाश्र्विक होते हैं क्योंकि मनोभाव संरचना की आधारशिला शैशव और बचपन में ही रख दी जाती है। ऐसा कहा गया है कि व्यक्ति आचरण को निर्धारित ही नहीं बल्कि अत्यधिक निर्धारित माना जाना चाहिए क्योंकि प्रारंभिक वर्षों के दौरान भावात्मक जीवन की मूल संरचना पर नियंत्रण पाना अपेक्षाकृत कठिन है। यह मान्यता कि आचरण अति निर्धारित है एक ऐसी स्थिति का प्रमाण हो सकती है जहां बुध्दि उसे दूसरी दिशा में ले जा सकती है।
आत्महत्यात्मक आचरण वह आचरण है जिसे दूसरी दिशा में नहीं ले जाया गया है। पुराने मनो वैज्ञानिक जख्मों और कुंठाओं का फिर से उफान जीवन के मौजूदा और भावी अर्पण से भारी पड़ जाता है। लेकिन यह अन्वेषण जरूरी है कि यह उफान किस वजह से आता है। हां, अगर यह तर्क हो कि व्यक्ति के लिए जीवन में चाहे जितना कुछ हो उसकी आत्महत्या की संभावना इतनी प्रबल है कि उसे देर-सबेर कामयाबी मिलेगी ही तो इस तरह के अन्वेषण की जरूरत नहीं है। इस प्रकार मृत्यु संवेग को जीतने के लिए व्यक्ति के संघर्ष को परिवार और क्लास रूप के जरिए शैशवावस्था या बचपन में जीती गई या अंशत: अथवा पूर्णत: हारी गई लड़ाई के रूप में देखा जा सकता है; या जो क्लिनिक अथवा विश्लेषण कक्ष में फिर से लड़ी जाती है जिसकी परिणति एक नए गतिरोध अथवा विजय में होती है।
इस बिंदु पर पहुंचकर मनोविश्लेषक मनोविकृति विज्ञान इस मुद्दे को सामाजिक क्षेत्र में ले जाने में विफल हो जाता है। इस विफलता का बुनियादी कारण मनोविश्लेषण का थैरेपी अर्थात मानसिक बीमारी के इलाज को अधिक महत्व देना है। जाहिर है कि इस तरह की थैरेपी वैयक्तिक होती है जिसमें व्यक्ति को अपनी अवचेतन इच्छाओं और आकांक्षाओं को पहचानना पड़ता है और यह देखना पड़ता है कि वे किस तरह से कुंठित हुईं और किस तरह से उनका दमन हुआ और इसने व्यक्ति को कितना मनोवैज्ञानिक नुकसान पहुंचाया। विश्लेषण कक्ष में 'मुक्त साहचर्य' (कई बार यह काम क्लिनिक में भी संभव है जब गहराई से विश्लेषण जरूरी न हो) के जरिए इस पहचान से व्यक्ति को पता चलता है कि वह इस तरह से आचरण क्यों कर रहा है। इससे वह तंत्रिका रोग सघनता के दायरे में अपने आचरण को नए चैनलों में मोड़ पाता है।
इस प्रकार थैरेपी आवश्यक तौर पर वैयक्तिक होती है और व्यक्ति को अपने आचरण के प्रेरणा तत्व को इकट्ठा करके सामने रखना होता है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि तंत्रिका रोग में सामाजिक तत्व कारण के रूप में मौजूद नहीं रहता। तथाकथित सामान्य व्यक्ति द्वारा की गई आत्महत्या में हमेशा गंभीर तंत्रिका रोगी तत्व मौजूद रहते हैं और उनका इलाज वैयक्तिक तत्व के रूप में ही किया जाना चाहिए लेकिन उसके कारण व्यक्ति के सामाजिक जीवनवृत्त में गहरे छिपे हो सकते हैं।
सामाजिक अनुसंधान के लिए बुनियादी समस्या व्यक्ति आत्महंतकों और इसके लिए प्रयास करने वालों के जीवनवृत्त को समाजविज्ञानिक चरों के साथ जोड़ना होना चाहिए और यह इस परिकल्पना के साथ कि निश्चित सामाजिक वातावरण आत्महत्या की संभावना को (1) प्रेरित कर सकता है या (2) कायम रख सकता है या (3) उसे बदतर किया जा सकता है। यदि हम आंकड़ों के आधार पर दिखा सकें कि कुछ सामाजिक परिस्थितियां आत्महत्या या आत्महत्या के प्रयास को प्रेरित करती हैं, कायम रखती हैं या बदतर बनाती हैं तो हम इनके घटित होने के बारे में सामान्य नियम बना सकते हैं।
दुर्खीम की दलील थी कि आत्महत्याओं में व्यक्ति व्यवहार के प्रकारों के बारे में निश्चित होकर ही हम सामाजिक तत्व के रूप में आत्महत्या का रोग हेतु विज्ञानिक विश्लेषण नहीं कर सकते। दुर्खीम में मनोविज्ञानिक निष्कर्षों के इस्तेमाल की अथक क्षमता थी और अब हम अच्छी तरह से समझ सकते हैं और उनके काम में इस तरह की मिसाल हैं कि वह अपने समाजविज्ञानिक विश्लेषण की मनोविश्लेषण के साथ संगति बिठाने का प्रयास करते थे।
नीचे आज अनुसंधान के लिए कुछ परिकल्पनाएं दी गई हैं। इन परिकल्पनाओं की आधारभूत बड़ी बुनियादी परिकल्पना यह है कि आत्महत्यात्मक आचरण सहज मनोवैज्ञानिक आवेग और सामाजिक प्रपात का योग है।
आंकड़े एकत्रित करने की समस्या : हमें समरूप नमूने प्राप्त करने की संभावना का पता लगाना चाहिए ताकि एक जैसी सामाजिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों की तुलना की जा सके। उनके बीच जो आत्महत्या करते हैं और जो नहीं करते हैं। यहां बहुत पेचीदा प्रणालीविज्ञानिक समस्या उभर कर सामने आती है और वह यह कि भावात्मक स्तर पर सामाजिक पृष्ठभूमि की क्या कोई पहचान है। जब तक हमारे पास सभी का सुलभ, सही और मेहनत के साथ दर्ज किया गया मनोविकृति संबंधी जीवनवृत्त नहीं होगा तब तक हम आत्महत्या के बारे में विश्वसनीय आंकड़े एकत्रित नहीं कर सकते। इसके लिए जीवनकाल के शुरू से ही व्यक्ति के जीवन को प्रभावित करने वाले अंतरंग पारिवारिक जीवन को रिकार्ड करना जरूरी है।
परिवार के बारे में परिकल्पना : आत्महत्या का प्रयास करने वालों या आत्महत्या करने वालों का भावात्मक पैटर्न शैशव और प्रारंभिक बचपन में ही पारिवारिक संबंधों द्वारा निर्धारित हो जाता है। परिवार में समाजीकरण सभी के लिए कुंठा का स्रोत है। इसलिए आत्महत्या सब के लिए संभावित छुटकारा मार्ग है। आत्महत्या से जुड़े बाद के सामाजिक कारकों और प्रारंभिक भावात्मक बनावट के बीच संबंध खोजना जरूरी है।
इसके अलावा आत्महंतकों और आत्महत्या का प्रयास करने वालों के जीवनवृत्तों और उनके परिवार पालन-पोषण स्वरूप जैसे कि प्रजाति समूह, धार्मिक संबध्दता, आय समूह, परिवार आकार, परिवार में व्यक्ति आत्महंतक के स्थान, शिक्षा स्तर के बीच अंत:संबंध स्थापित करना जरूरी है।(क्रमशः)

विचारों की बंद गली में नहीं रहते मुसलमान

          कारपोरेट मीडिया  और अमेरिकी साम्राज्यवाद के इशारे पर इस्लाम और मुसलमान को जानने की कोशिश करने वालों को इनके बारे में अनेक किस्म के मिथों से गुजरना पड़ेगा। मुसलमान और इस्लाम के बारे में आमतौर पर इन दिनों  हम जिन बातों से दो-चार हो रहे हैं वे अमेरिका के संस्कृति उद्योग के कारखाने में तैयार की गई हैं।
    अमेरिकी संस्कृति उद्योग ने मिथ बनाया है इस्लाम का अर्थ है अलकायदा,तालिबान या ऐसा ही कोई आतंकी खूंखार संगठन। दूसरा मिथ बनाया है मुसलमान का । इसका अर्थ है बम फोड़ने वाला, अविश्वनीय,संदेहास्पद, हिंसक,हत्यारा, संवेदनहीन,पागल,देशद्रोही ,हिन्दू विरोधी, ईसाई विरोधी, आधुनिकताविरोधी ,पांच वक्त नमाज पढ़ने वाला आदि । तीसरा मिथ बनाया है इस्लाम में विचारों को लेकर मतभेद नहीं हैं। मुसलमान भावुक धार्मिक होते हैं। ज्ञान-विज्ञान, तर्कशास्त्र, बुद्धिवाद आदि से इस्लाम और मुसलमान को नफ़रत है। मुसलमानों के बीच में एक खास किस्म का ड्रेस कोड होता है। बढ़ी हुई दाढ़ी,लुंगी,पाजामा,कुर्ता,बुर्का आदि।
       कहने का अर्थ यह है कि अमेरिकी संस्कृति उद्योग के कारखाने से निकले इन विचारों और मिथों के आधार पर मुसलमान और इस्लाम को आप सही रूप में नहीं जान सकते। इन मिथों को नष्ट करके ही इस्लाम और मुसलमान को सही रूप में जान और समझ सकते हैं। कारपोरेट मीडिया और अमेरिकी संस्कृति उद्योग द्वारा निर्मित मिथों के परे जाकर मुसलमान और इस्लाम को सहानुभूति और मित्रता के आधार पर देखने की जरूरत है।
   अमेरिकी साम्राज्यवाद ने विभिन्न तरकीबों के जरिए विगत 60-70 सालों में सारी दुनिया में मुसलमानों और इस्लाम के खिलाफ जहरीला प्रचार करने के लिए दो स्तरों पर काम किया है। पहला है प्रचार या प्रौपेगैण्डा का स्तर। दूसरा , विभिन्न देशों में मुसलमानों में ऐसे संगठनों के निर्माण में मदद की है जिनका इस्लामिक परंपराओं से कोई लेना-देना नहीं है। इस काम में अनेक इस्लामिक देशों खासकर सऊदी अरब के सामंतों के जरिए रसद सप्लाई करने का काम किया गया है,इसके अलावा अनेक संगठनों को सीधे वाशिंगटन से भी पैसा दिया जा रहा है। आज भी तालिबान और दूसरे संगठनों को सीआईए ,पेंटागन आदि एजेंसियां विभिन्न कारपोरेट कंपनियों के जरिए मदद पहुँचा रही हैं।
      कहने का तात्पर्य यह है कि अमेरिकी साम्राज्यवाद और संस्कृति उद्योग की इस्लाम और मुसलमान के विकृतिकरण में भूमिका की अनदेखी करके इस्लाम पर कोई भी बात नहीं की जा सकती। अमेरिकापंथी और यहूदीवादी कलमघिस्सुओं के द्वारा निर्मित मिथों को नष्ट करके ही इस्लाम और मुसलमान के बारे में सही समझ बनायी जा सकती है। इस संबंध में इस्लामिक देशों की देशज दार्शनिक ,धार्मिक परंपराओं और आचारशास्त्र का भी ख्याल रखना होगा।
    संस्कृति उद्योग ने मिथ बनाया है कि इस्लाम में दार्शनिक मतभेद नहीं हैं। यह बात बुनियादी तौर पर गलत है। इस्लाम दर्शन को लेकर इस्लामिक विद्वानों में गंभीर मतभेद हैं। समस्या यह यह है कि हम इस्लाम और मुसलमान को नक्ल के आधार पर देखते हैं या अक्ल के आधार पर देखते हैं ? अमेरिका के संस्कृति उद्योग ने नक्ल यानी शब्द या धर्मग्रंथ के आधार पर इस्लाम और मुसलमान को देखने पर जोर दिया है और इसके लिए उसने इस्लाम में पहले से चली आ रही नक्लपंथी परंपराओं का दुरूपयोग किया है,उन्हें विकृत बनाया है। इस्लाम में अक्ल के आधार पर यानी बुद्धि और युक्ति के आधार पर देखने वालों की लंबी परंपरा रही है। इसे सुविधा के लिए इस्लाम की भौतिकवादी परंपरा भी कह सकते हैं।
    राहुल सांकृत्यायन ने ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ नामक ग्रंथ में कुरान के बारे में लिखा है कि ‘‘ कुरान की भाषा सीधी-सादी थी। किसी बात के कहने का उसका तरीका वही था,जिसे कि हर एक बद्दू अनपढ़ समझ सकता था।इसमें शक नहीं उसमें कितनी ही जगह तुक,अनुप्रास जैसे काव्य के शब्दालंकारों का ही नहीं बल्कि उपमा आदि का भी प्रयोग हुआ है, किन्तु वे प्रयोग भी उतनी ही मात्रा में हैं ,जिसे कि साधारण अरबी भाषाभाषी अनपढ़ व्यक्ति समझ सकते हैं। ’’ यानी कुरान की जनप्रियता का कारण है उसका साधारणजन की भाषा में लिखा होना।
   पैगम्बर साहब ने जैसा सोचा और लिखा था उसी दिशा में इस्लामिक दर्शन का विकास नहीं हुआ बल्कि इसकी धारणाओं और मान्यताओं में दुनिया के संपर्क और संचार के कारण अनेक बुनियादी बदलाव भी आए हैं। राहुलजी ने लिखा है ‘‘ पैगंबर के जीते-जी कुरान और पैगंबर की बात हर एक प्रश्न के हल करने के लिए काफी थी। पैगंबर के देहान्त (622ई.) के बाद कुरान और पैगंबर का आचार (सुन्नत या सदाचार) प्रमाण माना जाने लगा। यद्यपि सभी हदीसों (पैगंबर-वाक्यों,स्मृतियो) के संग्रह करने की कोशिश शुरू हुई थी,तो भी पैगंबर की मृत्यु के बाद एक सदी बीतते-बीतते अक्ल (बुद्धि) ने दखल देना शुरू कर किया, और अक्ल(बुद्धि ,युक्ति) और नक्ल ( शब्द,धर्मग्रंथ) का सवाल उठने लगा।  हमारे यहां के मीमांसकों की भांति इस्लामिक मीमांसकों -फिक़ावाले फ़क़ीहों- का भी इस पर जोर था,कि कुरान स्वतः प्रमाण है,उसके बाद पैगंबर-वाक्य तथा सदाचार प्रमाण होते हैं।’’
      फ़िक़ा के चार मशहूर आचार्य हुए हैं। इमाम अबू हनीफा,इमाम मालिक,इमाम शाफ़ई और इमाम अहमद इब्न -हंबल। हनफ़ी और शाफ़ई दोनों मतों में क़यास या दृष्टान्त के द्वारा किसी निष्कर्ष पर पहुँचने पर जोर दिया गया। इमाम अहमद इब्न हंबल ने हंबलिया सम्प्रदाय फ़िक़ा की नींव ड़ाली और कहा कि ईश्वर साकार है।
    जबकि इमाम शाफ़ई (767-820ई.) ने शाफ़ई नामक फ़िक़ा सम्प्रदाय की नींव ड़ाली और सुन्नत या सदाचार पर ज्यादा जोर दिया। इसके अलावा इमाम अबू-हनीफ़ा ( 767ई.) कूफा (मेसोपोतामिया) के रहने वाले थे ,इनके अनुयायियों को हनफ़ी कहा जाता है। इनका भारत में बहुत जोर है। जबकि इमाम मालिक (715-95ई.) मदीना निवासी थे। इनके अनुयायी मालिकी कहे जाते हैं। स्पेन और मराकों के मुसलमान पहले सारे मालिकी थे। इमाम मालिक ने पैगंबर-वचन(हदीस) को धर्मनिर्णय में  बहुत जोर के साथ इस्तेमाल किया, जिसका परिणाम यह हुआ कि विद्वानों ने हदीसों को जमा करना शुरू कर दिया, और हदीसवालों (अहले-हदीस) का एक प्रभावशाली समुदाय बन गया।
     इस्लाम में मतभेदों यानी फित्नों की लंबी परंपरा है। सैंकड़ों सालों से इस्लाम में दार्शनिक वाद-विवाद चल रहा है। वे विचारों की बंद गली में नहीं रहते। वहां पर दुनिया के विचारों की रोशनी दाखिल हुई है। साथ ही इस्लाम ने दुनिया के अनेक देशों की संस्कृति और सभ्यता को प्रभावित किया है। अन्य देशों की संस्कृति और सभ्यता से काफी कुछ ग्रहण किया है।
      अमेरिकी संस्कृति उद्योग का मानना है कि इस्लाम इकसार धर्म है । यह धारणा बुनियादी तौर पर गलत है। राहुलजी के अनुसार इस्लाम में दार्शनिक स्तर पर मतभेद रखने वाले चार बड़े सम्प्रदाय हैं। ये हैं, 1.हलूल - जिसकी नींव इब्न-सबा (सातवीं सदी) ने रखी थी। इब्न-सबा यहूदी धर्म त्यागकर मुसलमान बना था। वह हजरत अली (पैगंबर के दामाद) में भारी श्रद्धा रखता था। इसने हलूल (अर्थात जीव अल्लाह में समा जाता है) का सिद्धांत निकाला था। इब्न-सबा के बाद सीआ और दूसरे सम्प्रदाय पैदा हुए ,यह पुराना सीआ सम्प्रदाय है, इनमें उस वक्त ज्यादातर मतभेद कुरान और पैगंबर-सन्तान के प्रति श्रद्धा और अश्रद्धा पर निर्भर थे। सीआ लोगों का कहना था कि पैगंबर के उत्तराधिकारी होने का हक उनकी पुत्री फातिमा और अली की सन्तान को है। कालान्तर में सन् 1499-1736 के बीच में ईरान में सफावी वंश के शासन के दौरान सीआ मत को राज-धर्म घोषित कर दिया गया। इन लोगों ने मोतज़ला और सूफियों से अनेक बातें ग्रहण कीं।
   इस्लाम धर्म में दूसरा बड़ा नाम है अबू-यूनस् ईरानी (अजमी) का। यह पैगंबर के साथियों (सहाबा) में से था। इसने यह सिद्धांत निकाला कि जीव काम करने में स्वतंत्र है,यदि काम करने में स्वतंत्र न हो ,तो उसे दण्ड नहीं मिलना चाहिए।
    तीसरा नाम है जहम बिन् -सफ़वान का। उनका कहना था अल्लाह सभी गुणों या विशेषणों से रहित है।यदि उसमें गुण माने जाएंगे तो उसके साथ दूसरी वस्तुओं का अस्तित्व मानना पड़ेगा। इनके विचार कुछ मामलों में शंकराचार्य से मिलते -जुलते हैं। इस्लाम में चौथा मतवाद अन्तस्तमवाद (बातिनी) ईरानियों (अजमियों) का था। इनके अनुसार कुरान में जो कुछ कहा गया है उसके दो अर्थ दो प्रकार के होते हैं- एक है बाहरी (जाहिरी) ,दूसरा है बातिनी (आन्तरिक या अन्तस्तम)। इस सिद्धान्त के अनुसार कुरान के हर वाक्य का अर्थ उसके शब्द से भिन्न किया जा सकता है, तथा इस प्रकार सारी इस्लामिक परंपरा को ही उलटा जा सकता है। इस सिद्धांत के मानने वाले जिन्दीक़ कहे जाते हैं। जिनके ही तालीमिया(शिक्षार्थी) ,मुलहिद् ,बातिनी,इस्माइली आदि भिन्न-भिन्न नाम हैं।आगाखानी मुसलमान इसी मत के अनुयायी हैं।  



















शनिवार, 30 अक्तूबर 2010

आओ मुसलमानों से प्यार करें

               मैं बाबा रामदेव को प्यार करता हूँ। मोहन भागवत को भी प्यार करता हूँ।मदर टेरेसा, सोनिया गांधी,मनमोहन सिंह,प्रकाश कारात को भी प्यार करता हूँ। वैसे ही हिन्दुस्तान के हिन्दुओं, ईसाईयों, सिखों,जैनियों,बौद्धों को भी प्यार करता हूँ। इन सबके साथ मैं मुसलमानों को भी प्यार करता हूँ।
    मेरा मानना है इस संसार में मनुष्य से घृणा नहीं की जा सकती,उसी तरह पशु-पक्षियों से भी नफरत नहीं की जा सकती। मुझे मोहन भागवत एक मनुष्य के नाते प्रिय हैं। संघ के नाते मैं उनका आलोचक हूँ। इसी तरह बाबा रामदेव मनुष्य ने नाते ,एक योगी के नाते प्रिय हैं। एक योगव्यापारी के नाते मैं उनका आलोचक हूँ। इसी तरह मुझे पंकजझा और उनके तमाम संघभक्त दोस्त भी प्रिय हैं। वे मेरे शत्रु नहीं हैं। मैं नहीं समझता कि वे अपनी तीखी प्रतिक्रियाओं से कोई बहुत बड़ा अपकार कर रहे हैं। वे मनुष्य प्राणी के नाते हमारे बंधु हैं ।
     हिन्दुओं में कुछ लोग मेरे लेखन से असहमत हों। वे इस कारण तरह-तरह के निष्कर्ष निकाल रहे हैं। मैं निजी तौर पर उनका भी शुक्रगुजार हूँ जो मुझमें बुखारी देख रहे हैं। वे अभी न जाने क्या -क्या नहीं बना देंगे। क्योंकि मैं उनके गंभीर विचारों को अपनी आलोचना से डिस्टर्व कर रहा हूँ। वे बेहद परेशान हैं।
     उनका मानना है कि मैं इतना खराब हिन्दू क्यों हूँ जो हिन्दू होकर हिन्दुओं के जो तथाकथित गौरवपुरूष हैं उनकी आलोचना लिख रहा हूँ। मैं यहां किसी से यह प्रमाणपत्र लेना या उसे प्रमाणपत्र देना नहीं चाहता कि कौन कितना बड़ा हिन्दू है। कौन सही हिन्दू हैं या मुसलमान हैं । यह आपकी अपनी निजी मान्यता की समस्या है। इसके लिए किसी को प्रमाणपत्र देने का ठेका नहीं दिया जा सकता।
     हिन्दुओं में जो लोग आलोचनात्मक विवेक की हत्या करने,हिन्दुओं में हिन्दुत्व के नाम पर गुलामी की भावना,अंधराष्ट्रवाद, हिन्दुत्व की अंधी होड़ में झोंकने के लिए जिम्मेदार हैं ,उन्हें हम कभी क्षमा नहीं कर सकते।  उनके प्रति हमारा आलोचनात्मक रूख हमेशा रहेगा। हिन्दू कभी विचारअंध नहीं रहे हैं।
      हिन्दुत्व के प्रचारकों ने विचार अंधत्व पैदा किया है। हिन्दू धर्म में विचारों की खुली प्रतिस्पर्धा ती परंपरा रही है और यह परंपरा उन लोगों ने ड़ाली थी जो लोग कम से कम आरएसएस में कभी नहीं रहे।
      संघ परिवार और उसके संगठनों के विचारों की उम्र बहुत छोटी है। हिन्दू विचार परंपरा में वे कहीं पर भी नहीं आते। वे हिन्दुत्व के नाम पर आम लोगों में पराएपन का प्रचार कर रहे हैं , घृणा पैदा कर रहे हैं। इसके लिए मुझे किसी प्रमाण देने की जरूरत नहीं हैं। हिन्दुत्व के नए सिपहसालारों ने जिस तरह के व्यक्तिगत और विषय से हटकर अपने विचार मेरे लेखों पर व्यक्त किए हैं। वे इस बात का प्रमाण हैं कि संघ परिवार की विचारधारा अंततः किस तरह घृणा के प्रचारक तैयार कर रही है।
     प्रवक्ता डॉट कॉम लोकतांत्रिक मंच है और उसे इस रूप में काम जारी रखना चाहिए। मेरा विनम्र अनुरोध है कि जो लोग मेरे लेखों पर अपनी राय बेबाक ढ़ंग से देना चाहते हैं वे विषय पर अपनी राय दें और व्यक्ति के रूप में  मुझे केन्द्र में रखकर न दें।
     मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ कि हिन्दूशास्त्रों की शिक्षा मुझे श्रेष्ट हिन्दू विद्वानों से मिली है,उसी तरह मार्क्सवाद की भी शिक्षा श्रेष्ठ मार्क्सवादी विद्वानों से मिली है। एक हिन्दू के जितने संस्कार होने चाहिए वे मेरे भी हुए हैं।
    मैं जानता हूँ कि संघ के अधिकांश मतानुयायी हिन्दू धर्म के अधिकांश पूजा-पाठ, विधि-विधान,मंत्रोपासना,देवपूजा आदि के बारे में किसी भी किस्म की हिन्दूशास्त्र में वर्णित परंपरा का पालन नहीं करते।
     जो लोग हिन्दुत्व के नाम पर उलटी-सीधी बातें मेरे लेखों पर लिख रहे हैं वे ठीक से एक धार्मिक हिन्दू की तरह चौबीस घंटे आचरण तक नहीं करते। हिन्दुत्ववादी यदि एक अच्छे हिन्दूपंथानुयायी भी तैयार करते तो भारत की और हिन्दू समाज की यह दुर्दशा न होती।
    हिन्दुत्ववादियों की हिन्दू धर्म के उत्थान में कोई रूचि नहीं है। वे हिन्दू धर्म के मर्म का न तो प्रचार करते हैं और नहीं आचरण करते हैं। इस मामले में वे अभी भी कठमुल्ले इस्लामपरस्तों से पीछे हैं। आश्चर्यजनक बात यह है कि हिन्दुत्ववादियों ने अपने को राष्ट्रवाद, फासीवाद, साम्प्रदायिकता,हिन्दु उत्थान,हिन्दू एकता आदि के बहाने हिन्दुत्ववादी राजनीति से जोड़ा है।
       उल्लेखनीय है हिन्दुओं के लिए ज्ञान में श्रेष्ठता का वातावरण बनाने में सघ परिवार की कभी भी कोई सकारात्मक भूमिका नहीं रही है। बल्कि संघ परिवार अन्य फासिस्ट संगठनों की तरह बौद्धिकता और बुद्धिजीवियों से घृणा करना सिखाता रहा है। बेसिर-पैर की हांकने वाले गपोडियों को प्रोत्साहन देता रहा है। संघ के विचारों का हिन्दी के बुद्धिजीवियों और लेखकों पर कितना असर है,इसे जानकर ही उनके विचारों की शक्ति का अंदाजा लगा सकते हैं। हिन्दी में अधिकांश बड़े लेखक-साहित्यकार संघ के प्रभाव से आज भी मुक्त है। संघ के पास पांच बड़े श्रेष्ठ हिन्दी लेखक और समीक्षक नहीं हैं।
     संघ परिवार की विचारधारा से प्रभावित हिन्दी में शिक्षक मिल जाएंगे लेकिन बड़े प्रतिष्ठित साहित्यकार मुश्किल से मिलेंगे। हिन्दुत्ववादी बताएं इसका क्या कारण है ? हमारे  संघ भक्त जबाब दें कि प्रेमचंद को बोल्शेविक क्रांति क्यों पसंद थी और वे साम्प्रदायिकता से घृणा क्यों करते थे ?
     मैं नहीं जानता कि संघ परिवार के लोगों को मुसलमानों से खासतौर पर नफरत क्यों हैं ? मैं निजी तौर पर मुसलमानों और इस्लाम से बेहद प्यार करता हूँ। मैं निजी तौर पर बुद्धिवादी हिन्दू हूँ और हिन्दूधर्म की तमाम किस्म की रूढ़ियों को नहीं मानता। मुझे हिन्दूधर्म की बहुत सी अच्छी बातें पसंद हैं। पहली ,हिन्दू धर्म अन्य किसी धर्म के प्रति घृणा करना नहीं सिखाता। हिन्दू धर्म ने अन्य धर्मों के प्रति घृणा का नहीं प्रेम का संदेश दिया है। इसी तरह वर्णाश्रम व्यवस्था के जो बाहर है ,उनके प्रति घृणा की बात कहीं नहीं लिखी है। खासकर मुसलमानों के खिलाफ किसी भी किस्म के घृणा से भरे उपदेस नहीं मिलते।
     इसके विपरीत हिन्दूधर्म के विभिन्न मत-मतान्तरों और सृजनकर्मियों पर इस्लाम का गहरा प्रभाव दर्ज किया गया है। मुझे इस्लाम धर्म की कई बातें बेहद अच्छी लगती हैं । इन बातों को हमारे हिन्दुत्ववादियों को भी सीखना चाहिए। प्रथम,जो मनुष्यों को गुमराह करते हैं वे शैतान कहलाते हैं। दूसरी बात ,मनुष्य सिर्फ एकबार जन्म लेता है।
    इसके अलावा जो चीज मुझे अपील करती है वह है इस्लामी दर्शन की किताबों का गैर इस्लामिक मतावलंबियों के द्वारा किया गया अनुवाद कार्य और उनके प्रति इस्लाम मताबलंबियों का प्रेम।
   एक मजेदार किस्से का मैं जिक्र करना चाहूँगा। गैर मुस्लिम अनुवादक अपने धर्म को बदलना नहीं चाहते थे। हमें जानना चाहिए कि इन अनुवादकों के संरक्षकों की नीति क्या थी ? इसका अच्छा उदाहरण है इब्न जिब्रील का। खलीफा मंसूर (754-75 ई.) ने एक बार  जिब्रील से पूछाकि ,तुम मुसलमान क्यों नहीं हो जाते,उसने उत्तर दिया- ‘‘अपने बाप-दादों के धर्म में ही मरूँगा। चाहे वे जन्नत (स्वर्ग)में हों ,या जोज़ख (नरक) में,मैं भी वहीं उन्हीं के साथ रहना चाहता हूँ।’’ इस पर खलीफा हँस पड़ा,और अनुवादक को भारी इनाम दिया। इस घटना का जिक्र महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ नामक ग्रंथ में किया है।
    इस्लाम दर्शन की हिन्दू दर्शनशास्त्र की तरह विशेषता है कि इस्लाम दर्शन की विभिन्न धारणाओं को लेकर मतभिन्नता। इस्लाम दर्शन इकसार दर्शन नहीं है। यहां अनेक नजरिए हैं। यह धारणा गलत है कि समूचा इस्लाम दर्शन किसी एक खास नजरिए पर जोर देता है।
     राहुल सांकृत्यायन की ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ किताब का जिक्र मैं खासतौर पर करना चाहूँगा और अपने पाठकों से अनुरोध करूँगा कि वे इसे जरूर पढ़ें। हिन्दी में राहुल सांकृत्यान ने पहलीबार इस्लाम दर्शन और धर्म पर बेहद सुंदर और प्रामाणिक ढ़ंग से लिखा था।
     जिस तरह हिन्दुओं में धर्मशास्त्र है और उससे जुड़ा वैविध्यपूर्ण आचारशास्त्र है वैसे ही इस्लाम में भी वैविध्यपूर्ण आचारशास्त्र है। उनके यहां आचारशास्त्र के अनेक महान ग्रंख लिखे गए हैं। इस्लाम में ऐसे भी मतावलंबी है जो आस्था के पैमाने से इस्लाम को देखते हैं और ऐसे भी विचार स्कूल हैं जो बुद्धिवाद के पैमाने के आधार पर इस्लाम धर्म को व्याख्यायित करते हैं।
    यह कहना गलत है कि मुसलमान सिर्फ धार्मिक आस्था के लोग होते हैं। सच यह है कि उनके यहां मध्यकाल से लेकर आधुनिककाल तक बुद्धिवादियों की लम्बी परंपरा है। ऐसी ही परंपरा हिन्दू धर्म के मानने वालों में भी है। मुझे इस्लाम की बुद्धिवादी परंपरा से प्यार है। यह ऐसी परंपरा है जिससे समूची दुनिया प्रभावित हुई है। आओ हम यह जानें कि मुसलमान कठमुल्ला ही नहीं होता बल्कि बुद्धिवादी भी होता है। इस्लाम के धार्मिक और आचारगत मतभेदों में विश्वास करता है। उनके यहां भी विवेकवाद की परंपरा है।






