मैंने दंभी आलोक तोमर नहीं देखा था,बेहद विनम्र और मिलनसार आलोक तोमर देखा है, वह यह आलोक तोमर नहीं है जो मैंने अपने जेएनयू के छात्र जीवन में पढते हुए देखा था, मवालियों की भाषा बोलने वाला आलोक तोमर कहां से आया ? आखिर यह पत्रकार दादागिरी की भाषा क्यों बोल रहा है ? मैंने ऐसी भाषा में कभी किसी पत्रकार को लिखते नहीं देखा। आलोक तोमर यह भारतेन्दु,महावीरप्रसाद द्विवेदी,प्रेमचंद,राजेन्द्रयादव,प्रभाष जोशी,राजेन्द्र माथुर की परंपरा वाली भाषा नहीं है। आलोक तोमर यह बताओ आखिरकार आदमी का इतना तेजी से पतन कैसे होता है कि वह पत्रकारिता की समस्त परंपराओं, एथिक्स, नीतियां,मानकों,संपादकीय नीति आदि सबको भूल जाए और गली के दादाओं की भाषा का इस्तेमाल करने लगे। आलोक तोमर जानते हैं आप जो कह रहे हैं पूरे होशोहवास में कह रहे हैं। यदि ये बातें बेहोशी मैं भी कही गयी हैं तब भी क्षम्य नहीं हैं। खासकर मेरे लेखन के संदर्भ में तो आपने अक्षम्य अपराध किया है। आपको लठैती कब से आ गयी ? कलम का सिपाही संस्कृतिविहीन लोगों की भाषा में सम्बोधन कर रहा है वह भी ऐसे लोगों से जो उससे अनेक गुना ज्यादा शिक्षित हैं। मैं खास तौर पर अपने संदर्भ में कह रहा हूं, आपने अक्षम्य अपराध किया है। यह पत्रकारिता के मानकों का भी अपमान है।
आलोक तोमर ने कहा है ''बात करो मगर औकात में रहकर बात करो। '' अरे भाई आप भडक किस बात पर रहे हैं ? किसे यह धमका रहे हैं ? औकात की भाषा कब से सभ्यता विमर्श की भाषा हो गई। मैंने सबसे गंभीर ढ़ंग से प्रभाषजोशी की आलोचना लिखी है, मैं क्या हूं और कहां पढाता हूं और कितना पढा लिखा हूं इसके बारे में मुझे आपको कम से कम बताने जरूरत नहीं है। वैसे भी आप भूल चुके हों तो बताना जरूरी है, आप याद करेंगे तो ध्यान आ जाएगा और सभ्यता बची होगी तो कभी अकेले पश्चाताप कर लेना कि जिस व्यक्ति को जेएनयू में छात्रसंघ का अध्यक्ष बनने पर हिन्दी का गौरव कहा था उसी को अब औकात बता रहे हो। आलोक तोमर मैंने गाली गलौज की भाषा में नहीं लिखा,मैंने कोई अपशब्द अथवा व्यक्तिगत बातें प्रभाष जोशी के बारे में नहीं कहीं, यदि कहीं हों तो बताएं,आपकी औकात कितनी और आपकी बुद्धि कितनी है यह तो इस तथ्य से ही पता चल रहा है कि आपने बगैर प्रतिक्रिया पढे ही अपना लेख लिख मारा है। आप नहीं जानते तो जान लें ,हिन्दुस्तान के सबसे बेहतरीन शिक्षकों का छात्र रहा हूं। जेएनयू में मेरा शानदार छात्रजीवन रहा है,आपने मेरी हजारों प्रेस विज्ञप्तियां छापी हैं। फिलहाल कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हूं। मुझे कोई भी चीज गुरूकृपा से नहीं अपने बल से मिली है और मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि आप जरा गुरूकृपा के बिना अपने पैंरो से चलकर तो दिखाते ?
