संचार क्रान्ति की विश्व में लम्बी परंपरा है। यह कोई यकायक घटित परिघटना नहीं है। 19वीं शताब्दी के अंत और 20वीं शताब्दी के आरंभ में प्रकृति विज्ञान की खोजों ने तकनीकी क्रांति का आधार तैयार किया था। पहला भाप का इंजन 1708 में आया और सुधार के बाद जेम्सवाट ने 1775 में बनाया। पहला रेलमार्ग 1829 में लीवरपूल से मैनचैस्टर के बीच बना।पहली कार 1909 में बाजार में आई।पहला जेट विमान 1937 में आया।यानी भाप के इंजन से जेट के इंजन तक की तकनीकी यात्रा में 229 वर्षों का समय लगा।
जबकि पहली पीढ़ी का कंप्यूटर 1946 में आया।दूसरी ,तीसरी और चौथी पीढ़ी का कम्प्यूटर क्रमश:सन् 1956,1965और 1988 में आया।यानी कम्प्यूटर क्रांति पांचवीं पीढ़ी के परिवर्तनों तक मात्र 36 वर्षों में पहुंच गई। सतह पर देखें तो कम्प्यूटर क्रांति की गति औद्योगिक क्रांति से तीव्र नजर आएगी। यानी 6.4 गुना ज्यादा तीव्र गति से सूचना तकनीकी का विकास हुआ।गति की तीव्रता का कारण है तकनीकी, ,ज्ञान,विज्ञान,एवं सैध्दान्तिकी के पूर्वाधार की मौजूदगी। इसके विपरीत औद्योगिक क्रांति के समय आधुनिक ज्ञान-विज्ञान का पूर्वाधार मौजूद नहीं था।
औद्योगिक क्रांति के साथ समाज में जन-उत्पादन,जन-सेवा,जनसंचार,जन-परिवहन और बाजार के नए रुपों का जन्म हुआ।उत्पादन का क्षेत्र फैक्ट्ी थी।उसमें अवस्थित मशीन और उपकरण ही सामाजिक उत्पादन के केन्द्र बिन्दु थे। औद्योगिक क्रांति से उपजी आकांक्षाओं ने उपनिवेशों को जन्म दिया।नए महाद्वीपों की खोज को संभव बनाया।श्रम- विभाजन का विस्तार किया।विशेषीकरण को जन्म दिया।सार्वभौम उत्पादन पर बल दिया।सार्वभौमत्व को अनिवार्य फिनोमिना बना दिया।निजी व्यापार,निजी पूंजी और निजी संपत्ति पर बल दिया।
'कम्युनिस्ट घोषणापत्र'(1848) में कार्ल मार्क्स एवं फ्रेड़रिक एंगेल्स ने लिखा ''पूंजीपति वर्ग ने , जहां पर भी उसका पलड़ा भारी हुआ,वहॉ सभी सामन्ती,पितृसत्तात्मक और काव्यात्मक संबंधों को नष्ट कर दिया।उसने मनुष्यों को अपने ''स्वाभाविक बड़ों'' के साथ बांध रखने वाले नाना प्रकार के सामंती संबंधों को निर्ममता से तोड़ डाला;और नग्न स्वार्थ के,''नकद पैसे- कौड़ी'' के हृदय-शून्य व्यवहार के सिवा मनुष्यों के बीच दूसरा संबंध बाकी नहीं रहने दिया।धार्मिक श्रध्दा के स्वर्गोपम आनंदातिरेक को ,वीरोचित उत्साह और कूपमंडूकतापूर्ण भावुकता को उसने आना-पाई के स्वार्थी हिसाब-किताब के बर्फ़ीले पानी में डुबो दिया है।मनुष्य के वैयक्तिक मूल्य को उसने विनिमय मूल्य बना दिया है,और पहले के अनगिनत अनपहरणीय अधिकार पत्र द्वारा प्रदत्त स्वातंत्र्यों की जगह अब उसने एक ऐसे अंत:करणशून्य स्वातंत्र्य की स्थापना की है जिसे मुक्त व्यापार कहते हैं।संक्षेप में, धार्मिक और राजनीतिक भ्रमजाल के पीछे छिपे शोषण के स्थान पर उसने नग्न,निर्लज्ज, प्रत्यक्ष और पाशविक शोषण की स्थापना की है।'' यही वह परिप्रेक्ष्य है जब जीवन में आधुनिक संचार ,परिवहन और उत्पादन के रुपों के निर्माण का सिलसिला शुरु हुआ। इसी अर्थ में आधुनिक युग पूर्व के युगों से बुनियादी तौर से अलग है।