जॉर्ज सिंपसन- उसने अपनी जान क्यों ली ? - 2-

  आत्महत्या पर दुर्खीम के काम के बाद से इस विषय में हमारी जानकारी बीमा संबंधी आंकड़ों और मनोविश्लेषक मनोविकृति विज्ञान से आई है। दुर्खीम के अपने दृष्टिकोण को उसके छात्र और मित्र मोरिस हल्बवाच्स ने अपनी लेस कॉजिज डु सुइसाइड में आगे बढ़ाया है, उसकी जांच की है और उसे लागू किया है। यहां खुलासे के लिए नोट किया जाना चाहिए (जैसा कि पार्सन्स ने जिक्र किया है) कि हल्बवाच्स के अनुसार आत्महत्या के सामाजिक और मनोविकृति वैज्ञानिक स्पष्टीकरण में ऐसा कोई विरोध नहीं है जैसा कि दुर्खीम ने देखा है, बल्कि ये तो एक दूसरे के पूरक हैं।
बीमाविदों ने आत्महत्या के सकल विस्तार प्रवृत्तियों का अध्ययन किया है और उसे प्रजाति और रंग प्रभाव, उम्र और लिंग विभाजन, शहरी और ग्रामीण क्षेत्र, मौसम स्वरूप (इन्हें दुर्खीम ने कॉस्मिक तत्व कहा है), आर्थिक स्थितियों, धार्मिक संबध्दता, वैवाहिक स्थिति से जोड़ा है। लेकिन बीमाविदों ने आत्महत्या के कारणों की कोई पक्की, सुसंगत और व्यवस्थित परिकल्पना विकसित नहीं की। दुर्खीम इसी तरह की परिकल्पना विकसित करना चाहते थे। इस बारे में बीमाई काम का गंभीर संग्रह लुईस आई. डबलिन और बैसी बनजेल की पुस्तक टु बी ऑर नॉट टु बी  में मिलता है। लेकिन अपनी व्याख्याओं के लिए डबलिन और बनजेल को मनोविकृति विज्ञान और मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान में आधुनिक प्रगति का सहारा लेना पड़ा है।
दुर्खीम अभिप्रेरणाओं को लेकर आत्महत्या संबंधी आंकड़ों के बारे में इस आधार पर संदेह व्यक्त करते हैं कि महत्वपूर्णसांख्यिकीय कार्यालयों में ये आंकड़े अप्रशिक्षित परिगणकों द्वारा तैयार किए जाते हैं और आत्मघातकों द्वारा अपने कृत्यों के जो कारण बताए जाते हैं वे अविश्वनीय होते हैं। लेकिन सामान्य रूप में आत्महत्या पर आंकड़ों की अपर्याप्तता को मनोविश्लेषकों ने बड़े प्रभावी ढंग से व्यक्त किया है। ग्रेगरी जिलबुर्ग का यह कहना है : '...आत्महत्या के बारे में आंकड़े जिस ढंग से एकत्रित किए जाते हैं उनकी विश्वसनीयता, यदि कोई है तो, बहुत कम है। इस समस्या को वैज्ञानिक छात्रों ने बार-बार कहा है कि आत्महत्या का सांख्यिकीय मूल्यांकन नहीं किया जा सकता क्योंकि बहुत सी आत्महत्याओं की सूचना ही नहीं दी जाती। जो लोग सड़क दुर्घटना द्वारा स्वयं को मारते हैं उन्हें कभी आत्महत्या नहीं बताया जाता। आत्महत्या के प्रयास के दौरान जिन लोगों को गंभीर चोटें पहुंचती हैं और जो इन चोटों या इनफेक्शन से सप्ताहों या महीनों बाद मरते हैं, उन्हें कभी आत्महत्या के रूप में पंजीकृत नहीं किया जाता। बहुत सी वास्तविक आत्महत्याएं परिवार द्वारा छिपा ली जाती है। और आत्महत्या के प्रयास चाहे कितने भी गंभीर क्यों न हों, उन्हें महत्वपूर्ण सांख्यिकीय तालिकाओं में शामिल नहीं किया जाता। जाहिर है कि इन परिस्थितियों में उपलब्ध सांख्यिकीय आंकड़ों में बहुत कम और संभवत: अत्यधिक कम प्रातिनिधिक आत्महत्याओं को शामिल किया जाता है। इसलिए समस्या के वैज्ञानिक मूल्यांकन में इन्हें लगभग व्यर्थ मानकर छोड़ देना उचित है।'
इसके अलावा ब्रिल और मैनिंगर का अनुसरण करते हुए फ्रेनिचेल ने 'आंशिक आत्महत्याओं' के प्रचलन की बात की है जिसमें मृत्यु तो नहीं होती लेकिन 'जो विषादपूर्ण अवस्थाओं में स्वयं सजा के रूप में और विभ्रम की अभिव्यक्ति करने वाले या विवेकहीन आत्म विनाशक कृत्य होते हैं।' फ्रेनिचेल के अनुसार, 'आंशिक आत्महत्या की बात बिलकुल सही है क्योंकि इसके पीछे काम करने वाला अचेतन तंत्र आत्महत्या के तंत्र जैसा है।स्पष्ट है कि इन 'आंशिक आत्महत्याओं' को आत्महत्या संबंधी आंकड़ों में कभी शामिल नहीं किया जाता। कारण, विज्ञान की दृष्टि से ये सफल आत्महत्याओं जैसे हैं; लेकिन उन सबके बारे में फ्रेनिचेल का कथन है : 'ये तत्व निश्चित रूप में मात्रात्मक हैं और इस बात को तय करते हैं कि क्या और कब इनकी परिणति आत्महत्या के रूप में होगी, किसी उन्मादी हमले के रूप में या स्वास्थ्य लाभ के रूप में। लेकिन ये तत्व अभी भी अज्ञात हैं।'
जिन अवस्थाओं में सांख्यिकीय नियमितता निश्चित लगती है, उनके बारे में भी प्रणाली विज्ञानी यह लिखता है : 'दीर्घकालिक मानव आचरण में सांख्यिकीय नियमितता इसलिए असाधारण होती है क्योंकि यह ऐसे कृत्यों में अभिव्यक्त होती है जो कुछ यांत्रिक ताकतों के परिणाम नहीं होते हैं जैसे कि घूमते हुए सिक्के का इधर-उधर जाना बल्कि जो बहुत जटिल किस्म के सघन निर्णय होते हैं।' इसके बाद वह न्यूयार्क शहर में स्त्री आत्महत्या संबंधी आंकड़े देता है।
मानना पड़ेगा कि जब तक हमारे पास मनोविकार संबंधी बेहतर रिकार्ड और अधिक गंभीर सांख्यिकीय वर्गीकरण नहीं होगा तब तक हम आयु, जातीय समूह, सामाजिक हैसियत आदि की नियमितता के बारे में कोई पक्का निष्कर्ष नहीं निकाल सकते। एक उदाहरण के तौर पर हम बता सकते हैं कि दुर्खीम, डबलिन और बनजेल और अन्य बाल आत्महत्या के बारे में कुछ खास बात नहीं करते जबकि जिलबुर्ग इसे विशेष अध्ययन का विषय मानते हैं।
आंकड़ों की अविश्सनीयता का एक और परिणाम यह है कि इसने इस काफी व्यापक निष्कर्ष को जन्म दिया है कि सभ्यता के विकास के साथ आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ती है। इस स्थापना का जिलबुर्ग ने गंभीर विरोध किया है। उसका निष्कर्ष है कि स्पष्ट तौर पर आत्महत्या 'उतनी ही पुरानी है जितनी कि मानव जाति, यह संभवत: उतनी पुरानी है जितनी कि हत्या और निश्चित रूप में उतनी पुरानी है जितनी कि स्वाभाविक मृत्यु। जाति का सांस्कृतिक जुड़ाव जितना कम है इसमें आत्महत्या का मनोवेग उतना ही गहरा होता है (इटेलिक्स मूल में नहीं) ... आत्महत्या का जहां तक प्रश्न है आज का मनुष्य अपने पूर्वजों के मुकाबले अधिक अपूर्ण है। उनके पास आत्महत्या संबंधी विचारधारा थी, मिथक शास्त्र और श्रेष्ठ तकनीक थी।' जिलबुर्ग ने एक परंपरागत, लगभग सहज पूर्वग्रह की बात की है जिसके दो प्रमुख तत्वों में से एक यह 'भ्रांति है कि हमारी सभ्यता के विकास के साथ आत्महत्या दर बढ़ती है, कुछ अज्ञात तरीके से सभ्यता हमारे भीतर आत्महत्या प्रवृत्तियों का पोषण करती है।'
स्टीनमैज का कथन जिलबुर्ग के विचार को बल देता है। आदिवासी लोगों में आत्महत्या के अपने अध्ययन के आधार पर स्टीनमैज इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि 'मैं जो आंकड़े एकत्रित कर पाया हूं, उससे यह संभाव्य लगता है कि सभ्य आवामों के बनिस्वत असभ्य आवामों में आत्महत्या के प्रति अधिक झुकाव होता है।' आत्महत्या और आंशिक आत्महत्या के बारे में पर्याप्त आंकड़े मिल जाने के बाद भी स्टीनमैज का निष्कर्ष कायम रहेगा, यह उस समय तक अबूझी पहेली बना रहेगा तब तक कि हम अविश्वसनीय अभिलेखन और निराधार मान्यता के झाड़-झंखाड़ को नहीं हटा देंगे।
यह सही है कि प्रेरणा विश्लेषण और भावनात्मक जीवन की बुनियादी विशेषताओं को पकड़ने की दिशा में आधुनिक प्रगति से दुर्खीम नावाकिफ थे। जब लि सुइसाइड प्रकाशित हुई, उस समय मानव व्यवहार में 'अचेतन' के प्रेरणा बल का फ्रायड का अन्वेषण शुरू ही हुआ था। इसके चौथाई सदी बाद और लगातार नैदानिक पुष्टीकरण के पश्चात उसके विचारों को व्यापक मान्यता मिली। उस समय एमिल दुर्खीम हमारे बीच नहीं रहे। लेकिन लि सुइसाइड के आधी सदी बाद भी मनोविश्लेषक मनोविकृति विज्ञान ने मानक प्रेरणा संबंधी क्रांतिकारी निष्कर्षों को समाजविज्ञानिक खोजों के साथ जोड़ने की दिशा में कुछ खास नहीं किया (जिलबुर्ग के कुछ उत्तम उल्लेख इसके अपवाद हैं)। वास्तव में कुछ मनोविश्लेषक हैं जिनकी मान्यता लगती है कि शैशवकाल में बने व्यवहार के कुछ पैटर्नों पर सामाजिक तत्वों का बिलकुल भी गंभीर प्रभाव नहीं पड़ता और तंत्रिकाओं का सामाजिक विश्लेषण से उपचार नहीं किया जा सकता। यह विचार इस मान्यता पर आधारित लगता है कि चिकित्सा वैयक्तिक होती है और होनी चाहिए। मानसिक रुग्णता मानस के विकास से जुड़ी होती है इसलिए व्यक्ति की केस हिस्टरी का कोई सामाजिक कारण विज्ञान नहीं होता। कार्ल ए. मैनिंगर ने इस प्रवृत्ति का एक उदाहरण दिया। प्रचुर केस हिस्टरी आंकड़ों और अपने व्यापक और प्रामाणिक चिकित्सीय कार्य के बल पर मैनिंगर 'सोशल टेकनीक इन दि सर्किल ऑफ रिकंस्ट्रक्शन' शीर्षक अध्याय में कुछेक शब्द कह पाता है और ये कुछेक शब्द भी इस निष्कर्ष के साथ समाप्त होते हैं कि आत्महंता प्रेरणा बल पर मनुष्य द्वारा स्वयं नियंत्रण का आह्वान करके मृत्युवृत्ति का जीवनवृत्ति से विरोध कराया जाना चाहिए। लेकिन मैनिंगर इन आत्महंता प्रेरणा बलों और इन्हें उभारने वाले सामाजिक तत्वों के बीच संबंध का विश्लेषण नहीं कर पाता और यह भी नहीं बता पाता कि इन प्रेरणा बलों पर काबू पाने के लिए किन सामाजिक तत्वों को मजबूत किया जाना चाहिए या आगे लाया जाना चाहिए।
                                                     (क्रमशः)