ध्यान रहे प्रभाष जोशी के बारे में नहीं उनके लेखन के बारे में बातें हो रही हैं। मैं आलोक तोमर के बारे में व्यक्तिगत तौर पर जितना जानता हूं वह यह कि वह बहुत अच्छा मिलनसार पत्रकार था,दंभ और अहंकारहीन व्यक्ति था, लेकिन उपरोक्त आलेख में उसकी भाषा और तेवर देखकर मैं दंग रह गया,आखिरकार कुछ गडबड हुआ है जो इस तरह की भाषा लिखी है। मैं देख रहा हूं हमारा हिंदी प्रेस कैसे दंभी पत्रकार बना रहा है, एक अच्छा लोकतांत्रिक पत्रकार कैसे 25 सालों में दंभी हो गया, लेखन में अपराधियों की भाषा का इस्तेमाल करने लगा है। आलोक तोमर आपने जिन शब्दों का प्रयोग किया है उनका अमूमन छुटभैये गुंडे इस्तेमाल करते हैं, क्या यह मानूं कि विगत 25 सालों में बिछुडने के बाद आपका भी वही स्वरूप बना है जो किसी प्रतिष्ठानी पत्रकार का होता है। आलोक तोमर यह दंभ आपने कहां से लिया है ? कम से शिक्षा दंभी नहीं बनाती।
आलोक तोमर को पत्रकारिता के इतिहास का ज्ञान कराना यहां अभीप्सित लक्ष्य नहीं है,वे 'ज्ञानी' पत्रकार हैं। वह मानकर चल रहे हैं प्रभाष जोशी को निबटाने के लिए उनकी हमने आलोचना लिखी है। उन्हें निबटाने के लिए नहीं, उनकी जुबान पर अंकुश लगाने के लिए उनकी आलोचना की जा रही है। एक संपादक की बेलगाम जुबान को साधारण पाठक ही दुरूस्त करता है, संपादक कितना ज्ञानी होता है और पाठक कितना अज्ञानी होता है यह बात आलोक तोमर अच्छी तरह जानते हैं। इसमें किसकी सत्ता महान है यह भी आलोक तोमर जानते हैं। पाठक लिखता नहीं है वह सिर्फ पढता है,वह उतना भी नहीं लिखता जितना नेट के यूजर प्रभाषजोशी पर लिख रहे हैं, इसके बावजूद वह ज्ञानी और महान प्रभाष जोशी को दरवाजा दिखा चुका है, आज प्रभाष जोशी हैं, उनकी कलम है, उनका ज्ञान है, उनका अखबार है,उनके भक्त हैं, किंतु उनका 'जनसत्ता' बैठ गया है, उसे अब कोई नहीं पढता, प्रभाष जोशी को निबटाने के लिए किसी नेता या अभिनेता की नहीं साधारण पाठक की जरूरत थी और हिंदी के साधारण पाठक ने आज 'जनसत्ता' को जिस स्थान पर स्थापित कर दिया है ,वह पर्याप्त टिप्पणी है उनके कर्मशील व्यक्तित्व पर,उनके लेखन के जादू पर। आलोक तोमर जरा गौर करें आपने क्या लिखा है
'' जिसे इंदिरा गांधी नहीं निपटा पाईं, जिसे राजीव गांधी नहीं निपटा पाए, जिसे लालकृष्ण आडवाणी नहीं निपटा पाए, उसे निपटाने में लगे हैं भाई लोग और जैसे अमिताभ बच्चन का इंटरव्यू दिखाने से टीवी चैनलों की टीआरपी बढ़ जाती है वैसे ही ये ब्लॉग वाले प्रभाष जी की वजह से लोकप्रिय और हिट हो रहे हैं।''
दोस्त हिंदी के जाहिल,असभ्य ,बेरोजगार पाठक प्रभाष जोशी की कलम के दम पर चलने वाले अखबार से कोसों दूर जा चुके हैं, यदि औकात हो तो पाठकों को 'जनसत्ता' के पास बुलाकर देखो। दोस्त एकबार सोचकर देखो क्या कह रहे हो ? अगर प्रभाष जोशी के पास आप जैसे वकील होंगे तो जनता की अदालत में वे मुकदमा हार चुके हैं, आपको चुनौती है कि आप आंकडे देकर बताएं कि प्रभाष जोशी के कारण 'जनसत्ता' का सर्कुलेशन विगत 20 सालों में क्या रहा है ? संपादक की औकात उसका अखबार का पाठक तय करता है,संपादक नहीं। संपादक का रूतबा पाठकों से है, पाठक कभी संपादक की औकात देखकर अखबार नहीं खरीदता बल्कि अखबार देखकर पैसा फेंकता है, प्रभाष जोशी पर कभी हिंदी का पाठक पैसा फेंकता था, 'जनसत्ता' खरीदता था,उसमें अकेले उनका ही नहीं बाकी लोगों का भी योगदान था,बल्कि यह कहें तो ज्यादा ठीक होगा कि नौका तो अन्य लोग खींच रहे थे। किसी भी पत्रकार की औकात कितनी है यह उसका अखबार,उसका सर्कुलेशन और आमदनी से तय होता है। संपादक कितना पेशेवर है और 'धारण क्षमता' रखता है यह इस बात से तय होता है कि आखिरकार अखबार को पेशेवर (तकनीकी,संपादकीय,प्रबंधन, आमदनी आदि) रूप देने में संपादक ने कितनी मेहनत की है इससे उसकी संपादकीय औकात का पता चलता है, आलोक तोमर बताएं क्या 'जनसत्ता' ने समग्रता में पेशेवर तौर पर तरक्की की है ? यदि तरक्की नहीं की है तो क्यों नहीं की है ? क्या प्रभाष जोशी इस संदर्भ में जिम्मेदार हैं या नहीं ? आलोक तोमर नेट बेकार की चीज नहीं है। यह सबसे प्रभावशाली संचार का माध्यम है।
आलोक तोमर ने लिखा है ''अनपढ़ मित्रों, आपकी समझ में ये नहीं आता।'' काश वे ऐसा न कहते,प्रभाषजी पर बहस करने वाला मैं भी हूं और दोस्त कितना पढा हूं,आप अच्छी तरह जानते हैं। बाकी लोग भी शिक्षित हैं जो बहस में लिखते रहे हैं। इसमें अनेक तो आलोक तोमर से हजार गुना ज्यादा शिक्षित हैं। आलोक तोमर ने लिखा है ''ये वे लोग हैं जो लगभग बेरोजगार हैं और ब्लॉग और नेट पर अपनी कुंठा की सार्वजनिक अभिव्यक्ति करते रहते हैं। नाम लेने का फायदा नहीं है क्योंकि अपने नेट के समाज में निरक्षरों और अर्ध साक्षरों की संख्या बहुत है।''
दोस्त नेट का समाज निरक्षरों का समाज नहीं है बल्कि यह कहें तो ज्यादा बेहतर होगा नेट पर आज दुनिया के अधिकांश ज्ञानी और शिक्षित लोग लिख रहे हैं, भारत के सभी श्रेष्ठ पत्रकार लिख रहे हैं। दूसरी बात यह कि बेरोजगार होना गाली नहीं है। मैं कम से रोजगार वाला हूं और एक प्रोफेसर की पगार जानते हैं प्रभाष जोशी की पगार से ज्यादा होती है। मुझे पगार पढाने ,शोध करने,कराने के साथ बेहूदों पर अंकुश लगाने के लिए,जनता में ज्ञान प्रसार करने के लिए मिलती है। मेरे जैसे और भी कई लोग हैं जिन्होंने प्रभाष जोशी पर लिखा है।
आलोक तोमर आपको खुश होना चाहिए कि बेरोजगार लडके बतर्ज आपके पैसा खर्च करके नेट पत्रकारिता कर रहे हैं,बगैर किसी सेठ की गुलामी किए पत्रकारिता कर रहे हैं, इन बेरोजगार नौजवानों का लेखन कुंठा नहीं है। कुंठा की इन्हें जरूरत नहीं है क्योंकि ये लोग जैसा सोचते हैं वैसा ही लिखते हैं, हमें ऐसे ही न्रिर्भय युवाओं की फौज चाहिए। पत्रकारिता अथवा लेखन किसी को खैरात में नहीं मिलता। पत्रकारिता किसी प्रतिष्ठानी प्रेस में काम करने मात्र से नहीं आती यदि ऐसा होता तो हिन्दी की समूची साहित्य परंपरा बेकार हो जाएगी। आलोक तोमर ने लिखा है
''आपने पंद्रह सोलह हजार का कंप्यूटर खरीद लिया, आपको हिंदी टाइपिंग आती हैं, आपने पांच सात हजार रुपए खर्च करके एक वेबसाइट भी बना ली मगर इससे आपको यह हक नहीं मिल जाता कि भारतीय पत्रकारिता के सबसे बड़े जीवित गौरव प्रभाष जी पर सवाल उठाए और इतनी पतित भाषा में उठाए।'' अगर इन नौजवानों ने अपनी आजीविका नेट पत्रकारिता के जरिए और अपने ही पैसे से पूरा सिस्टम बनाकर आरंभ कर दी है तो इसमें बुरा क्या है ? जिस तरह किसी सेठ की नौकरी करना बुरा नहीं है,वैसे ही नेट पर अपने दम पर पत्रकारिता करना भी बुरा नहीं है। प्रभाष जोशी 'जीवित गौरव' हैं, बने रहें, सिर्फ एक ही दिक्कत है वे अपना गौरव अपने ही हाथों नष्ट कर रहे हैं, इतना खराब साक्षात्कार देने के लिए उन्हें 'बेरोजगार', 'कुण्ठित' 'अनपढ' युवाओं ने तो प्रेरित नहीं किया था, 'जनसत्ता' यदि पाठक खो चुका है तो उसमें भी इन नौजवानों का कम से कम कोई हाथ नहीं है,आलोक जी सर्वे करा लें आपके 'जीवित गौरव' को प्रति सप्ताह कितने पाठक पढते हैं और इन बेरोजगार,अनपढ जाहिल लोगों को कितने नेट पाठक पढते हैं, ध्यान रहे ये बेरोजगार युवा और प्रभाष जोशी के बीच की जंग है और इसमें प्रभाष जोशी का भी वही हश्र होगा जो महाभारत में भीष्म पितामह का हुआ था, वे अर्जुन के हाथों मारे गए थे और प्रभाष जोशी भी इन बेरोजगार नौजवानों के तर्कों से ही मरेंगे। आलोक तोमर आप अपनी असल भाव भंगिमा में मैदान में पूरे गुरूदेव के साथ आएं और जबाव दें कि आखिरकार 'जनसत्ता' का पतन क्यों हुआ ? चाहें तो आप यह काम गाली गलौज की भाषा में भी कर सकते हैं यदि किसी अन्य अकादमिक मसले पर बहस करने का गुरू सहित मन है तो बंदा अपने को इसके लिए पेश करता है और चाहेगा कि आप विषय चुनें और वही विषय चुनें जो आपके गुरूदेव का सबसे प्रिय विषय हो, (कम से कम क्रिकेट नहीं) जिस पर वे जीभर कर लिख सकें, उन्हें नेट के पन्नों पर जगह का अभाव महसूस नहीं होगा। शर्त्त एक ही है आप बहस के नियम नहीं बनाएंगे, बहस स्वतंत्र होगी,ये बातें इसलिए लिखनी पड़ रही हैं कि एक पत्रकार अपने पाजामे के बाहर चला गया है। उसे पाजामा पहनाना हमारा काम है , आलोक तोमर को खुला निमंत्रण है वे अपने गुरू के साथ नेट पर आएं और सबसे पहले 'जनसत्ता' की पतनगाथा के पन्ने खोलें,हम देखना चाहते हैं कि दूसरों की औकात बताने वाले की स्वयं कितनी औकात है,उनके गुरूदेव का भी 'जनसत्ता' के पतन पर पूरा आख्यान पढना चाहेंगे। आलोक तोमर यदि 'जनसत्ता' का सच्चा आख्यान बताते हैं तो कम से कम प्रभाष जोशी की एक महान पत्रकार के रूप में क्या स्थिति रह गयी है,इसका खुलासा जरूर हो जाएगा। आलोक तोमर जी यदि असुविधा न हो तो प्रभाष जी के तथाकथित महान निबंधों पर ही हम लोग गंभीर मंथन कर लें और उनके नजरिए का पोस्टमार्टम कर डालें। तय मानो दोस्त आपकी श्रद्धा उनकी रक्षा नहीं कर पाएगी, उन्हें बेकार नौजवानों के हाथों पराजित होना ही है। अभी भी मौका है दंभ त्याग दें, दूसरों का अपमान करना बंद कर दें,अनपढ को अनपढ कहना गाली है , शिक्षित आलोक तोमर को यह शोभा नहीं देता। कोई सभ्य पत्रकार दंभ,औकात, बेरोजगारों के प्रति घृणा,स्वाभिमानी युवाओं को प्रताडित करने वाली भाषा नही लिख सकता,यह तो संस्कृतिविहीन होने का संकेत है। यह प्रेस के लिए शर्मिंदगी की बात है कि किसी हिन्दी पत्रकार ने इतनी घटिया भाषा का अपने गुरू की हिमायत में इस्तेमाल किया है।
आलोक तोमर ने लिखा है '' अगर गालियों की भाषा मैंने या मेरे जैसे प्रभाष जी के प्रशंसकों ने लिखनी शुरू कर दी तो भाई साहब आपकी बोलती बंद हो जाएगी और आपका कंप्यूटर जाम हो जाएगा। भाइयो, बात करो मगर औकात में रह कर बात करो। बात करने के लिए जरूरी मुद्दे बहुत हैं।'' इंतजार है आपकी 'शानदार' पत्रकारिता के करतब देखने का। प्लीज आप जरूर आएं और किसी मुद्दे के साथ आएं, किसकी कितनी औकात है और किसी कलम में दम है यह तो नेट के पाठक ही तय करेंगे।
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
विशिष्ट पोस्ट
मेरा बचपन- माँ के दुख और हम
माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...
-
मथुरा के इतिहास की चर्चा चौबों के बिना संभव नहीं है। ऐतिहासिक तौर पर इस जाति ने यहां के माहौल,प...
-
लेव तोलस्तोय के अनुसार जीवन के प्रत्येक चरण में कुछ निश्चित विशेषताएं होती हैं,जो केवल उस चरण में पायी जाती हैं।जैसे बचपन में भावानाओ...
-
(जनकवि बाबा नागार्जुन) साहित्य के तुलनात्मक मूल्यांकन के पक्ष में जितनी भी दलीलें दी जाएं ,एक बात सच है कि मूल्यांकन की यह पद्धत...
आलोक तोमर हड़बड़ी में रहे होंगे। आपने उनको पाजामा पहना दिया।
जवाब देंहटाएं