लेखकद्वय की राय है ''उत्पादन के औजारों में क्रांतिकारी परिवर्तन और उसके फलस्वरुप उत्पादन के संबंधों में,और साथ-साथ समाज के सारे संबंधों में क्रातिकारी परिवर्तन के बिना पूंजीपति वर्ग जीवित नहीं रह सकता।इसके विपरीत,उत्पादन के पुराने तरीकों को ज्यों का त्यों बनाए रखना पहले के सभी औद्योगिक वर्गों के जीवित रहने की पहली शर्त्त थी। उत्पादन में निरंतर क्रांतिकारी परिवर्तन ,सभी सामाजिक व्यवस्थाओं में लगातार उथल-पुथल,शाश्वत अनिश्चितता और हलचल -ये चीजें पूंजीवादी युग को पहले के सभी युगों से अलग करती हैं। सभी स्थिर और जड़ीभूत संबंध,जिनके साथ प्राचीन और पूज्य पूर्वाग्रहों तथा मतों की एक पूरी श्रृंखला जुड़ी होती है,मिटा दिए जाते हैं,और सभी नए बनने वाले संबंध जड़ीभूत होने के पहले ही पुराने पड़ जाते हैं। जो कुछ भी ठोस है वह हवा में उड़ जाता है,जो कुछ भी पावन है वह भ्रष्ट हो जाता है,और आखिरकार मनुष्य संजीदा नज़र से जीवन के वास्तविक हालतों को, मानव-मानव के आपसी संबंधों को देखने के लिए मजबूर हो जाता है।'' यही वह प्रस्थान बिन्दु है जिसके कारण साहित्य के केन्द्र में मनुष्य आया। साहित्य में जीवन के सामयिक प्रश्नों को अभिव्यक्ति मिली। उत्पादन की तकनीकी के बदल जाने से जीवन बदला वहीं दूसरी ओर साहित्य की अवधारणा बदली। उत्पादन और विनिमय के उपकरण बदलते हैं तो संचार के उपकरण भी बदलते हैं। जिनको सूचना शास्त्रियों ने संचार-क्रांति के विभिन्न चरणों के रुप में व्याख्यायित किया है। 'संचार क्रांति' पदबंध बुनियादी तौर पर बुर्ज़ुआ संचारविदों का चलाया हुआ है।संचार क्रांति के प्रति बुर्ज़ुआ और क्रांतिकारी सूचनाशास्त्रियों का रुख अलग - अलग है। यहां तक कि बुर्जुआ विचारकों में संचार क्रांति से जुड़े सवालों पर गहरे मतभेद हैं।
संचार क्रांति और साहित्य के अन्त:संबंध पर विचार करते समय यह बात ध्यान रखें कि संचार का आदिमरुप स्वयं साहित्य है।संचार क्रांति का अर्थ मात्र सूचनाओं का संचार करना नहीं है। संचार का अर्थ मानवीय हाव-भाव का संचार करना भी नहीं है। संचार का मतलब है मनुष्य के भावों,विचारों, संवेदनाओं और मानवीय क्रियाओं का व्यक्ति से व्यक्ति की तरफ संचार,यही संचार संबंध है। संचार क्रांति का साहित्य पर क्या प्रभाव पड़ा यह जानने के लिए मुख्य संचार उपकरणों से किस तरह की संवृतियों का उदय हुआ ?किस तरह साहित्य की धारणा बदली ?और मौजूदा संचार क्रांति के कारण किस तरह का साहित्य और साहित्य रुपों का जन्म हुआ ?यह जानना समीचीन होगा।
मुद्रण तकनीक- भारत में सन् 1550 में सबसे पहले दो मुद्रण की मशीनें इंग्लैंड़ से लाई गईं। किन्तु छपाई सन् 1557 से ही शुरु हो पाई। सबसे पहले सेंट फ्रांसिस जेवियर ने धार्मिक प्रश्नोत्तरी छापी। वह प्रथम प्रकाशक था।मुद्रण की मशीन लगाने का मूल उद्देश्य ईसाइयत का प्रचार करना था। तिन्नेलवल्ली जिले के पुन्नीकेल नामक स्थान पर सन् 1578 में पहला प्रेस स्थापित किया गया।