एमिल दुर्खीम की महान कृति आत्महत्या का हिन्दी में प्रकाशन

   विख्यात फ्रांसीसी समाजशास्त्री एमिल दुर्खीम के चार बड़े कामों में से केवल लि सुइसाइड अनुवाद के लिए बचा है। दि एलिमेंटरी फार्म ऑफ दि रिलिजियस लाइफ पहली बार 1915 में अंग्रेजी में छपी; दि डिविजन ऑफ लेबर इन सोसाइटी 1933 में और दि रूल्स ऑफ सोशियोलोजिकल मैथड 1938 में। लि सुइसाइड को पहली बार छपे पचास वर्ष से अधिक हो गए हैं लेकिन समाजशास्त्रीय, सांख्यिकीय और मनोवैज्ञानिक क्षेत्रों में इसके प्रति दिलचस्पी किसी पुराने काम के प्रति दिलचस्पी से कहीं अधिक है। सामाजिक विचारधारा की दृष्टि से इसका ऐतिहासिक महत्व ही अंग्रेजी पाठक संसार में इसे ले जाने का पर्याप्त कारण बन जाता है। समाजशास्त्र में यह पुस्तक मील का पत्थर है और फ्रांस में शैक्षिक समाजशास्त्र की आधारशिला रखने वाले और उसे सुदृढ़ करने वाले और फ्रांस के बाहर दुनिया को प्रभावित करने वाले व्यक्ति को समझने के लिए अपरिहार्य है। इसे देखते हुए इसका बहुत पहले अनुवाद हो जाना चाहिए था।
आज हमारी सांख्यिकीय सामग्री अधिक परिष्कृत और व्यापक है और दुर्खीम के मुकाबले हमारा सामाजिक मनोवैज्ञानिक तंत्र बेहतर स्थापित है, लेकिन आत्महत्या पर उनका काम विषय को आंकड़ों, तकनीकों और संचित ज्ञान के साथ पकड़ने की दृष्टि से आज भी एक आदर्श है। उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशक में जब दुर्खीम अपने काम में शामिल अन्वेषण कर रहे थे उस समय इस या अन्य किसी विषय के बारे में सांख्यिकीय सूचना के भंडार (सरकारी या निजी) बहुत कम, अपर्याप्त या खस्ता हालत में थे। अपनी स्वाभाविक ऊर्जा और कुछ छात्रों की, विशेषकर मार्सेल मॉस की मदद से दुर्खीम ने सामान्य समस्या और इसकी आंतरिक तफसील से जुड़े सवालों का उत्तर खोजने के लिए उपलब्ध आंकड़ों को फिर से संजोया। उस समय सांख्यिकीय तकनीक बहुत कम विकसित थी। अपनी लेखन-यात्रा में दुर्खीम को नए तकनीकों का अन्वेषण करना पड़ा। सांख्यिकीय तकनीकों के गाल्टन और पियरसन जैसे अन्वेषकों को छोड़कर सामान्य सह-संबंधों के तत्वों की किसी को जानकारी नहीं थी। बहु और आंशिक सह-संबंध की भी यही स्थिति थी। इसके बावजूद दुर्खीम ने प्रणाली विज्ञानिक अध्यवसाय और अनुमिति द्वारा आंकड़ों की शृंखलाओं में संबंध स्थापित किया।
दुर्खीम द्वारा बनाई गई तालिकाओं को अनुवाद में यथावत रख दिया गया है। सांख्यिकीय प्रस्तुतीकरण के मौजूदा मानकों के अनुसार उन्हें तब्दील करने का कोईप्रयास नहीं किया गया है। इस तरह से उनका अपना ऐतिहासिक मूल्य और अपनी विशेषता है। उनको अलंकृत करने से उस वातावरण का पता नहीं चलता जिसमें उन्हें आवश्यकतानुसार तैयार करना पड़ा। हालांकि हाल के आंकड़े उपलब्ध हैं, लेकिन अपने आंकड़ों के जरिए दुर्खीम जो सूचना देना चाहते थे वह आज भी समाजशास्त्रियों और सांख्यिकीविद के लिए दिलचस्पी का विषय है। वास्तव में (आत्महत्या पर सैनिक जीवन के प्रभाव के बारे में) एक तालिका को एक सर्वोत्तम पत्रिका में आत्महत्या पर हाल ही के एक निबंध में यथावत ले लिया गया।1
अपने ऐतिहासिक और प्रणाली वैज्ञानिक अभिप्राय के अलावा लि सुइसाइड का महत्व अपनी विषयवस्तु और उसे पकड़ने के समाजशास्त्रीय ढंग में भी निहित है। दुर्खीम यह स्थापित करना चाहते हैं कि जो बात हमें अत्यधिक वैयक्तिक और व्यक्तिगत तत्व लगती है वास्तव में उसके बीज सामाजिक ढांचे और समाज पर उसके प्रभाव में निहित होते हैं। मनोविकृति विज्ञान पर क्रांतिकारी निष्कर्ष और समकालीन सांख्यिकीविदों के श्रेष्ठ आंकड़े भी इस समस्या को पूरी तरह से पकड़ नहीं पाए हैं। हम परिचय में इस बारे में अधिक विस्तार से बात करेंगे।
ऐसे भी लोग हैं जो सामाजिक कारण-कार्य संबंध के क्षेत्र में अब भी लि सुइसाइड को सर्वोत्कृष्ट नहीं तो उत्कृष्ट रचना मानते हैं। साथ ही ज्ञान के समाजशास्त्र के रूप में जाने जाने वाले क्षेत्र में दुर्खीम ने अहंभाव परार्थता और एनोमी में अनुस्यूत सामूहिक चेतना अवस्थाओं के साथ विचार-व्यवस्थाओं को संबध्द करने का जो प्रयास इस पुस्तक में किया है वह कम महत्वपूर्ण नहीं है।
अंत में लि सुइसाइड सामाजिक व्याख्या के दुर्खीम के बुनियादी सिध्दांतों को मूर्त रूप में दरशाती है। उनके सामाजिक यथार्थवाद, जो समाज को उसके हिस्सों के योग से कहीं अधिक बड़ा मानता है, और उससे जुड़ी सामूहिक प्रतिरूप और सामूहिक चेतना की अवधारणा को यहां एक विशेष समस्या क्षेत्र पर लागू किया गया है और इसके बहुत अच्छे परिणाम निकले हैं। क्योंकि दुर्खीम ने न केवल प्रणालीवैज्ञानिक और स्वत: शोध प्रणाली सिध्दांत तैयार किए (विशेष रूप से दि रूल्स ऑफ सोशियोलोजिकल मेथड) बल्कि काफी बड़े क्षेत्र में अनुसंधान द्वारा उनकी परख भी की। वह कभी इस बात से इनकार नहीं करते कि उनके काम में कुछ जोड़ना, संशोधन करना और हमारे ज्ञान में इजाफा करना जरूरी होगा क्योंकि वह वैज्ञानिक प्रयास को एक सामूहिक काम मानते थे जिसके निष्कर्ष एक पीढ़ी द्वारा दूसरी पीढ़ी को सौंपे जाते हैं और इस प्रक्रिया द्वारा उनमें सुधार लाया जाता है।
यह अनुवाद दुर्खीम की मृत्यु के तरह वर्ष बाद और 1897 में पहले संस्करण के तैंतीस वर्ष बाद 1930 में प्रकाशित संस्करण से किया गया है। इस संस्करण का पर्यवेक्षण मार्सेल मॉस ने किया। यहां अपने संक्षिप्त परिचय में प्रोफेसर मॉस ने बताया कि पुनर्मुद्रण विधि के कारण मुद्रण और संपादन संबंधी कुछ गलतियों को दूर करना संभव नहीं था। डॉ जॉन ए. स्पॉल्डिंग की मदद से मैंने पाठय और सांख्यिकीय पड़ताल द्वारा जहां पता लग सका है और उन्हें दूर करने का प्रयास किया है।
यहां अनुवाद के पाठ के लिए मैं पूरी जिम्मेदारी लेता हूं। डॉ. स्पॉल्डिंग और मैंने पहले मसौदे पर काम किया। उसके बाद हम दोनों ने दूसरे मसौदे पर काम किया। लेकिन अंतिम परिवर्तन अकेले मैंने किए हैं।
मेरे एक छात्र श्री जेरोम एच. कोलनिक ने टंकित प्रति और प्रूफरीडिंग में मेरी मदद की है। उन्होंने केवल रुटीन काम नहीं किया है और उनके बहुत से सुझाव मेरे लिए बहुत मूल्यवान सिध्द हुए हैं।
दि सिटी कॉलेज, न्यूयॉर्क    जॉर्ज सिंपसन
1 नवंबर 1950
  ( एमिल दुर्खीम-आत्महत्या,अनुवादक-रामकिशन गुप्ता,ग्रंथ शिल्पी,बी-7 सरस्वती कॉम्प्लेक्स,सुभाष चौक,लक्ष्मी नगर,दिल्ली-110092)

जॉर्ज सिंपसन- उसने अपनी जान क्यों ली ? - 1-

    (आज के ‘टाइम्स ऑफ इण्डिया’ के कोलकाता संस्करण में आत्महत्या की दो खबरें छपी हैं। इस तरह की खबरें आए दिन मीडिया में आती रहती हैं। लोग आत्महत्या क्यों करते हैं और इससे कैसे बचा जाए इस पर हमारे पास बहुत कम जानकारी है। सामान्य रूप में आंध्र और महाराष्ट्र के किसानों ने कर्ज के कारण जब आत्महत्याएं कीं तो आम लोगों का इस समस्या की ओर ध्यान गया और हमारे मीडिया विशेषज्ञों ने इस पर कुछ लिखा भी। लेकिन आत्महत्या एक गंभीर सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक समस्या है। यहां पर हम महान प्रसिद्ध समाजशास्त्री एमिल दुर्खीम की महान कृति ‘आत्महत्या’ के कुछ अंश प्रकाशित कर रहे हैं,जिससे इस फिनोमिना को समझने में मदद मिले। एमिल दुर्खींम की इस महान किताब को ग्रंथशिल्पी ने छापा है। इसका अनुवाद रामकिशन गुप्ता ने किया है। इस किताब की भूमिका जॉर्ज सिंपसन ने लिखी है,पेश है,वह भूमिका)
   सामाजिक और प्राकृतिक तत्व के साथ आत्महत्या के अंतर्संबंध का एमिल दुर्खीम का फलक इतना व्यापक और विविध है कि इसके सभी मार्गों और उन मार्गों को इस छोटे से परिचय में शामिल करना संभव नहीं है। एक नातिदीर्घ वॉल्यूम में दुर्खीम ने सामान्य और असामान्य मनोविज्ञान, सामाजिक मनोविज्ञान, मानवशास्त्र (विशेष रूप में प्रजाति की अवधारणा), मौसमी और अन्य 'अंतरीक्षी' तत्वों, धर्म, विवाह, परिवार, तलाक, प्राचीन अनुष्ठानों और रिवाजों, सामाजिक और आर्थिक संकटों, अपराध (विशेषकर नरहत्या) और कानून और कानूनशास्त्र, इतिहास, शिक्षा और व्यावसायिक समूहों पर विचार किया है या उन्हें स्पर्श किया है। लेकिन इसके बावजूद एक अल्प मूल्यांकन संभव है क्योंकि आत्महत्या के इन सभी सहायक विषयों पर काम करते समय दुर्खीम की यह मान्यता रही है कि आत्महत्या, जो कि व्यक्ति से जुड़ा तत्व लगती है, का वास्तव में कारण सामाजिक ढांचे और उसके कार्यकरण में देखा जा सकता है।
दुर्खीम की पुस्तक के शुरुआती अध्यायों में उन सिध्दांतों का खंडन किया गया है जिनमें आत्महत्या के कारणों को समाजेतर बताया गया है जैसे कि मानसिक परायापन, मानवशास्त्रीय अध्ययन के अनुसार प्रजातीय विशेषताएं, आनुवंशिकता, जलवायु तापमान। अंत में उन्होंने 'अनुकरण' के सिध्दांत को नकारा है, विशेष रूप में गैब्रिएल टोर्ड के सिध्दांत को जिसके उस समय फ्रांस में बहुत अनुयायी थे और जिसके खिलाफ दुर्खीम ने शिष्टता के दायरे में जबर्दस्त अभियान छेड़ा हुआ था। इन प्रारंभिक अध्यायों में दुर्खीम दरकिनार करने की प्रक्रिया में लगे हुए हैं। जो सिध्दांत आत्महत्या के लिए व्यक्तिगत या अन्य समाजेतर कारणों का सहारा लेते हैं उन्हें निरस्त कर दिया जाता है। केवल सामाजिक कारणों को विचार के लिए छोड़ दिया जाता है। इसके आधार पर उस सिध्दांत की स्थापना की जाती है जिसका जिक्र उन्होंने अपने परिचय में किया है और वह यह कि आत्महत्या दर अद्वितीय तत्व है अर्थात किसी भी समाज में आत्महत्याओं की समग्रता एक अलग, विशिष्ट तथ्य है जिसका अध्ययन उसकी अपनी स्थितियों के अनुसार किया जा सकता है।
दुर्खीम के अनुसार आत्महत्या की व्याख्या उसके वैयक्तिक रूपों में नहीं की जा सकती और आत्महत्या दर अपने आप में एक विशिष्ट तत्व है। इसलिए वह आत्महत्या के प्रवाहों को सामाजिक सहचर तत्वों से जोड़ते हैं। दुर्खीम के अनुसार किसी भी वैयक्तिक आत्महत्या के कारणों का इन सामाजिक सहचर तत्वों के आलोक में ही पता लगाया जा सकता है।
धार्मिक संबध्दता, विवाह और परिवार और राजनीतिक और राष्ट्रीय समुदायों का अध्ययन करते हुए दुर्खीम आत्महत्या की अपनी तीन श्रेणियों में से पहली अर्थात अहंकारी   आत्महत्या के निष्कर्ष तक पहुंचते हैं। इस तरह की आत्महत्या व्यक्ति के समाज से न जुड़ पाने के कारण होती है। किसी समाज में व्यक्ति को अपनी हालत पर छोड़ देने की प्रवृत्ति जितनी अधिक बलवती होगी उसमें आत्महत्या दर उतनी ही अधिक होगी। धार्मिक समाज के मामले में आत्महत्या दर कैथोलिकों में सबसे कम है। ये लोग उस धर्म के अनुयायी हैं जो व्यक्ति को बहुत नजदीक से सामूहिक जीवन के साथ जोड़ता है। प्रोटेस्टेंटवाद की दर अधिक है और इसका ताल्लुक वहां मौजूद अत्यधिक व्यक्तिवाद से है। वास्तव में विज्ञान और ज्ञान में प्रगति, जो कि प्रोटेस्टेंटवाद के अंतर्गत लौकिकीकरण का हिस्सा है, ने मनुष्य के सामने संसार की परतें खोलने के साथ-साथ समूह से व्यक्ति की संबध्दता को विखंडित किया। यह स्थिति उच्च आत्महत्या दर के रूप में प्रकट होती है।
दुर्खीम के अनुसार अहंकारी आत्महत्या उस अवस्था में भी देखी जा सकती है जहां व्यक्ति का परिवार जीवन के साथ कम एकीकरण है। परिवार में जितनी अधिक सघनता होगी व्यक्तियों की आत्महत्या से निरापदता उतनी ही अधिक होगी। आत्महत्या दर के स्पष्टीकरण में जीवनसाथी की व्यक्तिगत विशेषताओं का कोई महत्व नहीं है। यह परिवार की संरचना और इसके सदस्यों द्वारा अदा की गई भूमिका पर आधारित है। राजनीतिक और राष्ट्रीय समुदायों के मामले में दुर्खीम की स्थापना है कि बड़े संकटों के दौरान आत्महत्या दर गिर जाती है क्योंकि उस समय समाज अधिक जुड़ा होता है और व्यक्ति अधिक सक्रिय रूप से सामाजिक जीवन में हिस्सा लेता है। उसका अहं कम हो जाता है और जीने की इच्छा मजबूत हो जाती है।
सामाजिक समूहों ने एकीकरण की मात्रा के अनुरूप आत्महत्या दर में परिवर्तन की स्थापना के बाद दुर्खीम उन समाज-समूहों में आत्महत्या के तथ्य पर विचार करते हैं जहां व्यक्ति का अपेक्षाकृत अधिक एकीकरण है जैसे कि निचले समाज में। यहां व्यक्ति के जीवन पर रिवाजों और आदतों का कड़ा शासन होता है। ऐसे समाज में होनेवाली आत्महत्या को दुर्खीम परार्थवादी बताते हैं। यहां व्यक्ति धार्मिक बलिदान या विवेकहीन राजनीतिक निष्ठा से जुड़े उच्च आदेशों के कारण अपनी जान लेता है। आधुनिक समाज में इस तरह की आत्महत्या दुर्खीम सेना में पाते हैं जहां आज्ञाकारिता के प्राचीन रूप आज भी प्रचुर रूप में मौजूद हैं।
अहंकारी आत्महत्या और परार्थवादी आत्महत्या को समाज में व्यक्ति के एकीकरण की मात्रा का सूचक माना जा सकता है। पहले मामले में व्यक्ति पर्याप्त से कम रूप में और दूसरे मामले में पर्याप्त से अधिक रूप में एकीकृत होता है। दुर्खीम के विचार से एक अन्य प्रकार की आत्महत्या होती है जो समाज द्वारा व्यक्ति का विनियमन न किए जाने का परिणाम होती है। इसे उन्होंने एनोमिक आत्महत्या कहा है जो आधुनिक अर्थव्यवस्था के साथ आई। व्यक्ति की आवश्यकताएं और उनकी संतुष्टि समाज द्वारा विनियमित होती है। स्वयं द्वारा सीखे गए आम विश्वास और प्रथाएं उसे बकौल दुर्खीम सामूहिक चेतना का हिस्सा बना देते हैं। व्यक्ति के इस तरह विनियमन में जब गड़बड़ी पैदा होती है और उसका क्षितिज उसकी सहनशक्ति से अधिक विस्तृत हो जाता है या इसके विपरीत बेहद सिकुड़ जाता है तो एनोमिक आत्महत्याएं बहुत अधिक हो जाती हैं।
    उदाहरण के लिए, दुर्खीम अचानक दौलत आ जाने को आत्महत्या के प्रेरक के रूप में देखते हैं और यह इस आधार पर कि नया दौलतमंद व्यक्ति स्वयं को मिले अवसरों के साथ गति नहीं रख पाता। उसकी इच्छाओं की उच्च और निम्न सीमाओं, उसके जीवन के पैमाने सब में गड़बड़ी पैदा हो जाती है। दुर्खीम के अनुसार तलाक के रूप में वैवाहिक एनोमी में भी इसी तरह की स्थिति पैदा होती है। जीवनसाथियों पर समाज का विनियमनकारी प्रभाव समाप्त हो जाता है। तलाकशुदाओं में आत्महत्या दर अपेक्षाकृत अधिक होती है। यह एनोमिक स्थिति तलाकशुदा स्त्रियों के बजाए तलाकशुदा पुरुषों में अधिक देखने को मिलती है क्योंकि दुर्खीम के अनुसार विवाह के विनियमनकारी प्रभाव से पुरुष अधिक लाभान्वित होता है।
अपने विश्लेषण में इस बिंदु पर पहुंचकर दुर्खीम दावा करते हैं कि आत्महत्या के वैयक्तिक रूपों का समुचित रूप में वर्गीकरण किया जा सकता है। कारण, विज्ञान के आधार पर तीन रूपोंअहंकारी, परार्थवादी और एनोमिक की स्थापना के बाद उनका कहना है कि इनमें से किसी रूप के अंतर्गत आने वाले व्यक्ति के व्यवहार पैटर्न का वर्णन किया जा सकता है। इसके विपरीत व्यक्ति टाइप का अन्वेषण करके आत्महत्या के कारणों का पता लगाना दुर्खीम के मूल दावे के अनुसार निरर्थक है। तीन अलग प्रकार के वैयक्तिक रूपों को तालिकाबध्द करने के बाद दुर्खीम यह स्थापित करते हैं कि आत्महत्या के ऐसे वैयक्तिक रूप भी मिलते हैं जो मिश्रित प्रकार के होते हैं जैसे कि अहंकारी एनोमिक, परार्थ एनोमिक और अहंकारी परार्थवादी।

