भाजपा कैंप में चल रही इस धमाचौकड़ी का एक ही कारण है कि भाजपा को समझ में नहीं आ रहा है कि वह क्या करे,उसके सामने ज्यादा विकल्प नहीं हैं। भाजपा एकमात्र ऐसा दल है जो गलतफहमी पर ही चलता रहा है। राजनीति में गलतफहमी के कई फायदे होते हैं,पहला फायदा होता है कि आपको जनहित के सवाल पर आवाज बुलंद करनी नहीं पड़ती और जब आप बगैर आवाज बुलंद किए विपक्ष में बने रहते हैं तो कांग्रेस के लिए भी कोई खास परेशानी की बात नहीं है।दूसरा फायदा यह है कि आपकी किसी भी समस्या पर कोई जबावदेही नहीं होती। जरा थोड़ी देर सोचकर देखिए कि विगत पांच सालों में भाजपा ने कौन सा सकारात्मक राजनीतिक आंदोलन चलाया है ? अथवा अपने अब तक के राजनीतिक जीवन में कौन सा सकारात्मक आंदोलन चलाया है जिसके कारण वह केन्द्र तक में सरकार बनाने में एक बार सफल हो चुकी है। यही है भारत के लोकतंत्र की विशेषता इसमें भाजपा जैसी पार्टी को जनहित के सवालों पर बगैर राजनीतिक संग्राम किए विपक्षी दल का मौका मिला हुआ है, अभी तक भाजपा के नेतृत्व ने आम जनता को बताया तक नहीं है कि आखिरकार वे चुनाव क्यों हारे ? भाजपा की थ्योरी है ' ऊपर वाला जो करता है ठीक करता है।' चुनाव के बाद जब संघ के प्रमुख पदाधिकारियों के साथ भाजपा के नेता मिले थे तो संभवत: किसी बुजुर्ग संघी ने यही कहा होगा कि ' ऊपर वाला जो कुछ करता है सोच-समझकर करता है।' यही वह पुराना संतोषमंत्र है जिसे भाजपा के नेता जप रहे हैं, लेकिन इससे युवा नेतृत्व को संतोष नहीं है,वह बार-बार एक ही बात दोहरा रहा है 'जैसा करोगे वैसा भरोगे',जब अच्छे काम ही नहीं किए तो भगवान को दोष देने से क्या लाभ ?
मुश्किल यह है कि भगवान की चुनावों में दिलचस्पी नहीं है,दूसरी ओर कांग्रेस की स्थिति भी कोई खास बेहतर नहीं है। कांग्रेस ने भी चुनाव जीतने के बाद अभी तक नहीं बताया कि उनकी सरकार यदि विगत पांच सालों से शानदार ढ़ंग से काम कर रही थी तो उन्हें मात्र 206 सीटें ही क्यों मिलीं ? नई सरकार आने के बाद अनेक ऐसे सवाल आए हैं जिन पर भाजपा को अपनी आवाज बुलंद करनी चाहिए थी किंतु वे ऐसा नहीं कर पाए हैं, इसके कारण तो वे ही जानें किंतु एक बात सच है कि भारत की राजनीति को नपुंसक बनाने में नव्य उदारीकरण की केन्द्रीय भूमिका रही है, विभिन्न राजनीतिक दल बगैर किसी मुद्दे के चुनाव जीत रहे हैं और सत्ता और विपक्ष की शोभा बढ़ा रहे हैं। राजनीति का नपुंसक होना लोकतंत्र में प्रतिवाद के अंत का संकेत है,जब प्रतिवाद ही न हो तो लोकतंत्र फलेगा फूलेगा कैसे ? कांग्रेस को इस बात श्रेय जाता है कि उसने राजनीति को नपुंसक बनाया और प्रतिवाद की संभावनाओं को बड़े ही कौशल के साथ भ्रष्टाचार के जरिए खत्म किया।
आज सभी राजनीतिक दल हैं किंतु प्रतिवाद नहीं है, दलों के पास बेशुमार संसाधन हैं किंतु जनता उनके प्रतिवाद में नहीं आती, प्रतिवाद को तरह-तरह के कौशलपूर्ण उपायों के जरिए नष्ट करके सार्वजनिक संपत्ति की लूट का मार्ग प्रशस्त हुआ है, अधिकांश राजनीतिक दल इस लूट में से अपना-अपना हिस्सा ले रहे हैं और खुश हैं, यही स्थिति भाजपा की भी है। आज स्थिति यह है कि वाम और भाजपा के राजनीतिक व्यवहार में अंतर करना मुश्किल हो गया है एक जैसी भाषा,एक जैसे भवन, एक जैसे कपड़े और एक ही जैसे मुहावरे में बोलते देखा जा सकता है। कहने के लिए वे अलग-अलग दल हैं किंतु गैर प्रतिवादी रंगत के आधार पर एक जैसे प्रतीत होते हैं, यही है विचारधारा का अंत। आज कोई भी राजनीतिक दल अपनी विचारधारा के स्वर और रंग में न तो बोल रहा है और नहीं दिख रहा है।सभी दलों ने कमोवेश नव्य उदारतावाद की भाषा, मुहावरा, टेलीविजन प्रस्तुतियों की शैली,चाल-चलन आदि अपना लिया है,सबके मुंह पर ताले लगे हैं और सब रोज बोलते हैं किंतु क्या बोलते हैं कोई भी नहीं जानता। इसी को कहते राजनीति में एब्सर्डिटी । राजनीति को अर्थहीनता और नपुंसकता से निकालकर अर्थवत्ता प्रदान करने का काम नव्य उदारवाद की वैकल्पिक नीतियों के आधार पर ही संभव है, भाजपा में जो ठंडापन नजर आ रहा है और वे कुछ भी राजनीतिक हरकत नहीं कर रहे हैं इसका प्रधान कारण है दिशाहीनता और जनता के सरोकारों से पूरी तरह अलगाव।
चतुर्वेदी जी
जवाब देंहटाएंप्रतिवाद वहीं होते हैं जहाँ प्रबुद्धता होती है। आज सभी राजनैतिक दलों की स्थिति यह है कि केवल सत्ता में रहने के लिए और अपना व्यापार बढाने के लिए राजनीति में हैं। कितने राजनेताओं ने संविधान पढा है? कितने राजनेता देश की नीतियों से वाकिफ हैं? कांग्रेस में भी सोनिया गांधी के बदौलत यदि सत्ता मिलती है तो फिर उसकी चाटूकारिता करने में हर्ज क्या है? यही भावना है। जब तक सम्पूर्ण राजनीति का चेहरा नहीं बदलेगा भारतीय राजनीति में परिवर्तन सम्भव नहीं है। गोटियां बदलने से कुछ नहीं होगा।