सिद्धार्थ जी ,लगता है आप समझदार व्यक्ति हैं,लिखा हुआ पढ़ लेते हैं,मेरा सारा लिखा आपके सामने है आप कृपया बताएं कि कहां पर गाली-गलौज की भाषा का इस्तेमाल किया गया है। क्या आलोचना लिखना गाली है ? यदि आलोचना लिखना गाली है तो फिर आलोचना विधा को क्या कहेंगे ? लिखा हुआ और यथार्थ की कसौटी पर परखा हुआ छद्म नहीं वास्तविक होता है,छद्म लेखन के लिए जिन उपायो की जरूरत होती है उनमें से एक है रूपकों के जरिए अनेकार्थी बातें करना और यह काम प्रभाष जोशी ने अपने साक्षात्कार में खूब किया है ,सती के प्रसंग में।
किसी के लिखे पर लिखना,आलोचनात्मक नजरिए से लिखना गाली-गलौज नहीं कहलाता,यह स्वस्थ समाज का लक्षण है, आंखें बंद करके रखना,जो कहा गया है उसे अनालोचनात्मक ढ़ंग से मान लेना आधुनिक होना नहीं है, आधुनिक व्यक्ित वह है जो असहमत होता है,आप जब असहमत होने वालों को गलत ढ़ंग से व्याख्यायित करते हैं तो हमें दिक्कत होगी ,हम चाहेंगे आप हमसे तर्क के साथ असहमति व्यक्त करें।निष्कर्ष और जजमेंट सुनाकर फैसला न दें।
भाई रणवीर जी, इंटरनेट पर जाओगे तो कुछ भी हो सकता है,मैं बहुत ही भरोसे कह रहा हूं, ‘मोहल्ला लाइव’ पर आयी प्रतिक्रियाओं को महज प्रतिक्रिया के रूप में लें,संपादकों के नाम पत्र तो इससे भी खराब भाषा में आते हैं और संपादकजी उन्हें पढते भी हैं,यह बात दीगर है कि छापते नहीं हैं।
‘निर्मम कुटाई’ को शाब्दिक अर्थ में ग्रहण न करें ,उसकी मूल भावना को पकडने की कोशिश करें ,जैसे प्रभाष जी से सती के ‘सत्व’ और ‘निजत्व’ की मौलिक खोज की है, वे जरा प्रमाण दें सती के ‘सत्व’ के ? उनकी सती का ‘सत्व’ सावित्री तक ही क्यों रूका हुआ है ? वह वर्तमान काल में क्यों नहीं आता ? मैं दावे के साथ कह सकता हूं यदि वे यही बात हाल के दिनों में हुई किसी सती के बारे में बताएं तो उनकी सारी पोल स्वत: खुल जाएगी। कृपया रूपकंवर के ‘सत्व’ का रहस्य बताएं ? क्या राजस्थान में सती के मंदिर स्त्री के ‘सत्व’ और ‘निजत्व’ के प्रदर्शन के लिए बने हैं ? बलिहारी है,कृपया सतीमंदिरों के सती को ‘सत्व’ में रूपान्तरित करके देखें क्या अर्थ निकलता है ? जरा उस बेलगाम गद्य की बानगी ‘नेट’ पाठक भी देखें और ‘सत्व’ का आनंद लें ? दूसरी बात यह कि मेरा परिचय और पता जान लें ,वेब पर नाम के साथ आसानी से मिल जाएगा।
चार्वाक सत्य जी, आप काहे को नाराज हो रहे हैं, आलोक तोमर के गद्य में व्यंग्य होता है और सत्य भी। आलोक जी का यह कथन प्रभाष जोशी के लिए काफी है,आलोक तोमर ने लिखा है ”लेकिन जहां तक भारत में नेट का समाज नहीं होने की बात है, वहां मैं अपने गुरु से विनम्रतापूर्वक असहमत होने की आज्ञा चाहता हूं। भारत में इंटरनेट का समाज आज लगभग उतना ही विकसित है जितना छपे हुए अखबारों और पत्रिकाओं का। प्रभाष जी ने अगर एक शब्द लिखा या बोला तो नेट के तमाम ब्लॉग और वेबसाइट पर हर शब्द के जवाब में हजारों लाखों शब्द लिखे गए।” इससे बेहतर प्रशंसा नेट लेखकों की नहीं हो सकती,रही बात प्रभाषजी के ‘महानायक’ होने की तो वे ‘महानायक’ रहेंगे, उस पद का फिलहाल दूर-दूर तक हिंदी में कोई संपादक दावेदार नहीं है। वे अपने चर्चित साक्षात्कार में व्यक्त किए गए प्रतिगामी विचारों के बावजूद ‘महानायक’ रहेंगे।वे प्रेस संपादकों की परंपरा के अंतिम ‘महानायक’ हैं, क्योंकि यह युग ‘नायक’ और ‘महानायक’ के अंत के साथ ही शुरू हुआ है।
आलोक तोमर ने लिखा है ”प्रभाष जी को बताया गया था कि इंटरनेट पर बहुत धुआंधार बहस उनके बयानों को लेकर छिड़ गई थी और अब तक छिड़ी हुई है। उस बहस में मैं भी शामिल था इसलिए उन्होंने मुझसे बात की। गुस्से में लिखे हुए एक वाक्य के लिए झाड़ भी लगाई।” यहां ‘ झाड़’ शब्द पर ध्यान दें। प्रभाष जोशी अपने सबसे प्रिय पत्रकार को क्या लगा रहे हैं ? ‘झाड़’, हम लोगों से संवाद नहीं करने का मूल सूत्र यहां मिल गया है,काश हम भी उनके चेले होते अथवा सहकर्मी होते तो कम से कम जो सौभाग्य बंधुवर आलोक तोमर को मिला है वह हमें भी नसीब होता। आलोक तोमर की बाकी बातों पर कुछ नहीं कहना है क्योंकि उन्हें अपनी बात अपने लहजे में कहने का उन्हें पूरा हक है ,और ‘अल्लू पल्लू’ कोई गाली नहीं है,वैसे ही बेकार का शब्द है। दोस्त अगर गाली भी दे तो हंसकर सुन लेना चाहिए ,आलोक तोमर हमारे अजीज दोस्त रहे हैं और आज भी हैं।
चार्वाक सत्य जी,’जनसत्ता’ को बर्बाद करने में मालिकों की बड़ी भूमिका है,संपादक तो निमित्त मात्र है। आप प्रभाष जी को कहां रखते हैं यह समस्या नहीं है, वे जहां हैं वहीं रहेंगे। किसी पत्रकार को प्रबंधन क्षमता के आधार पर नहीं संपादकीय क्षमता के आधार पर देखना चाहिए। प्रभाष जोशी निश्चित रूप से अद्वितीय संपादक थे। यह स्थान उन्होंने लेखन के बल पर बनाया है,भूल और गलतियों के आधार पर नहीं,प्रत्येक लेखक से भूलें होती हैं,दृष्टिकोणगत भूलें भी होती हैं,’परफेक्शन’ की कसौटी पर प्रभाषजी को परखने की जरूरत नहीं है,वे उन बीमारियों के भी शिकार रहे हैं जो