इस प्रकार स्वयं को उपलब्ध आंकड़ों को दुर्खीम जैविक या कॉस्मिक नहीं बल्कि परिवार, राजनीतिक और आर्थिक समाज, धार्मिक समूहों जैसे सामाजिक तत्वों से संबध्द पाते हैं। उनका दावा है कि इस संबध्दता से निर्णायक रूप में यह संकेत मिलता है कि प्रत्येक समाज का आत्महत्या के प्रति सामूहिक झुकाव होता है और आत्महत्या की एक दर होती है। प्रत्येक समाज के लिए यह स्थिति काफी स्थिर होती है और तब तक चलती रहती है जब तक कि उसके अस्तित्व की बुनियादी स्थिति यथावत बनी रहती है। दुर्खीम का विश्वास है कि यह सामूहिक झुकाव उनकी पुस्तक दि रूल्स ऑफ सोशियोलॉजिकल मेथड में दी गई सामाजिक तथ्य की उनकी परिभाषा के अनुरूप है। अर्थात यह झुकाव व्यक्ति से परे अपने आप में एक सचाई है जो उस पर दबाव डालती है। संक्षेप में, आत्महत्या के प्रति वैयक्तिक झुकाव की वैज्ञानिक व्याख्या उसे सामूहिक झुकाव से जोड़ कर ही की जा सकती है और यह सामूहिक झुकाव अपने आप में समाज संरचना, जिसमें व्यक्ति रहता है, का निश्चित प्रतिबिंब है।
दुर्खीम के विचार से जीवन के बारे में वैयक्तिक विचारों की समग्रता वैयक्तिक विचारों के जोड़ से अधिक है। इसका अपने आप में अस्तित्व है। इसे उन्होंने सामूहिक चेतना, विश्वासों और प्रथाओं, लोकमार्ग और लोकाचार की समग्रता कहा है। यह आम भावनाओं का भंडार है, एक जलस्रोत है जिससे व्यक्ति-चेतना को अपना नैतिक आहार मिलता है। जहां ये आम भावनाएं कठोरता के साथ व्यक्ति का मार्गदर्शन करती है, जैसा कि कैथोलिकवाद में, और अपना जीवन लेने की निंदा करती हैं, वहां आत्महत्या दर कम होती है; जहां ये सामान्य भावनाएं वैयक्तिकतावाद, नवोन्मेष और स्वच्छंद विचार पर बल देती हैं, वहां व्यक्ति पर नियंत्रण ढीला पड़ जाता है। वह समाज के साथ बहुत कमजोर रूप में बंधा होता है। उसे बहुत आसानी से आत्महत्या की ओर धकेला जा सकता है। बाद वाली स्थिति प्रोटेस्टेंटवाद में पाई जाती है। दुर्खीम के अनुसार, निम्न समाजों में सामूहिक चेतना में व्यक्ति जीवन का बहुत कम मूल्य होता है और आत्महत्या के रूप में आत्मदाह वास्तव में व्यक्ति में समाज के सक्रिय होने का प्रतिबिंब है और उच्च समाजों में जहां व्यक्ति सामान्य भावनाओं और विश्वासों के जरिए एक स्थिति का आदी हो जाता है वह स्थिति एक समय गड़बड़ा जाती है। फलस्वरूप एनोमी पैदा होती है जो बढ़ी हुई आत्महत्या दर में प्रकट होती है।
दुर्खीम के अनुसार आत्महत्या अपने आप में अपराध की तरह अनैतिकता की सूचक नहीं है। वास्तव में एक निश्चित समाज में आत्महत्याओं की एक निश्चित संख्या की अपेक्षा रहती है। यदि कहीं यह दर तेजी से बढ़ती है तो यह सामूहिक चेतना के ध्वस्त हो जाने और सामाजिक ताने-बाने में बुनियादी कमी का लक्षण है। जैसा कि कुछ अपराध विज्ञानियों ने दावा किया है, आत्महत्या और आपराधिकता सह-संबध्द नहीं हैं। हालांकि यदि दोनों बहुत ज्यादा हो जाएं तो यह इस बात का संकेत होगा कि सामाजिक संरचना ठीक से काम नहीं कर रही है।
दुर्खीम का मानना है कि उन्नीसवीं शताब्दी में आत्महत्या दर में जो तेजी से वृध्दि हुई उसे शिक्षा, उपदेशों या दमन से कम नहीं किया जा सकता। दुर्खीम के अनुसार, सभी सुधारात्मक उपायों का लक्ष्य सामाजिक संरचना होनी चाहिए। अहंकारी आत्महत्या को सामूहिक जीवन में व्यक्ति को फिर एकीकृत करके और मजबूत सामूहिक चेतना के जरिए उसमें दृढ़ निष्ठा पैदा करके कम किया जा सकता है। उनका विचार है कि यह काम कार्यहितों के आधार पर व्यवसाय समूह, ठोस स्वैच्छिक संघ फिर से स्थापित करके काफी हद तक पूरा किया जा सकता है। अपनी डिविजन ऑफ लेबर इन सोसाइटी के दूसरे संस्करण में भी उन्होंने यही अनुशंसा की। व्यवसाय समूह से एनोमिक आत्महत्याओं को कम करने में भी मदद मिलेगी। वैवाहिक एनोमी के मामले में उन्होंने स्त्रियों की अधिक आजादी और समानता की पैरवी की है।
इस प्रकार दुर्खीम के अनुसार आत्महत्या आधुनिक समाज में गहरे संकट की सूचक है। किसी भी अन्य सामाजिक तथ्य के बारे में यही बात कही जा सकती है। उनके अनुसार किसी भी सामाजिक तथ्य को अन्य सामाजिक तथ्यों के आलोक में और समाज की बुनियादी संरचना के संदर्भ में ही    व्याख्यायित किया जा सकता है। (क्रमशः)
                         

शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2010

रोजे बूर्दरों - फासीवादी विचारधारा : व्याख्या का प्रयास

फासीवादी विचारधारा के कुछ सारभूत तत्व हैं जो निश्चित ही पर्याप्त सरल लगते हैं। वे ऐसी धारणाओं पर आधारित हैं जिन्हें उचित-अनुचित की परिधि में रखना कठिन हैं। देखा जाए तो उन्नीसवीं सदी के समस्त गैर समाजवादी राजनीतिक और सामाजिक विचारों से यहां वहां ले लेकर फासीवादी की बौद्धिक नींव रखी गई है। राष्ट्रीय एकीकरण के दौरान राष्ट्रवाद के दक्षिण और अति-दक्षिण को लोकप्रिय राष्ट्रवाद से जोड़कर फासीवादी का ढांचा बनाया गया है। उदाहरण के लिए 'संपूर्ण इटली' का आंदोलन जो इटली के एकीकरण के पहले से जारी था फासीवादी में समन्वित कर लिया गया था। फासीवादी में राज्य के सिद्धांत, वर्ग समन्वय, अच्छी और बुरी पूंजी जैसी धारणाओं में अनेक अनुदार और अतिवादी राजनीतियों के तत्व पहचाने जा सकते हैं। साथ ही व्यक्ति का उदात्तीकरण, उसकी क्षमता और सफलता का अंतरसंबंध, सामाजिक असमानता का स्रोत है। व्यक्तियों के गुणों और प्रतिभाओं में असमानता जैसे विचार उदारपंथी सोच की विरासत हैं। यह देखा जा सकता है कि फासीवादी कार्यक्रम में समाजवाद का प्रभाव दिखता भी हो तो विचारधारा के स्तर पर समाजवाद के प्रति तनिक भी सकारात्मक झुकाव नहीं दिखाई देता है। श्रम की गरिमा की बात है भी तो एक तो यह केवल समाजवाद तक सीमित नहीं है, दूसरे यह श्रमिकों के लुभाने के लिए ही लक्षित है। समाजवाद के एक भी मूलभूत लक्ष्यों, जैसे उत्पादन के साधनों का समाजीकरण या श्रमिकों की मुक्ति का फासीवाद की विचारधारा में कोई स्थान नहीं है क्योंकि यह विचारधारा है ही समाजवाद और मार्क्सवाद विरोधी।
इस तरह फासीवादी विचारधारा तरह-तरह के विचारों की खिचडी है बेमेल, और कह सकते हैं बेसमझी। समस्या पूंजीवादी समाज के विकास के दौरान विकसित विभिन्न विचारों के बीच की टकराहट से पैदा होती है।
मौलिकता का प्रथम सोपान है पहले से चले आ रहे विचारों का उग्रीकरण (रैडीकलाइजेशन) ।  सबसे उजागर उदाहरण है व्यक्ति की भूमिका। गुणों और प्रतिभा की असमानता की धारणा सारे मुखौटे उतार देती है और जहां तक इस सिद्धांत के परिणामों का प्रश्न है सामाजिक या नैतिक दर्शन का कोई तर्क स्वीकार नहीं करती। जहां उदारपंथ बीच का रास्ता अपनाते हुए मानव के शाश्वत मूल्यों की बात करते हुए व्यक्ति के अधिकार के संबंध में पड़ोसी के भी अधिकार की बात करता है और मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को पूरी तरह नकारता है, फासीवाद सारभूत असमानता के नाम पर, जिसे कुछ भी ठीक नहीं कर सकता, कमजोर पर मजबूत का प्रभुत्व और पहलों द्वारा दूसरों के शोषण को न्यायोचित करार देता है।यह उग्रता किसी विरासत को नहीं स्वीकारती। मार्क्सवाद का नकार तो उसका मुख्य उद्देश्य है ही वह किसी उदारपंथी परंपरा का भी ऋण नहीं स्वीकारती। इस विच्छेद की धारणा के साथ वह किसी भी उदार या अनुदार विचार से कोई संगतिसमझौता संभव नहीं मानती। फासीवाद मेहनतकशों की विचारधारा के संबंध में मार्क्सवाद और विभिन्न प्रकार की अन्य विचाराधाराओं को दो श्रेणी मान कर अपने को एक तीसरी ही श्रेणी अधिक मजबूत, अधिक शुध्द और एकमात्र प्रशंसनीय के रूप में प्रस्तुत करता है। वह दूसरों के लिए बहुत सख्त भाषा का इस्तेमाल करता हैटकराहट वाली या खंडन-मंडन वाली। मार्क्सवाद के संदर्भ में तो फासीवाद 'परजीवी' 'यहूदी षडयंत्र' की तरह की ऐसी भाषा इस्तेमाल करता है मानो मार्क्सवाद मानवविरोधी शैतान हो। इस क्रम में वह उन को भी लपेट लेता है जो मार्क्सवाद के 'कोढ़', 'जहर', 'कैंसर' को रोक नहीं सके।
इस तरह फासीवाद यथास्थिति को स्वीकारने वाली विचारधाराओं से अपने को भिन्न साबित करने के लिए उग्र अनुदारता और अतिरेक की तरह प्रस्तुत करता है। वह इस लोकप्रिय उग्र अनुदारता को दो स्तरों पर प्रस्तुत करता है :
      1.     वह ग्रासरूट-जन की मुखिया की सत्ता के साथ एकात्मता को अपनी वैधता का आधार बताता है। इसीलिए जनमत संग्रह को राजनीतिक उपकरण बताता है और राष्ट्रवाद की अंतर्वस्तु में सामाजिक और लोकप्रिय तत्व जोड़ता है।
      2.    वह समाजवाद और क्रांति की अंतर्वस्तु को नकारते हुए उन्हीं के शब्दों को लगातार इस्तेमाल करता है'सच्चा समाजवाद', 'सर्वहारा राष्ट्र' स्थापित करने के लिए। इस तरह प्रचलित पूंजीवादी और मार्क्सवादी दोनों धाराओं से अपने को अलग कर वह उनके प्रभाव से मुक्त कर जनता पर अपना प्रभुत्व कायम करना चाहता है।
फासीवाद की मौलिकता यह है कि अपने को एकदम नई, एकमात्र क्रांतिकारी, बुरे अतीत से छुटकारा दिलाने वाली, हर तरह के सामाजिक कैंसर से मुक्त कर एक राष्ट्रीय समुदाय निर्मित कर पाने में सक्षम एकमात्र शक्ति के रूप में प्रस्तुत करता है।
फासीवाद उन एकदम अस्वीकार्य असमानताओं को भी उनको स्वीकार करा देता है जो उससे सबसे अधिक उत्पीड़ित होते हैं। इस प्रकार फासीवादी ऐसी व्यवस्थाओं, जो मूल रूप से प्रतिक्रियावादी, जनवाद विरोधी, अभिजनवादी और सर्वसत्तावादी है, एक लोकप्रिय अंतर्वस्तु और रूप प्रदान करता है। यही फासीवाद की अंतर्निहित बेइमानी उजागर हो जानी चाहिए इसमें लगे व्यक्ति विशेष कितने ही ईमानदार क्यों न हो।
( साभार, फासीवाद : सिद्धांत और व्यवहार,लेखक- रोजे बूर्दरों,प्रकाशक- ग्रंथ शिल्पी, बी-7,सरस्वती काम्प्लेक्स,सुभाष चौक, लक्ष्मी नगर,दिल्ली-110092,मूल्य -275) 








फासिस्ट शब्दवीरों का अविवेकजगत

 आमतौर पर लोग पूछते हैं कि फासीवाद की भाषा का नमूना कैसा होता है ? फासीवाद पर जिन लोगों ने अकादमिक अध्ययन किया है और उसकी विभिन्न धारणाओं और पहलुओं की गंभीर मीमांसा की है उन विद्वानों को पढ़कर आप सहज ही पता कर सकते हैं कि फासीवाद की भाषा में सत्य की सबसे पहले हत्या की जाती है। सत्य की हत्या करने के लिए शब्दवीरों की सेना का इस्तेमाल किया जाता है। भाड़े पर शब्दवीर रखे जाते हैं ,ये शब्दवीर अहर्निश असत्य की उलटियां करते रहते हैं। गोयबेल्स और उनके भारतीय शिष्य भी यही काम कर रहे हैं। वे मीडिया के विभिन्न रूपों का असत्य के प्रचार-प्रसार के लिए दुरूपयोग कर रहे हैं।
     इन दिनों वेबपत्रिकाओं में भी इन शब्दवीरों को टीका-टिप्पणी करते हुए सहज ही देख सकते हैं। हमारे ब्लॉग पर भी ऐसे शब्दवीर बीच बीच में आते हैं। असभ्य और गैर अकादमिक भाषा के प्रयोग का प्रयोग करते हैं। शब्द वमन करते हैं और चले जाते हैं।
   प्रसिद्ध मार्क्सवादी सिद्धांतकार जार्ज लुकाच की एक शानदार किताब है ‘डिस्ट्रक्शन ऑफ रीजन’( बुद्धि का विध्वंस) इस किताब में लुकाच ने विस्तार के साथ उस सांस्कृतिक -बौद्धिक परंपरा को खोजने की कोशिश की है जिसके कारण फासीवाद के रूप में हिटलक का उदय हुआ था।
   लुकाच ने यह जानने की कोशिश की है कि आखिर वे कौन से कारण थे जो जर्मनी में फासीवाद को जनप्रिय बनाने में सफल रहे और किस तरह हिटलर ने अपने प्रौपेगैण्डा से द्वितीय विश्वयुद्ध की सृष्टि की। इस किताब में लुकाच ने नीत्शे की तीखी आलोचना की है,वह खुलेआम हिटलर का पक्ष लेता था और कम्युनिस्टों पर हमले बोलता था। मार्क्स-एंगेल्स के नाम पर अनाप-शनाप लिखता था। नीत्शे की आलोचना में जो बातें कही हैं वे भारत में फासीवाद  के पैरोकारों की भाषा को समझने में हमारी मदद हो सकती हैं।
नीत्शे के अंध कम्युनिस्ट विरोध की खूबी थी कि वह मार्क्स के नाम से कोई भी बात लिख देता था और कहता था यह मार्क्स ने लिखा है ,फिर उसकी आलोचना करता था,वह यह नहीं बताता था कि मार्क्स ने ऐसा कहां लिखा है।             
इसी प्रसंग में जार्ज लुकाच ने लिखा है कि फासीवादियों की विशेषता है कि वे बगैर किसी प्रमाण के किसी के भी नाम से कुछ भी लिख देते हैं। पहले वे असत्य की सृष्टि करते हैं,फिर असत्य को सत्य के रूप में प्रसारित करते हैं। वे बिना संदर्भ बताए अपनी बात कहते हैं।
    लुकाच ने विस्तार के साथ बताया है कि नीत्शे ने मार्क्स के नाम से जो कुछ लिखा था उसका उसने कभी प्रमाण नहीं दिया कि आखिर उसने मार्क्स का उद्धरण कहां से लिया है। भारत में भी फासीवाद के समर्थक ऐसा ही करते हैं। वे मनगढंत बातें लिखते हैं और फिर उनके ढिंढोरची पीछे से ढ़ोल बजाते रहते हैं कि क्या खूब लिखा-क्या खूब लिखा।
    फासीवाद के ढ़िंढोरची अच्छी तरह जानते हैं कि वे असत्य बोल रहे हैं लेकिन वे शब्दवीर गोयबेल्स की तरह मीडिया में,ब्लॉग पर,वेबपत्रिकाओं में पत्र लेखक या टिप्पणीकार के रूप में डटे रहते हैं और शब्दों की उलटियां करते हुए अपने कुत्सित सांस्कृतिक रूप का प्रदर्शन करते हैं। ऐसे ही लोगों के कारण भारत में भी ज्ञान और सत्य का दर्जा घटा है,असत्य और शब्दवीरों का दर्जा बढ़ा है। खासकर हिन्दी वेबपत्रिकाओं में ऐसे शब्दवीरों की इन दिनों बहार आई हुई है। इन शब्दवीरों को यह नहीं मालूम कि वे क्या कह रहे हैं और जो कह रहे हैं उसका अर्थ क्या है ? उसका सामाजिक असर क्या होगा ?  

