भारतीय बुद्धिजीवी ज्यादातर समय सत्ता के एजेण्डे पर काम करता है। उस एजेण्डे के बाहर जाकर सोचता नहीं है। वैकल्पिक एजेण्डे पर सोचता नहीं है।आम जनता के हित के एजेण्डे पर वहां तक जाता है जहां तक सत्ता जाती है। वह सत्ता के हितों के नजरिए से जनता के हितों को परिभाषित करता है। बुद्धिजीवीवर्ग में दूसरी कोटि में ऐसे लोग आते हैं जो दलीय प्रतिबद्धता में बंधे हैं। तीसरी कोटि ऐसे बुद्धिजीवियों की है जो मृत विषयों पर निरंतर बोलते और लिखते हैं। हमेशा परंपरा की गोद में ही बैठे रहते हैं। बुद्धिजीवियों की इन तीनों कोटियों से भिन्न ऐसे भी बुद्धिजीवी हैं जो हमेशा विकल्प की तलाश में रहते हैं,जनता के हितों पर सत्ता,दल और जड़ मानसिकता की कैद से परे जाकर सर्जनात्मक हस्तक्षेप करते हैं। लेकिन इन चारों ही कोटि के बुद्धिजीवियों में एक विलक्षण साम्य नजर आ रहा है ,ये पश्चिम बंगाल के गांवों में चल रहे हिंसाचार के बारे में अपने -अपने कारणों से चुप हैं। अथवा इस हिंसा को एकहरे रंग में देख रहे हैं। एकहरे रंग में हिंसा को देखने के कारण सबसे ज्यादा क्षतिग्रस्त आम आदमी हो रहा है, गांव के गरीब हो रहे हैं, आदिवासी हो रहे हैं। गांव के गरीब का सत्य बुद्धिजीवी के नजरिए,आस्था,प्रतिबद्धता और दलीय विचारधारा से कहीं बड़ा होता है। बुद्धिजीवी के नाते हम सिर्फ अपने ही रंग में रंगे रहेंगे और एक ही रंगत और एक ही विचारधारा के चश्मे से गांव के यथार्थ को देखेंगे तो हमें गांव का गरीब नजर नहीं आएगा। लोकसभा चुनाव के बाद पश्चिम बंगाल में जो हिंसाचार चल रहा है उसके कारण सैंकड़ों निर्दोष लोग मारे गए हैं। हजारों बेघर हुए हैं, सैंकड़ों शरणार्थी की तरह इधर उधर पडे हैं। आखिरकार हमारे बुद्धिजीवी चुप क्यों हैं? अपराधी राजनीतिक गिरोहों ,खासकर तथाकथित माओवादी अपराधी गिरोहों के हमलों से प्रतिदिन साधारण गरीब मारा जा रहा है। लोकसभा चुनाव के बाद अकेले लालगढ इलाके में अब तक 100 से ज्यादा गरीब लोगों को सरेआम माओवादियों ने कत्ल किया है और यह सब देखने के बावजूद भी यदि हमारे बुद्धिजीवी चुप हैं,खासकर पश्चिम बंगाल के बुद्धिजीवी चुप हैं तो हमें सोचना होगा आखिरकार बुद्धिजीवी की ऐसी नपुंसक कौम कैसे तैयार हुई ? आज इंटरनेट के दौर में भारत के प्रत्येक कोने में खबरें सहज रूप में उपलब्ध हैं,इसके बावजूद किसी भी कोने से पश्चिम बंगाल में हो रहे गरीबों के कत्लेआम का कहीं से भी बडा प्रतिवाद बुद्धिजीवियों की ओर से नहीं हुआ है। कलकत्ते की सडकें भी शांत पडी हैं।
सवाल उठता है हमारा बुद्धिजीवी गांव के सत्य से डरता क्यों है ? वह निर्भय होकर सत्य पर अपने भावों को व्यक्त क्यों नहीं करता। गांव के गरीबों के मानवाधिकार हनन और नृशंस हत्याकांडों पर हमारी सत्ता और कलमघिस्सु हिन्दी के तथाकथित वीर पत्रकार चुप क्यों हैं ? हिन्दी क्षेत्र में सक्रिय जनवादी लेखक संघ,प्रगतिशील लेखक संघ,जनवादी सांस्कृतिक मंच आदि संगठनों को पश्चिम बंगाल में माओवादी अपराधी गिरोहों द्वारा किया जा रहा गरीबों का कत्लेआम विचलित क्यों नहीं कर रहा ? एक जमाना था जब बेलछी में हरिजन हत्याकांड होने पर नागार्जुन ने प्रतिवाद में शानदार रचना लिखी थी