प्रतिष्ठानी प्रेस के संपादक में होती हैं। ये बीमारियां प्रतिष्ठानी प्रेस के संपादक में कहीं पर भी हो सकती हैं। ‘एक्सप्रेस ग्रुप’ की हालत को समग्रता में देखें, किस तरह वह धीरे धीरे मार्केट में कमजोर होता चला गया है,’जनसत्ता’ इस प्रक्रिया में तुलनात्मक तौर पर ज्यादा बर्बाद हुआ है,यह दुख की बात नहीं है, आप अखबार को यदि ‘विचार’ साहित्य का पर्याय बना देंगे तो यह दुर्गत किसी के भी साथ हो सकती है, खबरों के युग में,नई तकनीक और नई प्रबंधन कला के युग में ‘एक्सप्रेस’ ग्रुप के मालिक अपने को समय के अनुरूप तेज गति से बदल ही नहीं पाए और एक्सप्रेस ग्रुप को समग्रता में संकट से गुजरना पड़ रहा है। ‘जनसत्ता’ अखबार बेखबर लोगों का अखबार जब से बनना शुरू हुआ तब से उसका प्रेस जगत में दीपक लुप लुप करने लगा। यह दुर्दशा प्रभाषजी के संपादनकाल से ही आरंभ हो गयी थी। एक जमाना ‘जनसत्ता’ हिन्दी के जागरूक पाठकों का ही नहीं हिन्दी अनिवार्य अखबार था,बाद में किसी को पता ही नहीं है कि वह कहां है, क्या छाप रहा है,पाठकों से जनसत्ता का अलगाव पैदा क्यों हुआ यह अलग बहस का विषय है।
चार्वाक सत्य जी, मुश्किल यह है प्रभाष जी सोचते हैं वे ‘महान’ कार्य कर रहे थे , ‘महान’ लेखन कर रहे थे , वे जो भी कुछ लिखते हैं ‘महान’ लिखते हैं ,और इस ‘महानता’ के बोझ ने ही ‘जनसत्ता’ अखबार के बारह बजा दिए। संपादक के नाते और सलाहकार संपादक के नाते प्रभाष जोशी अपनी भूमिका निभाने में एकदम असफल रहे हैं, ‘जनसत्ता’ की दुर्दशा के कारणों में से उनका संपादकीय रवैयाया गैर पेशेवर था, वे प्रधान कारण थे। वे यह मानते ही नहीं थे, कि अखबार के लिए नयी तकनीक,नयी प्रबंधन शैली,नयी मार्केटिंग आदि की जरूरत होती है, वे तो सिर्फ ‘विचार’ और ‘अपने नाम’ पर अखबार बेचना चाहते थे और परिणाम सामने हैं। उनके नाम से अखबार पसर चुका है, कोई उसे खरीदने को तैयार नहीं है। आज ‘जनसत्ता’ को कम से कम छापा जाता है और उससे भी कम बिक्री होती है।अधिकांश शहरों में तो वह स्टाल पर भी नजर नहीं आता,यह स्थिति दिल्ली की भी है। ‘जनसत्ता’ का पराभव ठोस सच्चाई है आभासी अगर कुछ है तो प्रभाष जोशी का लेखन। आलोक तोमर ने सही बात कही है उसे गंभीरता से लेना चाहिए,आलोक तोमर ने प्रभाष जी के बारे में सही लिखा है वह,’ एक हद तक आत्मघाती सरोकारों से जुड़े रहे हैं ।’ एक संपादक के ‘आत्मघाती सरोकार’ उसके व्यक्ितत्व,पेशे और पाठक सबको नष्ट करते हैं। ‘जनसत्ता’ कमाए यह चिन्ता प्रभाषजी की कभी नहीं थी,यह बात दीगर थी कि जनसत्ता के बहाने उन्होंने अपना हिसाब-किताब ठीक जरूर रखा। उनके गैर पेशेवर रवैयये के कारण ही बेहतरीन पत्रकारों को जनसत्ता से अलग होना पड़ा।