जार्ज लुकाच ने यह भी रेखांकित किया है कि आधुनिक युग में फासीवाद यकायक नहीं आया था बल्कि उसका विचारधारात्मक आधार परंपरागत अविवेकवादी बौद्धिक परंपराओं ने तैयार किया था।
    भारत में जो लोग सोचते हैं कि हमारी पुरानी समस्त परंपरा सुंदर है,विवेकवादी है,वे गलत सोचते हैं। हमारे परंपरागत बौद्धिक लेखन में बहुत सारा हिस्सा ऐसा भी है जो अविवेकवादी है। फासीवादी शब्दवीर और संगठन इस अविवेकवादी परंपरा का जमकर दुरूपयोग करते हैं और अपने को हिन्दूधर्म के रक्षक के नाम पर पेश करते हैं। वे हिन्दू के नाम पर हिन्दुत्व का प्रचार कर रहे हैं और परंपरा के अविवेकवादी तर्कशास्त्र का अपने फासीवादी हितों के विस्तार के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं।
  जार्ज लुकाच ने लिखा है कि फासीवाद का आधार है अविवेकवादी विरासत का दुरूपयोग। सच यह है कि पुराने अविवेकवादी दार्शनिक फासिस्ट नहीं थे। वे नहीं जानते थे कि भविष्य में उनके लेखन का फासीवादी ताकतें दुरूपयोग करेंगी।
    रामकथा को बाल्मीकि या तुलसीदास ने भाजपा के सत्ताभिषेक या भारत को हिन्दू राष्ट्र सिद्ध करने के लिए नहीं लिखा था। संघ के फासीवादी क्रियाकलापों की वैधता या प्रमाण के लिए नहीं लिखा था।  अयोध्या राममंदिर के निर्माण के लिए नहीं लिखा था। संघ के राममंदिर आंदोलन के लिए नहीं लिखा था। इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बैंच के जजों के लिए नहीं लिखा था। रामकथा इसलिए नहीं लिखी गया थी कि उसके आधार पर बाबरी मसजिद गिरा दी जाए ।
    लेकिन फासिस्ट संगठनों ने रामकथा का दुरूपयोग किया,राम जन्म अयोध्या में हुआ,इस बात को प्रचारित करने के लिए मुसलमानों के खिलाफ घृणा और हिंसा का नंगा नाच दिखाया।कहने का तात्पर्य यह है कि फासीवाद प्राचीन बातों का मुखौटे के रूप में इस्तेमाल करता है। बर्गसां की कलाएं मुसोलिनी के लिए नहीं लिखी गयी थीं लेकिन बर्गसां की कलाओं का मुसोलिनी ने अपने प्रचार के लिए,अपने पक्ष में अर्थ खोजने के लिए दुरूपयोग किया था। लुकाच ने लिखा है फासीवादीचेतना की विशेषता है यथार्थ का का विकृतिकरण। इस विकृतिकरण को आप विभिन्न वेब पत्रिकाओं में हिन्दुत्ववादियों की प्रतिक्रियाओं में सहज ही देख सकते हैं।
फासीवादी प्रचारक कभी भी परांपरा को विकृत नहीं करते लेकिन उसमें से अपने अनुरूप अर्थ निकाल लेते हैं। संघ परिवार ने तुलसीदास के रामचरितमानस के पाठ को विकृत किए बिना राम अयोध्या में हुए यह बात अपने पक्ष में इस्तेमाल कर ली। यही काम फासिस्ट मुसोलिनी ने बर्गसां के संदर्भ में किया था।
   हिटलर ने भी यही काम किया था जिन बुद्धिजीवियों ने अकादमिक स्तर पर,सृजन के स्तर जो कुछ लिखा था उसे गली-मुल्लों और सड़कों पर उतार दिया। नीत्शे,स्पेंगलर, हाइडेगर आदि के साथ यही हुआ। वे जो बातें अकादमिक स्तर पर कर रहे थे हिटलर ने उन बातों को सड़कों पर उतार दिया।    
   अविवेकवादी विचारक ‘अंडरस्टेंडिंग’ और ‘रीजन’ में घालमेल करते हैं। वे इन्हें एक-दूसरे का पर्यायवाची बनाने की कोशिश करते हैं। जबकि इनमें द्वंद्वात्मक संबंध होता है। ये एक-दूसरे के पर्यायवाची नहीं हैं। लेकिन इस हथकंड़े का फासीवादी जमकर इस्तेमाल करते हैं।
    राम अयोध्या में हुए थे,यह पुरानी किताबों में समझ उपलब्ध है और इस समझ को फासीवादी तर्कशास्त्र का हिस्सा बनाकर संघ परिवार ने कहा कि राम वहीं हुए थे जहां बाबरी मसजिद है,इसके उनके पास प्रमाण हैं। कहा कि उनके पास भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की रिपोर्ट है। जिसके आधार पर हाईकोर्ट का विवादित फैसला आया है।
    समझ का रीजन में हूबहू  रूपान्तरण या प्रतिबिम्बन नहीं होता। रीजन का वर्तमान से संबंध होता है। समझ का अतीत से संबंध होता है। वर्तमान में हम पुरानी समझ के आधार पर कोई राजनीतिक कार्यक्रम तय करेंगे तो उसके गर्भ से हिटलर ही निलेगा। आर्यश्रेष्ठता के पुराने सिद्धांत के आधार सारी दुनिया में करोड़ों लोगों को हिटलर ने मौत के घाट उतार दिया।सारा मीडिया, बौद्धिकों और शब्दवीरों की टोलियां उसके लिए रात दिन काम करती थीं और इसके कारण सारी दुनिया को उसने द्वितीय विश्वयुद्ध के रौरव नरक में झोंक दिया। अविवेकवाद के आधार पर,अविवेकवादी परंपराओं और पुरानी समझ के आधार पर खड़ा किया गया तर्कशास्त्र अंततःबुद्धि के विध्वंस की ओर ले जाता है और वह इन दिनों वेब पत्रिकाओं से लेकर मीडिया तक खूब हो रहा है।
   फासीवादी शब्दवीर अविवेकवाद का इस्तेमाल करते हुए अपनी वक्तृता और वेब एवं मीडिया टिप्पणियों में बार-बार अपने सहजज्ञान और सहजबोध का महिमामंडन कर रहे हैं। इसके आधार पर वे सामाजिक-ऐतिहासिक प्रगति को खारिज करते हैं। वे ज्ञान की अभिजात्य सैद्धान्तिकी की हिमायत कर रहे हैं। अभिजात्य की ज्ञान सैद्धान्तिकी की खूबी है मिथ बनाना और मिथों का प्रचार करना। मिथ जरूरी नहीं है झूठ हो। जैसे राम का जन्म अयोध्या में हुआ था यह मिथ है। यह झूठ नहीं है। बल्कि अतिवास्तविक सत्य है। यह न तो सत्य है , और न असत्य है, बल्कि सुपरनेचुरल सत्य है। वे इसका ही प्रचार कर रहे हैं।  
































गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

औरतों की कारपोरेट गुलामी का नया आयाम

भारत में औरतों की गुलामी का  एक नया पहलू सामने आया है। यह पहलू चौंका देने वाला है कि आखिरकार कारपोरेट घराने हमारे देश में किस तरह की कर्म संस्कृति पैदा कर रहे हैं।  समस्या के संदर्भ में हमारी किसान और महिला संगठनों से अपील है कि वे आगे आएं और इस अकल्पनीय शोषण से औरतों को मुक्त कराएं।
   इस संदर्भ में हम यहां ‘बिजनेस स्टैंडर्ड ’ के 25 अक्टूबर 2010 के अंक में प्रकाशित श्रीलता मेनन की एक रिपोर्ट साभार दे रहे हैं जो हमारी नयी कारपोरेट संस्कृति के इस नए आयाम पर रोशनी डालती है। रिपोर्ट पढ़ें-

सवालों के घेरे में है गरीब महिलाओं की मदद करने वाली परियोजना -श्रीलता मेनन    
जब वर्गीज कुरियन ने डेयरी सहकारी आंदोलन का मार्ग प्रशस्त किया था, तब गुजरात की लाखों गरीब महिलाएं अरबों डॉलर वाले ब्रांड की मालकिन बन गई थीं। दूध उपलब्ध कराने वालों को ब्रांड का मालिकाना हक देने वाला ऐसा ही मॉडल पंजाब में ट्रू मिल्क के नाम से उभरा है। हालांकि यह लाभ के बंटवारे और अवैतनिक श्रम से जुड़े सवाल उठा रहा है।
किला रायपुर विधानसभा के कांग्रेस विधायक जस्सी खंगूड़ा ने लुधियाना में मैक्रो वेंचर्स प्राइवेट लिमिटेड की स्थापना की है, लेकिन यह दूध की खरीद उस तरह नहीं करता, जिस तरह से अमूल करता है। वह करीब 3,080 महिलाओं द्वारा खरीदे गए जानवर 22 गांवों में स्थापित मिल्किंग पार्लर कम प्रोसेसिंग प्लांट में रखते हैं। इस प्रोसेसिंग प्लांट की स्थापना उन्होंने खुद की है।
महंगी अंतरराष्ट्रीय ब्रीड वाली गायों (प्रति महिला पांच गाय) की खरीद की खातिर बैंक लोन हासिल करने और इसे चारा डालने व दूध दूहने में महिलाओं की भूमिका सीमित है। ऐसे में उन्होंने गायों को खंगूड़ा को उपलब्ध करा दिया है और इन गायों को वह अपनी जेब से चारा मुहैया कराती हैं। वे अपनी गायों को साथ ले जाने के लिए मुक्त नहीं हैं, लेकिन उन्हें तब तक अनिवार्य रूप से डेयरी में काम करना पड़ता है जब तक कि कर्ज की पूरी रकम चुका नहीं दी जाती है। खंगूड़ा के मुताबिक, इसकेबदले हर महिला को हर महीने 2,500 रुपये मिलते हैं। इन गायों के दूध के लिए उन्हें 18 रुपये प्रति लीटर की सहकारी दर मिलती है, इस रकम से वे चारा खरीदती हैं, बैंक का कर्ज चुकाती हैं और बाकी काम करती हैं। खंगूड़ा इस दूध की बिक्री 34 रुपये प्रति लीटर पर कर देता है, लेकिन इसकी प्रोसेसिंग पर उसे 7 रुपये प्रति लीटर खर्च करना होता है। कुल मिलाकर यह खंगूड़ा के लिए हर तरह की लागत का भुगतान किया हुआ कारोबार है, न कि ऐसी परियोजना जो महिलाओं को सशक्त करता हो।
खंगूड़ा ने महिलाओं को पांच महिलाओं वाले स्वसहायता समूह में संगठित किया है। इन महिलाओं को गाय खरीदने के लिए एसएचजी से जुड़े कार्यक्रम के तहत बैंक लोन मुहैया कराया गया है। हर महिला को 45,000 रुपये प्रति गाय की दर से पांच गाय खरीदने के लिए कर्ज मुहैया कराया जाता है। गांव में कंपनी द्वारा लीज पर ली गई चार-पांच एकड़ जमीन में स्थापित प्रोसेसिंग प्लांट व बाड़े में महिलाएं अपनी गाय रखती हैं। खंगूड़ा ने हर ऐसे प्लांट पर 3.6 करोड़ रुपये का निवेश किया है और उनका कुल निवेश करीब 100 करोड़ रुपये का है। इस रकम का इंतजाम उन्होंने कुछ अपनी संपत्ति से और कुछ कर्ज लेकर किया है, यह कुल मिलाकर उतना ही कर्ज है जो कि महिलाओं ने गाय पर निवेश किया है और चारा व अवैतनिक श्रम पर उनका निवेश जारी है।
ये महिलाएं सप्ताह में छह दिन चार से छह घंटे काम करती हैं और अपने समूह की 25 गायों की देखभाल करती हैं। लेकिन दूध और अपने काम के बदले उन्हें महज 2,500 रुपये महीना मिलता है। पांच गाय का मालिकाना हक और रोजाना 1.5 लाख लीटर दूध की बिक्री केबावजूद उन्हें इतनी कम रकम मिलती है। खंगूड़ा कहते हैं कि कर्ज के भुगतान के लिए हर महिला को करीब 2,000 रुपये मासिक भी दिए जाते हैं।
डेयरी विशेषज्ञ कहते हैं कि यह स्थिति खंगूड़ा के लिए काफी अच्छी है, जिन्होंने महिलाओं द्वारा गायों में निवेश के जरिए अपने जोखिम का बचाव कर लिया है। अगर एक गाय रोजाना सिर्फ 10 लीटर दूध देती है और इस दूध की बिक्री 20 रुपये प्रति लीटर पर की जाती है तो पांच गायों के जरिए महिलाएं रोजाना करीब 1,000 रुपये कमा सकती है। वे बताते हैं कि 4,500 रुपये प्रति माह दी जाने वाली रकम रोजाना कमाई जा सकने वाली रकम केकरीब है।

कृषि अर्थशास्त्री भास्कर गोस्वामी कहते हैं कि अंतरराष्ट्रीय ब्रीड वाली गाय रोजाना 45 लीटर तक दूध देती है और इसका मतलब यह हुआ कि पांच गायों से करीब 5,000 रुपये की आय हो सकती है (20 रुपये प्रति लीटर के हिसाब से)।
खंगूड़ा के मुताबिक, 15,400 गायों से रोजाना कुल 1.5 लाख लीटर दूध मिलता है यानी 10 लीटर प्रति गाय के हिसाब से। खंगूड़ा कहते हैं कि यह मॉडल भविष्य का है। लेकिन इसका मतलब मालिकों के लिए मुफ्त जानवर और मुफ्त कामकाज है, जबकि पशु मालिकों को कुछ नहीं मिलता है। सप्ताह में छह दिन काम करने वाली महिलाओं को यहां तक कि उनके श्रम के लिए भी भुगतान नहीं किया जाता है।
खंगूड़ा कहते हैं कि ये महिलाएं कामगार नहीं हैं बल्कि इसकी मालकिन हैं। हालांकि वे यह भी कहते हैं कि ये महिलाएं स्कीम से तब तक बाहर नहीं निकल सकती हैं जब तक कि कर्ज का भुगतान नहीं कर दिया जाता है। वे यहां किसी तरह के शोषण से इनकार करते हैं और कहते हैं कि इन महिलाओं ने फायदा देखने के बाद ही इसे आजमाया है।(बिजनेस स्टैंडर्ड ,25 अक्टूबर 2010 से साभार )
            





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