व्यवहारवाद नव्य उदार राजनीति की धुरी है। ओबामा से लेकर मायावती तक मनमोहन सिंह से लेकर बुद्धदेव भट्टाचार्य तक सभी इस पर चल रहे हैं । सबने अपनी राजनीति और विचारधारा को तिलांजलि दे दी है। व्यवहारवाद से विचारधारा को पराजित नहीं किया सकता।व्यवहारवाद अमेरिकी राजनीति का प्रधान दर्शन है और हमारे राजनीतिक दल इसे अनालोचनात्मक भाव से अपनाते जा रहे हैं।
व्यवहारवाद यदि विचारधारा से ज्यादा शक्तिशाली अस्त्र होता तो अमेरिका की विन लादेन के हाथों आज जो दुर्गति हो रही है वह नहीं हुई होती। हमारे देश के प्रधानमंत्री और उनके अनुयायी मुख्यमंत्रीगण भी व्यवहारवाद का ही अनुकरण करके उग्रवाद,आतंकवाद, माओवाद, साम्प्रदायिकता, पृथकतावाद आदि विचारधाराओं से लड़ना चाहते हैं और बार-बार पराजय का सामना कर रहे हैं।भारत की राजनीति में व्यवहारवाद कब और कैसे घुस आया इसकी गंभीरता के साथ पड़ताल करने की जरूरत है। व्यवहारवाद से विचारधारा को पराजित नहीं किया जा सकता।
प्रधानमंत्री का यह कहना कि पाक स्थित आतंकी गुट भारत पर हमले की तैयारी कर रहे हैं और हाल के दिनों में तकरीबन 200 आतंकी पाक सीमा लांघकर जम्मू-कश्मीर में घुस आए हैं और वे अत्याधुनिक हथियारों से लैस हैं। क्या किसी भी प्रधानमंत्री को इस तरह का सटीक बयान देना शोभा देता है ? प्रधानमंत्री की सूचना इतनी ही सटीक है तो इन आतंकियों को रोका या पकड़ा क्यों नहीं गया ? भारत की पाक सीमा पर कई लाख सैनिकों की मौजूदगी यदि आतंकियों के प्रवेश को रोक नहीं पा रही है तो फिर साधारण आदमी किस पर विश्वास करे ? दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि भारत का आतंकी गुटों के प्रति आक्रामक रवैयया उतना धारदार नहीं है जितना धारदार होना चाहिए।
आतंकी गुटों के खिलाफ वातावरण बनाने में मीडिया प्रभावशाली भूमिका अदा कर सकता है किंतु भारत सरकार के अब तक मीडिया प्रयासों की वरीयता में आतंकवाद के खिलाफ जनजागरण नहीं आता। प्रसार भारती के प्रसारणों और सरकार समर्थित अखबारों के पन्नों पर प्रकाशित सामग्री इसकी गवाह है। आतंकवाद कोई कानून- व्यवस्था की समस्या नहीं है बल्कि एक विचारधारा है इसे लेकर जब तक आम जनता को भारत सरकार शिक्षित करने का काम नहीं करती तब तक आतंकी गुटों को उनके जमीनी आधार से अलग करना मुश्किल होगा। मीडिया के मामले में कम से कम मनमोहन सिंह सरकार अमेरिका से बहुत कुछ सीख सकती है। अमेरिकी प्रशासन की मदद और आतंकवाद से संबंधित विभिन्न सरकारी मदद प्राप्त शोध संस्थानों और विचारकों के समूहों के अहर्निश लेखन और प्रचार अभियान के कारण ही आज अमेरिका में आतंकवादी आंतरिक घुसपैठ नहीं कर पा रहे हैं। भारत में ऐसा कोई भी तंत्र अभी काम नहीं कर रहा।
प्रधानमंत्री के अनुसार जम्मू-कश्मीर में आतंकियों के गुटों की सक्रियता में इजाफा हुआ है। सोचने वाली बात यह है कि लोकतंत्र के सक्रिय स्तम्भों के होते हुए आखिरकार वह कौन सी चीज है जो आमलोगों को आतंकियों की ओर खींचती है ? जम्मू-कश्मीर की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए केन्द्र ने अभी तक कोई बड़ा कदम नहीं उठाया है,केन्द्र और राज्य सरकार पर्यटन पर ही भरोसा लगाए बैठी हैं,विगत 25 सालों में जम्मू-कश्मीर में पूंजीपतियों को जबर्दस्ती ले जाकर कारखाने और नए उद्यांग धंधे खोले जाने चाहिए थे,साथ ही नयी बस्तियां बसाने पर भी जोर दिया जाना चाहिए था,इसके लिए हमें इस्राइल की रणनीतियों से बहुत कुछ सीखना चाहिए।