चार्वाक सत्य जी,थोड़ा गंभीरता के साथ इस ‘डिस इनफारर्मेशन’ अभियान यानी ‘सत्य का अपहरण कांड’ पर भी ध्यान दें,
प्रभाष जोशी के अभी पुराने साक्षात्कार की स्याही सूखी भी नहीं थी कि उन्होंने अपने ‘ज्ञान’ और ‘सत्यप्रेम’ का परिचय फिर से दे दिया है। जो लोग उनके प्रति श्रद्धा में बिछे हुए हैं उन्हें गंभीरता के साथ ‘जनसत्ता’ (23 अगस्त 2009) के ‘कागद कारे’ स्तम्भ में प्रकाशित ‘सड़ी गॉठ का खुलना’ शीर्षक टिप्पणी पर सोचना चाहिए। यह टिप्पणी एक महान सम्पादक के सत्य- अपहरण की शानदार मिसाल है।
प्रभाष जोशी ने अपने मिजाज और नजरिए के अनुसार चाटुकारिता की शैली में जसवंत सिंह प्रकरण पर जसवंत सिंह के बारे में लिखा है ,” अपने काम,अपनी निष्ठा और अपनी राय पर इस तरह टिके रहकर जसवंत सिंह ने अपनी चारित्रिक शक्ति और प्रमाणिकता को ही सिद्ध नहीं किया है, अपने संविधान में से दिए गए अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार को भी बेहद पुष्ट किया है।” आश्चर्यजनक बात यह है कि प्रभाषजी एक ऐसे व्यक्ति के बारे में यह सब लिख रहे हैं जो खुल्लमखुल्ला भारत के संविधान और संप्रभुता को गिरवी रखकर कंधहार कांड का मुखिया था,इस व्यक्ति को मौलिक अधिकार का इस्तेमाल करने का अधिकार देने का अर्थ है हिटलर की टीम के गोयबल्स को बोलने का अधिकार देना , सवाल यह है गोयबल्स यदि हिटलर से अपने को अलग कर लेगा तो क्या उसके इतिहास में दर्ज अपराध खत्म हो जाएंगे ? प्रभाषजी जब जसवंत सिंह की पीठ थपथपा रहे हैं तो प्रकारान्तर से जसवंत सिंह के ठोस राजनीतिक कुकर्मों ,राष्ट्रद्रोह और सत्य को भी छिपा रहे हैं, क्या भाजपा और शिवसैनिकों के द्वारा किए गए सांस्कृतिक हमले और अभिव्यक्ति की आजादी पर किए गए हमलों का जसवंत सिंह द्वारा किया गया समर्थन हम भूल सकते हैं ? क्या बाबरी मस्जिद विध्वंस और दंगों में संघ और उनके संगठनों की भूमिका और उसके प्रति जसवंत सिंह का समर्थन भूल सकते हैं ? प्रभाषजी जब संघ के बारे में,कांग्रेस के बारे में लिखते हैं उन्हें अतीत की तमाम सूचनाएं याद आती हैं,घटनाएं याद आती हैं,लेकिन जसवंत सिंह प्रकरण में उन्हें जसवंत सिंह की कोई भी पिछली घटना याद नहीं आयी, इसी को कहते हैं सत्य का अपहरण और ‘डिस- इनफॉरर्मेशन’ .