दूसरा प्रेस सौ वर्ष बाद 1679 में त्रिचुर के दक्षिण में अंबलकाद नामक स्थान पर स्थापित किया। हिन्दी में मुद्रित ग्रंथों की परंपरा 1802 से शुरु होती है। डा.कृष्ष्णाचार्य ने अपने शोध ग्रंथ ''हिन्दी के आदि मुद्रित ग्रंथ''में 1802 से पहले किसी मुद्रित ग्रंथ का जिक्र नहीं किया है।
प्रेस के आने के बाद पांडुलिपि का लोप हुआ और उसकी जगह पुस्तक आई।कृति दीर्घायु हुई। पुस्तक का लौकिकीकरण हुआ।चूंकि प्रेस ने सबसे पहले धार्मिक साहित्य छापा। अत:धर्म का लौकिकीकरण सबसे पहले हुआ।अब पुस्तक पूजा की वस्तु न होकर स्वयं में एक वस्तु और माल बन गई।उसके अंदर निहित देवत्व भाव नष्ट हुआ।भाषा के क्षेत्र में व्याप्त अराजकता का खात्मा हुआ। मानक भाषा का जन्म हुआ।इससे साहित्यिक भाषा का निर्माण हुआ।गीत और कविता में अंतर पैदा हुआ।गीत और कविता की भाषिक संरचना में अंतर आया।शैली की विविधताओं का जन्म हुआ। गद्य का जन्म हुआ।
ई.एम. फोर्स्टर ने लिखा मुद्रणकला के गर्भ से ही चिरस्मरणीयता का जन्म हुआ।लेखन की नई संरचना,वाक्य-विन्यास,नई भाषा के साथ-साथ देशज भाषाओं का विकास हुआ।समाज में निर्वैयक्तिकता और विशेषीकरण की चल रही पूंजीवादी प्रक्रिया ने रचनाकर्म को प्रभावित किया। इसने विचारों की दुनिया मे भी विभाजन पैदा किया।समाज में प्रतिस्पर्धा एवं निरंतरता की गति को तेज किया।अब किताब एक वस्तु थी,लेखक से स्वतंत्र उसकी सत्ता थी।मुद्रण की मशीन ने पुस्तक की पुरानी छबि को तोड़ा।उसे स्वायत्त बनाया।चिरस्थायी बनाया।
उल्लेखनीय है कि प्रेस का जन्म औद्योगिक क्रांति के साथ हुआ।प्रेस क्रांति को संभव बनाने में लंकाशायर की मिलों की महत्वपूर्ण भूमिका थी।यूरोपीय जनता में विदेशी कपड़ों की बढ़ती हुई मांग को इन मिलों ने पूरा किया।सन् 1790के बाद यूरोप में कपड़े की कमी खत्म हो गई।बने-बनाए कपड़े मिलने लगे। साथ ही कपड़े का गुदड़ा जो कि कागज के लिए कच्चा माल था ,उसका एकमात्र स्रोत था, वह बड़े पैमाने पर उपलब्ध हुआ। इससे कागज के मामले में इंग्लैंड आत्मनिर्भर बन गया। पहले कागज हाथ से बनाया जाता था,बाद में मशीन से बनने लगा।ये मशीनें पानी और भाप से चलती थीं।इससे कागज सस्ता और ज्यादा मात्रा में तैयार होता था। लेखक की स्वायत्त सत्ता का निर्माण हुआ। लेखकीय स्वतंत्रता का जन्म हुआ।पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरु हुआ। यही वह संदर्भ है जब साहित्य , विश्व साहित्य और जातीय साहित्य की एकदम नई अवधारणा का जन्म हुआ। प्रेस के कारण लेखक ,पाठक, पाठ और समाज के बीच में नए रिश्ते की शुरुआत हुई।राष्ट्वाद और स्वतंत्रता की भावना पैदा हुई।यहां इन धारणाओं पर विचार करना सही होगा।
विश्व साहित्य- 'विश्व साहित्य' पदबंध का सबसे पहले प्रयोग गोयते ने किया था।यह'वेल्ट लिटरेचर' का अनुवाद है। सन् 1827 में उसने इसी शीर्षक से उसने एक कविता भी लिखी।गोयते ने विश्व साहित्य की धारणा उस युग को ध्यान में रखकर दी थी जब समूचे संसार का साहित्य एक हो जाएगा।बाद में ''कम्युनिस्ट घोषणापत्र'' में कार्ल मार्क्स एवं फ्रेडरिक एंगेल्स ने 'विश्व साहित्य' की अवधारणा पर विचार करते हुए लिखा ''भौतिक उत्पादन की ही तरह,बौध्दिक उत्पादन जगत में भी यही परिवर्तन घटित हुआ है।अलग- अलग राष्ट्रों की बौध्दिक कृतियां सार्वभौमिक संपत्ति बन गयी हैं। राष्ट्रीय एकांगीपन और संकुचित दृष्ष्टिकोण-दोनों ही असंभव होते जा रहे हैं, और अनेक राष्ट्रीय और स्थानीय साहित्यों से एक विश्व साहित्य उत्पन्न हो रहा है।''