आश्चर्य की बात यह है कि आतंकियों के हमलों के कारण लाखों कश्मीरी शरणार्थी की तरह दिल्ली और अन्य इलाकों में वर्षों से दिन गुजार रहे हैं भारत सरकार ने कोई भी ऐसा कदम नहीं उठाया जिससे इन्हें वापस अपने घर भेजा सकता। भारतीय सेनाओं की सीमाओं की देखभाल और सुरक्षा करना जिम्मेदारी है तो उसकी आंतरिक सुरक्षा का वातावरण बनाए रखने की जिम्मेदारी है साथ भारत सरकार के अन्य मंत्रालयों की भी जम्मू-कश्मीर में कोई भूमिका हो सकती है जिसकी ओर अभी ध्यान ही नहीं गया है। भारत सरकार को जम्मू-कश्मीर में आतंकियों को स्थानीय जनता में अलग-थलग डालने के लिए बहुस्तरीय रणनीति अपनानी होगी। महज सीमा की रखवाली वाली रणनीति से अभीप्सित परिणाम नहीं निकलेगा।
प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में नक्सलवाद अथवा वामपंथी अतिवाद की समस्या की ओर खींचते हुए पहलीबार एक संतुलित राजनीतिक बयान दिया है,वरना वामपंथी अतिवाद को लेकर उनके बयान एकांगी हुआ करते थे,प्रधानमंत्री का कहना है वामपंथी अतिवाद जटिल समस्या है। इससे निबटने के लिए दो स्तरों पर रणनीति बनाने की जरूरत है,राज्य को अपनी जिम्मेदारियों और भूमिका अदा करनी चाहिए,सुरक्षातंत्र मजबूत करना चाहिए,कानून का शासन स्थापित करना चाहिए। साथ ही उन बुनियादी समस्याओं को दूर करने का प्रयास करना चाहिए जिसके कारण लोग नक्सलवाद की ओर आकर्षित होते हैं और प्रशासन के साथ जनता का अलगाव पैदा होता है। इस प्रसंग में दो बातें हैं जिनकी ओर राज्यों से पहले केन्द्र को ध्यान देना होगा,पहली चीज यह कि राज्यों के पास पर्याप्त संसाधन नहीं हैं अत: पुलिसबलों के आधुनिकीकरण और खाली पदों की भर्ती के काम को राज्य नहीं कर पाए,दूसरा यह कि खुद केन्द्र ने लंबे समय से नई नियुक्तियों पर पाबंदी लगायी हुई थी, इसके अलावा वामपंथी अतिवाद से प्रभावित इलाके भयानक गरीबी में जी रहे हैं और इसके लिए कोई नियोजित केन्द्रीय योजना केन्द्र सरकार के द्वारा ही संभव है। तकरीबन 140 जिले हैं जहां पर नक्सलवाद,माओवाद,उग्रवाद आदि की समस्या फैली हुई है, इन इलाकों में पिछले 62 सालों में विकासकार्य एकदम नहीं हुए हैं।
मुख्यमंत्रियों का यह सम्मेलन आंतरिक सुरक्षा की समस्या पर विचार करने के लिए बुलाया गया था और इसमें पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री अथवा किसी भी मंत्री का नहीं पहुंचना इस बात का संकेत है कि हमारी राज्य सरकारों में अभी तक आंतरिक सुरक्षा की समस्या पर जिस तरह की जागरूकता,सक्रियता और राजनीतिक तत्परता होनी चाहिए है वह अभी तक पैदा नहीं हुई है। पश्चिम बंगाल अपने यहां सबसे गंभीर लालगढ़ आपरेशन में फंसा है यह आपरेशन केन्द्र की नीति की परीक्षा है और अभी तक के संकेत बताते हैं कि लालगढ़ में अभीप्सित सफलता नहीं मिली है और एक भी माओवादी को पुलिस पकड़ नहीं पायी है। केन्द्र ने बड़े पैमाने पर अर्द्ध सैनिक बलों की टुकडियां मुहैयया करायी हैं,इसके बावजूद आपरेशन यदि सफल नहीं हो रहा है तो उसका प्रधान कारण है राज्य पुलिसबल के पास नैतिक और राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव। पुलिसबलों में नैतिक और राजनैतिक इच्छाशक्ित तब ही पैदा की जा सकती है जब पुलिसबलों को पेशेवर तरीके से काम करने दिया जाए और राजनीतिक हस्तक्षेप से पूरी तरह मुक्त रखा जाए।
व्यवहारवाद (प्रैगमैटिज्म) विचारधारा ही अब असली विचारधारा बनती जा रही है. कम से कम उन लोगों के लिए, जो दुनिया को चलाते हैं. दूसरी बात, जिस पेशेवर तरीके की बात पुलिस के सम्बन्ध में कही गयी है वह संभव तभी है जब इसे सब क्षेत्रों में लागू किया जाये. मास्टर मास्टरी करे, झाडूदार झाडू लगाए और डाक्टर डाक्टरी करे. हर काम जो उसका प्राथमिक काम हो उसी पर उस आदमी का कद बने तभी जाकर ऐसा समाज बन सकता है जहां आदमी स्वाधीन होकर और स्वाभिमान के साथ चल सकता है. अमेरिका एक रूप में ऐसे लोगों का देश है जहां आदमी अपना अपना काम करता है. यह सही है कि अमरीक पिट भी रहा है लेकिन फिर भी रिचर्ड रोर्टी के प्रैगमैटिज्म से हम कुछ सीख सकते हैं.
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