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रभाष जी को इतिहास और राजनीतिक दलों के अन्तस्संबंध पर विचार करते समय यह भी धन रखना होगा कि कांग्रेस,कम्युनिस्ट, सोशलिस्ट आदि सभी दलों के मानने वाले इतिहासकारों में अपनी ही विचारधारा और नजरिए के लोगों के बीच मतभेद रहे हैं, इतिहास को लेकर मतभिन्नता के आधार पर कभी कांग्रेस और कम्युनिस्टों ने अपने सदस्य इतिहासकारों के खिलाफ कभी कोई कार्रवाई नहीं की।
प्रभाष जी यदि जसवंत सिंह को अपनी एक सडी गॉठ खोलने के लिए यदि साढे छह सौ पेज चाहिए तो आपको जसवंत सिंह के राजनीतिक सत्य का उजागर करने के अभी कितने पन्ने और चाहिए ? प्रभाषजी जैसा महान पत्रकार यह विश्वास कर रहा है कि जसवंत सिंह को किताब लिखने के कारण निकाला गया,सच यह है कि राजस्थान के अधिकांश भाजपा विधायक और उनकर नेत्री चाहती थीं कि पहले अनुशासनहीनता के लिए जसवंत सिंह को पार्टी से निकालो, वरना वे सब चले जाते,भाजपा ने हानि लाभ का गणित बिठाते हुए जसवंत सिंह को निकालने में पार्टी का कम नुकसान देखा, उनके निष्कासन में अन्य किसी कारक की खोज करना मूर्खता ही है। इससे भी बड़ी बात यह है कि इतिहास के प्रति प्रभाषजी का किस्सा गो का रवैयया रहा है। भक्तों से जबाव की अपेक्षा है।
शंबूक जी, बहस को हल्का बनाने से क्या होगा ? आप उन्हें नायक,महानायक नहीं मानते ठीक है, आपका लोकतांत्रिक हक है और लोकतांत्रिक विवेक है कि आप उन्हें ही क्यों किसी को कुछ भी मानें,आप धन्य हैं,हमें धिक्कार है, आपका मूल्यांकन सही ,मामला अगर इतने से ही शांत हो जाए और जोशी जी बोलें तो समझें ठीक है, वरना तो विभारानी की बात ही ठीक है ‘हम सब रहम करें’,
अव्छी नेट पत्रकारिता को खराब करने से क्या लाभ ? आप जिस तरह के उदाहरण दे रहे हैं और हल्की बातें कहकर सारे मामले को दूसरी दिशा देना चाहते हैं वह तो प्रभाष जोशी के लिए अच्छा होगा और उनके भक्तों की इस बहस में व्यक्त धारणाओं की पुष्टि ही होगी।आप कम से कम अपना नहीं तो अपने कहे के प्रभाव का तो ख्याल रखें,ऐसा करते रहेंगे तो इससे साख नहीं बनेगी, इसे उपदेश न समझें,यह सुझाव भी नहीं है, यह महज एक राय है। इसे मानें या न मानें आपके ऊपर है। सबसे अच्छा तो यही होता कि आपको लोग वास्तव में नामों से सामने अपनी बातें रखते, खुलकर प्यार से बातें करते, नाम बदलकर लिखने से बात का वजन खत्म हो जाता है,मुखौटों पर लोग वैसे भी विश्वास नहीं करते। आप अच्छे लोग हैं और लोकतांत्रिक लय में रहते हैं, हमारे लिए तो यही काफी है अब यह आपके ऊपर है अपना गांव किसे सौंपें ,अपना काम कैसे करें,कैसे व्यक्त करें,सही नाम से या छद्म नाम से ,यह तो आपके ऊपर है। आप अपने दोस्त और दुश्मन को नहीं पहचानेंगे तो फिर हम बहस क्यों कर रहे हैं ?मैं फिर दोहरा रहा हूं, प्रभाष जोशी हमारे वर्ग शत्रु नहीं हैं। हम लोग लिखते हैं,घृणा का व्यापार नहीं करते। जो लेखक,पाठक, यूजर, राजनीतिज्ञ,संस्कृतिकर्मी घृणा का व्यापार करता है उसका समाज में कोई स्थान नहीं है।हमें अभी तक यही लगा है आप अच्छे लोग हैं,लोकतंत्र में विश्वास करते हैं,घृणा तंत्र में नहीं। हमारे मतभेद,विरोध,असहमति आप जो भी कुछ कहें वह प्रभाष जोशी के लिखे के साथ हैं, उनके व्यक्तिगत जीवन से हमें क्या लेना-देना जब तक वह सामाजिक नहीं होता.
( mohalla Live पर विभारानी की टिप्पणी 'प्रभाष जी की मति भ्रष्ट हो गयी है, आप सब रहम करें' को विस्तृत अध्ययन के लिए देखें ,उपरोक्त विचार वहां पर ही व्यक्त किए गए थे )
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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