लालगढ़ में अर्द्ध सैन्यबलों को भेजने का फैसला केन्द्र सरकार और पश्चिम बंगाल राज्य सरकार दोनों का था, इसमेंमनमोहन सिंह- बुद्धदेव भट्टाचार्य की महत्वपूर्ण भूमिका थी।माओवादियों के खिलाफ यह हाल के वर्षों का सबसे बड़ा अभियान था जो असफल रहा है।
लालगढ़ में माकपा और राज्य सरकार क्या करें जिससे राजनीतिक क्षति को कम किया जा सके। अभी लालगढ़ में सबसे ज्यादा माकपा को कीमत अदा करनी पड़ रही है। उसके 24 से ज्यादा कार्यकर्त्ता मारे गए हैं। अनेक सदस्य इलाका छोड़कर भागने को मजबूर हुए हैं। लालगढ़ की असफलता माकपा के जिद्दी रूख की पराजय है, यह उस नजरिए की पराजय है जो अपने को हमेशा सही मानकर चलता है। माकपा का राज्य नेतृत्व अभी भी यह मानने को तैयार नहीं है कि लालगढ़ में कोई राजनीतिक गलती हुई है। माकपा की बुनियादी समझ है कि 'हम हमेशा सही सोचते हैं, सही करते हैं' यानी 'हम सही और बाकी सब गलत' का रास्ता मूलत: राजनीतिक कूपमंढूकता का रास्ता है।
लोकतंत्र में ' मैं सही' का रास्ता अंतत: मनमानी राजनीति को जन्म देता है, लालगढ़ में यही मनमानपन साफ झलक रहाहै। क्या लोकतंत्र में 'अन्य' को पूरी तरह अस्वीकार करके काम किया जा सकता है, जी नहीं, 'अन्य' को साथ लेकर ही काम करने से सफलता मिलती है और राजनीतिक साख बनती है, माकपा की राजनीतिक साख का स्तर आज जितना नीचे है उतना नीचे पहले कभी नहीं रहा। समस्या यह है कि लालगढ़ से कैसे वापस लौटें।
पहले संक्षेप में उस दृश्य की कल्पना करें कि माकपा के नेताओं पर मनोवैज्ञानिक तौर पर वापसी के साथ क्या गुजरेगी, यदि माकपा का राज्य नेतृत्व राजनीतिक है और नाक का बाल बनाकर राजनीति नहीं कर रहा तो लालगढ़ से तत्काल अर्द्धसैनिक बलों को वापस बुला लेना चाहिए और इलाके में सामान्य प्रशासनिक मशीनरी के हवाले सारे कामकाज को सौंप दिया जाना चाहिए।
लालगढ़ की सफलता को विपक्ष या माओवादियों की जीत और माकपा या राज्य सरकार की हार के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए।लालगढ़ का सवाल हार-जीत का सवाल नहीं है। माकपा को गोरखालैण्ड आंदोलन के राजनीतिक सबक का यहां इस्तेमाल करना चाहिए। लालगढ़ से अर्द्धसैनिक बलों की वापसी के साथ साथ लालगढ़ में सक्रिय पुलिस दमन विरोधी कमेटी के नेताओं को बातचीत के लिए बुलाकर उनकी मांगों पर तुरंत कार्रवाई करनी चाहिए। राज्य सरकार यदि उनकी मांगों पर सकारात्मक रवैयया नहीं अपनाएगी तो स्थिति और भी पेचीदा होती चली जाएगी।
इसके अलावा लालगढ़ का आन्दोलन सुनियोजित आन्दोलन है,वह स्वत:स्फूर्त्त आंदोलन नहीं है, उसके पीछे विपक्ष की शक्ति काम कर रही है ऐसी स्थिति में समस्या को ज्यादा समय तक उलझाना नहीं चाहिए। सिंगूर-नंदीग्राम को लंबा खींचने से इतनी व्यापक क्षति हुई है कि समूचे राज्य में वाममोर्चे के जनसमर्थन में तेजी से गिरावट दर्ज की गयी है,लालगढ़ को यदि लंबा खींचा गया तो भविष्य में माकपा को लोकसभा चुनाव से भी ज्यादा बड़ी कीमत अदा करनी पड़ सकती है।
माकपा राज्य नेतृत्व की यह धारणा रही है कि नंदीग्राम हो या सिंगूर सब लोकल समस्या है, इनका स्थानीय विधानसभा या लोकसभा क्षेत्र तक ही प्रभाव रहेगा, यही गलत समझ लालगढ़ को लेकर है कि यह आदिवासियों, माओवादियों या विपक्ष की स्थानीय समस्या है इसका व्यापक स्तर पर कोई असर नहीं होगा। यह समझ बुनियादी तौर पर गलत है। आज पश्चिम बंगाल ग्लोबलाईजेशन के पैराडाइम में है उसका कोई भी आंदोलन लोकल नहीं है बल्िक राष्ट्रीय प्रभाव छोड़ता है। नंदीग्राम-सिंगूर के राष्ट्रीय प्रभाव को हम देख चुके हैं, लालगढ़ का भी राष्ट्रीय असर होगा, पहला असर यह होगा कि माओवादियों के दमन के नाम पर बहुत जल्दी कोई भी राज्य अथवा केन्द्र सरकार अर्द्ध सैन्यबलों को हजारों की तादाद में माओवादियों के खिलाफ झोंकने के पहले छत्तीसबार सोचेगी।
लालगढ़ के प्रसंग में यह तथ्य भी विचारणीय है कि क्या इस समस्या को पकाए रखने में पक्ष और विपक्ष की कोई सुचिंतित समझ तो नहीं थी। लालगढ़ में मंशा कुछ भी रही हो आज वहां से अर्द्ध सैनिक बलों को तुरंत हटाकर शांति स्थापना की अपील राज्य सरकार करे और पुलिस संत्रास विरोधी कमेटी के लोगों को सुरक्षा का वायदा करते हुए बातचीत के लिए बुलाया जाना चाहिए। लालगढ़ के प्रसंग में जो लोग पकड़े गए हैं उन्हें तुरंत रिहा किया जाए, माओवादियों के साथ बैठकर बातें करके शांतिपूर्ण समाधान का रास्ता निकाला जाए। इस पूरी प्रक्रिया में कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस को बुनियादी तौर पर राजनीतिक साझीदार बनाया जाना चाहिए। लालगढ़ समस्या का समाधान बातचीत से यदि नहीं होता है तो कालान्तर में स्थिति और भी भयावह हो सकती है,इसबार की स्थिति नंदीग्राम से भी ज्यादा भयानक और डरावनी होगी।
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