माकपा को अभी लोकसभा पराजय के सदमे से मुक्ति नहीं मिली थी कि सुभाष चक्रवर्ती की मौत की खबर आ गयी। केन्द्र में शीर्ष नेतृत्व में बैठे लोगों में कई नेता ऐसे हैं जिनका माकपा में सुभाष की छात्र राजनीति के चरमोत्कर्ष के दौर में देश के कम्युनिस्ट आंदोलन में कहीं पर भी कोई अता-पता नहीं था। ऐसे ही छुटभैयये नेता राज्य में भी बैठे हुए हैं।
सुभाष जब जिंदा थे तब पार्टी के अधिकांश नेता उनकी उपेक्षा करते थे, पार्टी के एक तबके के द्वारा सुभाष चक्रवर्ती के बारे में मीडिया में आए दिन खबरें उछाली जाती थीं, इनमें ज्यादातर खबरें उनके व्यक्तिगत जीवन को कालिमा से युक्त करने वाली हुआ करती थीं। इन खबरों की ओर सुभाष चक्रवर्ती ने कभी ध्यान नहीं दिया। सुभाष चक्रवर्ती की जनता के साथ घनिष्ठता इतनी प्रगाढ़ थी कि उनके खिलाफ एक्शन लेने के पहले राज्य नेतृत्व को अनेक बार द्रविड़ प्राणायाम करना पड़ा था।
हाल ही में यह सवाल उठा है कि सुभाष चक्रवर्ती के बाद उनके अनुयायी किस ओर जाएंगे। एक पक्ष का मानना है तृणमूल कांग्रेस उनके मानव समुदाय को अपने साथ ले जाने की पूरी कोशिश करेगा। दूसरी ओर माकपा में नयी जान ड़ालने की कोशिश की जा रही है। सुभाष की अंतिम यात्रा में आई भीड़ को माकपा के कुछ नेता माकपा के प्रति नयी पैदा हुई सहानुभूति के तौर पर देख रहे हैं। वे उम्मीद करते हैं सुभाष दा के प्रति जो प्यार जनता ने व्यक्त किया है उसे वे पार्टी की राजनीतिक पूंजी में बदल देंगे। ऐसे नेताओं को यह ध्यान भी रखना होगा कि सुभाष दा की अंतिमयात्रा में जो लोग आए थे उनमें माकपा के लोगों के अलावा एक बड़ा समुदाय ऐसा भी था जो माकपा को फूटी आंख देखना पसंद नहीं करता, शवयात्रा में आए लोग बार-बार एक ही बात का जिक्र कर रहे थे कि पार्टी ने सुभाष दा की घनघोर उपेक्षा की है। सुभाष दा जिस समय पार्टी के सबसे चमकदार युवानेता थे उस समय से लेकर आज तक उनकी चमक में इजाफा हुआ है। इसके बावजूद पार्टी के जिम्मेदार पदों पर उन्हें किसी न किसी बहाने जिम्मेदारी नहीं दी गयी। सुभाष दा की अंतिम शवयात्रा में जनता ने शिरकत करके पार्टी के उन गुटबाज नेताओं को संदेश दिया है कि पार्टी की उपेक्षा के बावजूद आम जनता में सुभाष दा जनप्रियता के चरम पर थे। जनता का इतने व्यापक पैमाने पर शवयात्रा में शामिल होना ,पार्टी के द्वारा सुभाष दा की उपेक्षा का प्रतिवाद भी है ,इसे माकपा का समर्थन समझने की भूल नहीं करनी चाहिए।
माकपा नेतृत्व को सुभाष दा की शवयात्रा में आए लोगों की विशाल संख्या को देखकर गहरी चोट पहुंची है, मन में आघात लगा है। क्योंकि तकरीबन सभी नेता एकसिरे से सुभाष को जननेता मानने को तैयार नहीं थे, सुभाष दा ने मरने के बाद विशाल जनसमूह को अपने साथ एकजुट करके संदेश दिया है जनता महान है,जनता की सेवा ही देश की बड़ी सेवा है। जो नेता जनसेवा के नाम पर सिर्फ पार्टी सेवा करते रहते हैं, सुभाष दा की शवयात्रा में आयी जनता उनको यह संदेश दे रही थी कि पार्टी सेवा असली जनसेवा नहीं है। असली जनसेवा वह है जो पार्टी के लोग निस्वार्थ भाव से सबके हित में करते हैं। सुभाष दा ने जीते जी अपने काम और जनसेवा से कम्युनिस्टों के सामने एक नया मानक पेश किया है। यह ऐसा मानक है जो अभी तक कहीं देखने में नहीं आया है।
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