जातीय साहित्य- जातीय साहित्य की धारणा के निर्माण के लिए जातीय साहित्य जरुरी है। जातीय साहित्य के लिए जातीय भाषा का निर्माण और जातीय भाषा के लिए जातीय गठन की आर्थिक - सामाजिक प्रक्रिया आवश्यक है।जाति,जातीय भाषा ,और जातीय साहित्य के वगैर जातीय साहित्य की अवधारणा असंभव है।रामविलास शर्मा के अनुसार '' जाति वह मानव समुदाय है जो व्यापार द्वारा पूंजीवादी संबंधों के प्रसार में गठित होती है। सामाजिक विकास क्रम में मानव समाज पहले जन या गण के रुप में गठित होता है।सामूहिक श्रम और सामूहिक वितरण गण-समाज की विशेषता है और उसके सदस्य आपस में एक-दूसरे से रक्त संबंध के आधार पर सम्बध्द माने जाते हैं।इन गण समाजों के टूटने पर लघुजातियाँ बनती हैं जिनमें उत्पादन छोटे पैमाने पर होता है और नए श्रम विभाजन के आधार पर भारतीय वर्ण-व्यवस्था जैसी समाज व्यवस्था का चलन होता है। पूंजीवादी युग में इन्हीं लघु जातियों से आधुनिक जातियों का निर्माण होता है।''
इसी तरह जातीय भाषा का स्थान उसे मिलता है जो प्रमुख व्यापारिक केन्द्र की भाषा होती है।वही भाषा प्रमुख संपर्क भाषा बन जाती है। जातीयता का विकास साझा भाषा,साझा संस्कृति, और साझा बाजार के आधार पर होता है।भारत में जिस भाषा ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद ,कृषि दासता,जाति-प्रथा,मध्यकालीन बोध और सामंतवाद के खिलाफ संघर्ष किया उसने जातीय भाषा के रुप में स्वीकृति प्राप्त की। वहां जातीय चेतना और जातीय साहित्य का विकास हुआ। इसी तरह साहित्य की धारणा बदली।
बालकृष्ण भट्ट ने जुलाई 1881 के 'हिन्दी प्रदीप' में लिखा ''साहित्य जन समूह के हृदय का विकास है।''बाद में महावीर प्रसाद द्विवेदी ने माना ''ज्ञान राशि के संचित कोश का नाम साहित्य है।''आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा ''साहित्य जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब है।''इस तरह साहित्य की सामयिक साहित्यांदोलनों के कारण धारणा बदलती रही। टेलीग्राफ- भारत में 'दूरसंचार' का श्री गणेश सन् 1813 में हुआ।उस समय कलकत्ता और गंगासागर द्वीप के बीच 'सिगनल' के रुप में इस तकनीक का प्रयोग शुरु हुआ।जबकि पहली इलैक्ट्रिक टेलीग्राफ लाइन का निर्माण सन्1839 में हुआ। इसे कलकत्ता और डायमंडहारबर के बीच शुरु किया गया।आम जनता के लिए टेलीग्राफ सेवाएं सन् 1855 में शुरु हुईं।जबकि 'इंडो-यूरोपियन' टेलीग्राफ लाइन का निर्माण सन् 1867-1870 के बीच एक जर्मन फर्म ने किया। इसके जरिए लंदन, बर्लिन, वारसा,उडीसा,तेहरान, बुशहर, कराची,आगरा,और कलकत्ता को जोड़ा गया।सन् 1860 में लंदन और भारतीय उपमहाद्वीप को जोड़ा गया। यह कार्य स्वेज नहर के माध्यम से किया गया।सन् 1870 में लंदन-बंबई के बीच समुद्री जहाज के जरिए दूरसंचार संपर्क की शुरुआत हुई।भारत में टेलीप्रिण्टर का प्रयोग 1929 के करीब कलकत्ता में शुरु हुआ।निजी टेलीफोन लाइन सन्1875 में बिछाई गई। सन् 1881 में निजी कंपनियों को टेलीफोन व्यवस्था चलाने के लाइसेंस दिए गए।सन् 1890 में रेलवे को टेलीग्राफ और टेलीफोन से जोड़ा गया।
