हिंसाचार का प्रधान कारण है वर्चस्व स्थापित करने की साजिशें। कोई भी दल वर्चस्व स्थापित किए बिना रहना नहीं चाहता। जिन इलाकों में माकपा का वर्चस्व है वहां पर यदि तृणमूल कांग्रेस अथवा कांग्रेस राजनीतिक काम करना चाहे तो माकपा वाले उन्हें राजनीतिक कार्य नहीं करने देते। दूसरी ओर जिन इलाकों में कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस का वर्चस्व है वहां पर माकपा के कार्यकर्त्ताओं को विपक्ष के द्वारा काम करने से रोका जा रहा है। सारी मुसीबतों की जड़ में यही वर्चस्व स्थापित करने की राजनीति है।
सवाल यह है कि क्या माकपा वर्चस्व की राजनीति को ,जिसे वह विगत 35 सालों से करती आ रही है ,त्यागने को तैयार है । माकपा नेताओं और विपक्ष के तेवरों से लगता नहीं है कि ये दोनों वर्चस्व की राजनीति त्यागने को तैयार हैं। यर्चस्व की राजनीति की बजाय समानता और सदभाव की राजनीति का मार्ग जब तक पश्िचम बंगाल नहीं पकड़ता तब तक राज्य में हिंसा के बंद होने की संभावनाएं नहीं दिखतीं। माकपा और विपक्ष दोनों को ही यह तथ्य ध्यान में रखना होगा कि इलाका दखल की राजनीति ,जो वर्चस्व की राजनीति का सबसे घटिया रूप है, उसे एकसिरे से व्यवहार में त्यागना होगा। भारत में जिन इलाकों में वाममोर्चे की शक्ति कमजोर है उन इलाकों और राज्यों में इलाका दखल और वर्चस्व स्थापित करने की राजनीति एकसिरे से नहीं होती। यही वजह है कि वाम शासित राज्यों के अलावा कहीं पर भी राजनीतिक हिंसाचार तकरीबन नहीं है। वर्चस्व की राजनीति का लोकतंत्र में विचारधारा के क्षेत्र में इस्तेमाल होता है जमीनी स्तर पर नहीं।
वर्चस्व स्थापित करने की जो पद्धति माकपा ने अपने राजनीतिक एक्शन में जमीनी स्तर पर अपनायी है वह मूलत: भारत के स्वभाव के खिलाफ है। भारत का स्वभाव वर्चस्व का निषेध करता है। इसमें 'हम' और 'तुम' दोनों के लिए समान जगह है। इस बुनियादी तथ्य को यदि पश्चिम बंगाल के राजनीतिक दल स्वीकार करते हैं तब ही हिंसाचार थमेगा। वर्चस्व की राजनीति की शुरूआत किसने की और कौन इसका सर्जक है,यह सवाल ज्यादा महत्व का नहीं है। महत्वपूर्ण बात यह है कि शांति के लिए वर्चस्व के भाव को त्यागना जरूरी है।
तृणमूल कांग्रेस के लोग यदि यह सोच रहे हैं कि वे माकपा के कार्यकर्त्ताओं को पीट-पीटकर इलाका दखल करके शांति स्थापित करने में सफल हो जाएंगे तो उन्हें कम से कम से कम माकपा और नक्सलों से यह सीख लेनी चाहिए कि माकपा 35 साल तक वर्चस्व स्थापित करके रहने के बावजूद राजनीतिक हिंसाचार रोकने में बुरी तरह असफल रही है,यहां तक कि अपने कार्यकर्त्ताओं के जानोमाल की हिफाजत करने में वह सफल नहीं रही है,इसका ही परिणाम है कि सन् 1977 से लेकर 2009 तक माकपा के 20 हजार से ज्यादा कार्यकर्त्ता मारे गए हैं, इससे कई गुना ज्यादा विपक्ष के लोग मारे गए हैं। उल्लेखनीय है कि किसी भी राज्य में राजनीतिक हिंसा में इतने लोग सालाना नहीं मरते जितने वामशासित राज्यों में मारे जाते हैं। इसके लिए किसी एक दल को दोषी ठहराना सही नहीं है, बल्कि इस समस्या की बुनियाद की ओर देखना होगा।दैनन्दिन राजनीतिक हिंसाचार की जड़ है वर्चस्व और इलाका दखल की अलोकतांत्रिक राजनीति।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें