संतोष राणा के आलेख में बड़े ही विस्तार और पारदर्शिता के साथ लालगढ़ आन्दोलन के बारे में विश्लेषण किया गया है ।यह विश्लेषण जिस चीज पर रोशनी डालता है वह है लालगढ़ आन्दोलन की असफलता। क्या लालगढ़ में कोई आंदोलन चल रहा था ? लालगढ़ में कोई आंदोलन नहीं चल रहा था,सालबनी की बारूदी सुरंग विस्फोट की घटना के बाद जिस तरह का बर्बर व्यवहार पुलिस ने किया था उसके लिए राज्य प्रशासन ने यदि स्थानीय लोगों की मांगों को मान लिया होता तो यह समस्या उसी दिन खत्म हो जाती। राज्य सरकार ने अपनी दीर्घकालिक योजना के तहत पुलिस कैंप हटाने का फैसला लिया था, जनता का यदि इलाके में कोई आंदोलन रहा होता तो विगत बीस सालों से निकम्मे लोग पंचायतों से लेकर लोकसभा तक चुनाव नहीं जीत पाते,इस इलाके में माकपा का विगत बीस सालों से राजनीतिक वर्चस्व नहीं है बल्कि अन्य दलों का है। लालगढ़ में माओवादियों ने जो हिंसाचार किया है,जनता को उत्पीड़ित किया है,सजाएं दी हैं,माकपा और अन्य दलों के कार्यकर्त्ताओं की हत्याएं की हैं, उन्हें लेकर क्या कानूनी और राजनीतिक कदम उठाए जाने चाहिए ? दूसरी बात, आन्दोलन और संगठन के दम पर ‘इलाका दखल’ की राजनीति मूलत: फासीवादी राजनीति है, दुर्भाग्य यह है कि माकपा से लेकर माओवादियों तक,तृणमूल कांग्रेस से लेकर कांग्रेस तक सभी दल अपने- अपने तरीके से समय-समय पर इसका दुरूपयोग करते रहे हैं। माओवादी संगठनों के पूर्वज ‘इलाका दखल’ के जनक हैं ,बाकी तो उनके अनुयायी मात्र हैं। समस्या यह है क्या भारत में लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थाओं को बंद करा दें अथवा उन्हें सुचारू रूप से काम करने दें ? माओवादियों के जो गिरोह ‘इलाका दखल’ अभियान में लगे हैं उनके बयान कितने ही क्रांतिकारी हों, वे मूलत: लोकतंत्र विरोधी हैं और राजनीतिक और सामाजिक अपराधी की कोटि में रखे जाने योग्य हैं। नागरिकों के जीवन , संपत्ति, वातावरण,रहन-सहन, स्वतंत्रताओं के हनन को ‘जनउभार’ कहना सही नहीं है। माओवादियों की कार्यशैली मूलत: माफिया सरदारों से जैसी होती है,उसमें ‘क्रांति’ ‘जनउभार’ और ‘सामाजिक परिवर्तन’ के तर्क खोजना एकसिरे से गलत है। ‘क्रांतिकारी’ भय पैदा करके,दमन करके,दंडित करके यदि वर्चस्व स्थापित करना चाहेंगे तो बुर्जुआ राज्य उन्हें चैन की नींद सोने नहीं देगा चाहे उसके लिए जो भी कीमत अदा करनी पड़े। हमें यह मानना पडे़गा कि भारत में लोकतंत्र की पुख्ता बुनियाद है और उसमें सबके लिए जगह है आप राजनीति करें,संगठित करें,जनता के लिए संघर्ष करें और लोकतंत्र बनाए रखें, भारतीय लोकतंत्र में प्रतिवाद और विकल्प राजनीति के लिए पर्याप्त जगह है।माओवाद के भारतीय संस्करण स्वभावत: भारतीय मनोदशा के विपरीत हैं।
( उपरोक्त विचार प्रसिद्ध नक्सलनेता संतोष राणा के 'काफिला' वेबसाइट पर प्रकाशित लेख के संदर्भ में व्यक्त किए गए हैं,उस लेख को देखने के लिए kafila पर जाएं। )
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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यह बिल्कुल सही विश्लेष्ण प्रतीत होता है. लालगढ में क जिस तरह की स्ट्रेटेजी लेकर माओवादी अभी .तक लड रहे हैं वह अंतत: असफल ही होगा यदि समय रहते उसकी लोकतांत्रिक संभावनाओं का उपयोग न कर लिया जाये. सी पी एम के खिलाफ जो बडी मोर्चेबन्दी के तहद तृणमूल से लेकर माओवादी तक एक जगह आ जाते हैं वह अब ज्यादा देर टिकने वाला नहीं लगता. कोई ध्यान से देखे तो उसे लगेगा कि खुद ममता बनर्जी इस बात को बखूबी समझने लगी हैं. इलाका दखल के तर्क से जो सोचते हैं वे अदूरदर्शी हैं. उन्हें मालूम ही नहीं कि एक मिनट में सब कुछ धूल में मिल जायेगा जब सरकारी तंत्र उनपर टूट पडेगा. और फिर क्या जरूरत है कि माओवादी की इस स्ट्रेटेजी से राजनैतिक लडाई की जाये. माओवाद का कोई भविष्य नहीं है.
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