आज कहीं से भी पश्चिम बंगाल के आदिवासियो,गरीबों,दलितों की हत्या के खिलाफ कोई गुस्सा नजर नहीं आरहा,बेलछी हत्याकांड से श्रीमती इंदिरागांधी विचलित हुई थीं और बेलछी भी गयी थीं किंतु लालगढ में न तो मुख्यमंत्री बुद्धदेव पहुंचे हैं और न देश का प्रधानमंत्री ही इन गरीबों के आंसू पोंछने के लिए समय निकाल पाया है, दूसरी ओर हिन्दी के बुद्धजीवी हाथ पर हाथ धरे किसी आपातकाल का इंतजार कर रहे हैं और फिर शायद वे महान रचना करें ? पश्चिम बंगाल में हिंसा के लिए कौन जिम्मेदार है इसके विवाद में जाए बिना हमें पश्चिम बंगाल में निर्दोष ग्रामीणों ,दलितोंऔर आदिवासियों की नृशंस हत्या के खिलाफ आवाज बुलंद करनी चाहिए। लेखक और बुद्धिजीवी शांति और सत्य की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध होते हैं। आज शांति और सत्य दोनों ही दांव पर लगे हैं। कुछ अपराधी गिरोह हिंसा का ताण्डव चलाकर गरीबों के कत्ल में व्यस्त हैं, प्रतिदिन गरीबों का वेवजह कत्ल कर रहे हैं। आश्चर्य की बात है जो लोग नंदीग्राम में राज्य पुलिस के द्वारा की गई गोलीबारी पर चीख पुकार कर रहे थे आज वे महाश्वेता देवी और उनके समानधर्मा लालगढ में अब तक माओवादियों के हाथों कत्ल किए गए 100 गरीबों की हत्या पर एकदम चुप हैं। महाश्वेता देवी की चुप्पी खतरनाक है, यह चुप्पी टूटनी चाहिए।उन्हें लालगढ के हत्यारों के खिलाफ भी शांति और सत्य की रक्षा का बिगुल बजाना चाहिए। महाश्वेता की चुप्पी हमें तकनीफ देती है। वे जब बोलती हैं तो गरीबों को बल मिलता है। आज पश्चिम बंगाल खासकर लालगढ के गरीब परिवार महाश्वेता देवी की ओर आशाभरी नजरों से देख रहे हैं। वे अपने समानधर्माओं के साथ लालगढ में चल रहे कत्लेआम की निंदा करें। प्रतिवाद संगठित करें। सडकों पर उतरें।महाश्वेता किसी एक की नहीं हैं वे गरीबों और आदिवासियों की हैं। उनकी आवाज हैं। उन्हें बोलना चाहिए। उन्हें शांति के लिए,गरीबों का कत्लेआम रोकने के लिए सडकों पर आना चाहिए। उनकी चुप्पी हमें तकलीफ दे रही है। हमें हिन्दी के प्रगतिशील दिग्गजों की भी चुप्पी तकलीफ दे रही है। हम चाहते हैं नामवर सिंह,प्रभाष जोशी,राजेन्द्र यादव,अशोक बाजपेयी ,मैनेजर पांडेय,नित्यानंद तिवारी,मुरलीमनोहर प्रसाद सिंह जैसे प्रगतिशील लेखक आगे आएं और लालगढ में मच रहे कत्लेआम का सामूहिक प्रतिवाद संगठित करें। अगर ये लोग आज नहीं बोलेंगे तो कब बोलेंगे ? हमारा सभी नेट लेखकों से अनुरोध है अपने अपने ब्लाग पर लालगढ में चल रहे कत्लेआम पर लिखें, लेखकों और बुद्धिजीवियों की ज्यादा से राय एकत्रित करके प्रकाशित करें। आज लालगढ के गरीब हमें शांति के पक्ष में और कत्लेआम की राजनीति के विरोध में खडे होने के लिए पुकार रहे हैं,हम चुप न बैठें,बोलें और लोगों को बोलने के लिए उदबुद्ध करें।
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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chup hi rahenge ye log. inase koee ummeed bemani hai.
जवाब देंहटाएंchup to meadia bhi hai. 100 begunah logon ki mout polic firing men thode hi huee hai. ye to mamata ji ke krantikari bhaiyon ki kartoot hai. sharmnaak!