जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
सोमवार, 3 अगस्त 2009
सुभाष चक्रवर्ती की मौत पर: लोक राजनेता का असामयिक निधन
पश्चिम बंगाल के परिवहन और खेल मंत्री सुभाष चक्रवर्ती हमारे बीच नहीं हैं। उन्हें सभी लोग प्यार से सुभाष दा के नाम से पुकारते थे। सुभाष दा ने पश्चिम बंगाल में लोक राजनीति का नया संस्करण तैयार किया था। उनके साथ पहलीबार परिचय पटना में सन 1978 में एसएफआई कांफ्रेस के मौके पर हुआ, सुभाष दा उस समय पश्चिम बंगाल छात्र राजनीति के प्रतीक पुरूष थे, उनके प्रति आम लोगों में किस तरह का आदर और स्नेह था यह बात तब देखने को मिली जब मैंने कोलकाता में सन् 1989 में आकर नौकरी करनी शुरू की। मैंने कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभग में प्रवक्ता के पद पर काम करना शुरू किया था और दमदम पार्क इलाके में रहता था,सुभाष का घर मेरे घर के करीब था , दो बार उनके विधानसभा उम्मीदवार बनाए जाने के समय चुनाव प्रचार में भी सक्रिय हिस्सा लिया था। कम्युनिस्टों की काम करने की एकदम नयी जनप्रिय शैली को सुभाष दा ने विकसित किया था, वे सबके लिए बने थे, बदमाश से लेकर भले आदमी, गरीब से लेकर सेठ-साहूकार सबको यदि कहीं से कोई परेशानी या कष्ट होता था तो सुभाष दा के पास आते थे ,और सुभाष दा कभी किसी को निराश नहीं करते थे। वह सबका काम करते थे, उनके दरवाजे पर कई मर्तबा मैंने भी सैंकड़ों परेशान लोगों को मिलने के लिए पंक्तिबद्ध देखा,मुझे अचरज होता था कि माकपा के किसी भी दफतर पर लोगों की भीड़ नहीं दिखती थी किंतु उनके दरवाजे पर प्रतिदिन भीड़ लगती थी और वे सबकी पूरी मदद करते थे, पैसे से लेकर अन्य सभी किस्म की मदद बगैर किसी शर्त के देते थे। उनसे मदद लेने वालों में एक बड़ा तबका उन लोगों का था जो कम्युनिस्ट पार्टी के साथ नहीं थे। मैंने कभी इतना जिंदादिल कम्युनिस्ट नहीं देखा, ऐसा कम्युनिस्ट नहीं देखा जो तन,मन,धन और बाहुबल से बगैर किसी स्वार्थ के मदद करे। इस प्रक्रिया में उत्तर 24 परगना में उनकी छवि इतनी ताकतवर थी कि वह जो चाहते थे वह करते थे, जो ठीक लगता था बोलते थे, उनके व्यक्तित्व की साफगोई उन्हें अनेकबार विवादों में भी ले जाती थी किंतु विवाद और पार्टी के अनुशासन के भय के कारण जैसे अनेक पार्टी नेता खुलेआम अपनी निजी राय को व्यक्त नहीं करते, किंतु सुभाष दा में ऐसा नहीं था। प्रतिबद्ध कम्युनिस्ट के नाते समाज में सभी तबकों और पेशे के लोगों में उनका व्यापक प्रभाव था, जो काम राज्य प्रशासन नहीं कर पाता था वह कार्य सुभाष दा कर गुजरते थे। साफगोई और जनसेवा के भाव ने उन्हें सभी कम्युनिस्टों से भिन्न बना दिया था। सुभाष दा की मौत के कारण माकपा ने अपना सबसे बड़ा जनप्रिय नेता खो दिया है, उनकी मौत ऐसे समय हुई है जब माकपा सबसे संकटपूर्ण दौर से गुजर रही है। सुभाष की क्षति को भ्ारना संभ्ाव नहीं है। सुभाष दा जैसा जनप्रिय नेता कभी कभी ही पैदा होता है।
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