टेलीग्राफ के उदय के बाद ही 'संप्रेषण' और 'परिवहन' में अंतर आया।वस्तु की 'शारीरिक गति' से 'संदेश' अलग हुआ।साथ ही संप्रेषण के माध्यम से शारीरिक प्रक्रिया को सक्रिय रुप से नियंत्रित करने में मदद मिली।आरंभ में रेलमार्गों का इससे नियंत्रण आदर्श उदाहरण है।इससे संप्रेषण ज्यादा प्रभावी ,बहुआयामी और गुणात्मक तौर पर बदल गया। टेलीग्राफ ने 'संप्रेषण' और 'परिवहन' की 'तथ्य' और 'प्रतीक' के रुप में अवधारणा ही बदल दी।पूर्व टेलीग्राफ युग की निर्भरता को टेलीग्राफ ने पूरी तरह खत्म कर दिया। उसी क्रम में संप्रेषण की पुरानी धारणा का लोप हो गया। इससे संचार की स्वायत्त स्थिति पैदा हुई।'संचार' के नए माध्यम के जरिए किसी भी संदेश को परिवहन से भी तीव्र गति से भेजा जा सकता था।अब संप्रेषण भौगोलिक बंधनों से मुक्त था।धार्मिक आवरण से मुक्त था। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो टेलीग्राफ मात्र व्यापार विस्तार के उपकरण में ही विकसित होकर नहीं आया अपितु उसने सोचने,समझने,संप्रेषित करने और विकास की धारणा ही बदल दी।ध्यान रहे टेलीग्राफ और बिजली के बीच गहरा संबंध है।यह संबंध विध्वंसक और पुनर्निर्माण दोनों का है।
टेलीग्राफ ने लिखित शब्द की प्रकृति और ज्ञान की प्रक्रिया को ही बदल दिया।उसने मानक भाषा को अभिव्यक्ति का आधार बनाया।फलत: पत्रकारिता से बोलचाल या आंचलिक भाषा की विदाई हो गई।भाषा में चकमा देने,व्यंग्योक्तिपूर्ण और हास्यमय अभिव्यक्ति के पुराने रुपों का खात्मा हो गया।साथ ही कहानीपरक शैली का खात्मा हो गया।भाषा जिन संबंधों को जोड़ती है टेलीग्राफ उन संबंधों को बदल देता है।वह प्रत्यक्ष निजी संपर्क,प्रत्यक्ष संवाद,प्रत्यक्ष पत्र-व्यवहार आदि को यांत्रिक शक्ति के अधीन कर देता है।वह सामाजिक संबंधों के मानवीय सारतत्व को खत्म करके उनकी जगह 'बिक्रेता' और 'खरीददार' के नए संबंध बनाता है।लेखक और पाठक के बीच नए संबंध बनाता है।
कहानी में उसने आदिम सरल-सपाट एवं कठोर भाषा का निर्माण किया।यह कृत्रिम भाषा है। टेलीग्राफ की भाषा का कहानी पर प्रभाव देखना हो तो हेमिंग्वे की कहानी की भाषा देखें। नामवर सिंह के शब्दों में वाक्य जैसे सिले हुए होठों से निकलते हैं।भाषा का प्रवाह क्या है कि 'स्टापवाच'। 'क्लिक' और घड़ी चालू।'क्लिक'और घड़ी बंद। एक-एक वाक्य जैसे किसी मशीन से बराबर- बराबर काटा हुआ।किसी तरह भावावेग प्रकट न हो।शब्द किसी सूखी नदी में बिछे हुए छोटे-छोटे चमकते पत्थर। यह भाषा दृश्य चित्र प्रस्तुत करने के लिए है,न वर्णन करने के लिए और न कथा कहने के लिए।यह भाषा में अमानवीयता है। टेलीग्राफ से संप्रेषित करने के लिए लेखक को अपनी सामग्री को टेलीग्राफिक भाषा में लिखना होता है।लेखक ने प्रत्यक्षदर्शी के तौर पर जो देखा होता है उसे वह उस भाषा में लिख नहीं पाता। टेलीग्राफ के उदय के बाद 'टाइम' और 'स्पेस' की धारणा में परिवर्तन हो जाता है। अटकलबाजी या अनुमान को 'स्पेस'से निकालकर 'टाइम' में ले जाता है।'टेलीफोन' के आविष्कार के बाद उसने 'स्पेस' को और भी पीछे धकेल दिया।उसने मध्यस्थ और भावी बाजार के बीच संबंध बनाया।अब 'टाइम' महत्वपूर्ण हो उठा।
टेलीविजन - टेलीविजन का साहित्य पर व्यापक प्रभाव पड़ा है। टेलीविजन के कारण धारावाहिक या सीरियल जैसी विधा का जन्म हुआ। साथ ही टेलीविजन कहानी जैसी स्वतंत्र विधा का जन्म हुआ। टेलीविजन कहानी में कहानी न होकर 'प्लाट' होता है। अथवा 'घटना' होती है। अथवा छोटे-छोटे घटना प्रसंग होते हैं। इसमें प्रसंग पर कम और घटना पर ज्यादा जोर होता है। अब हम 'घटना' को ही 'कथानक' मान लेते हैं।बातचीत के रुप को ही कहानी समझने लगे हैं।इस सबके कारण कहानी से कहानीपन का लोप हुआ है। कहानीपन के लोप को कैमरे की चालाकियों से भरने की कोशिश की जाती है।इससे कहानीपन का भ्रम पैदा होता है।टेलीविजन कहानी अंतर्विरोधों को छिपाने का काम करती है।वहां विरोधी तत्वों को कभी-कभी बाहर रखकर द्वन्द्व का तीव्र गति से समाधान कर दिया जाता है।अथवा खंड़-खंड़ में इतना लम्बा खींच दिया जाता है कि कथानक सपाट हो जाता है।वस्तु पर उद्देश्य का आरोप होने लगता है।इससे वह अपनी सार्थकता खो देता है।टेलीविजन कहानी का सत्य 'वस्तु' का सत्य होता है।यह दष्ष्टा का सत्य नहीं है बल्कि भोक्ता का सच है।यह टेलीविजन स्फीति का परिणाम है।टेलीविजन कहानी विराटता,व्यापकता और खंड़-खंड़ में महीनों,वर्षों तक चलती है। धारावाहिक का दर्शक एक देखता है तो दूसरा मांगता है और यह सिलसिला कभी खत्म नहीं होता।
संचार क्रांति का साहित्य - संचार क्रान्ति के चौथे चरण में साहित्य कैसा होगा ?साहित्य में किस तरह के प्रश्न उठेंगे?संचार क्रांति के प्रथम से लेकर तीसरे चरण तक के दौर में रचे गए साहित्य के प्रति किस तरह का रवैय्या होगा ?इत्यादि सवालों के समाधान खोजने की जरुरत है।
जैसा कि सर्वविदित है कि हम यांत्रिक पुनरुत्पादन के युग में रह रहे हैं। बाल्टर बेंजामिन ने यांत्रिक पुनरुत्पादन के युग में कलाओं की अवस्था पर विचार करते हुए लिखा था कि ''यांत्रिक पुनरुत्पादन के इस युग में जो ऋण नष्ट होता है,वह कलाकष्ति का प्रभामंडल है।एक अन्य बात यह कि पुनरुत्पादन की तकनीक पुनरुत्पादित वस्तु को परंपरा के दायरे से बाहर कर देती है। अनेक कलाकृतियां बना कर किसी कलाकृति के अनूठे अस्तित्व को बहुसंख्यक नकलों में बदल दिया जाता है। दर्शक या श्रोता इस तरह पुनरुत्पादित कलाकृति को जैसे चाहे इस्तेमाल कर सकता है ,इसलिए अनुकृति में भी एक तरह की क्रियाशीलता पैदा हो जाती है।ये दो प्रक्रियाएं परंपरा को जबर्दस्त झटका देती हैं जो समकालीन संकट और मानव मात्र के पुनर्जागरण का ही दूसरा पहलू है। ये दोनों ही प्रक्रियाएं समकालीन जन-आन्दोलनों से घनिष्ठ रुप से जुड़ी हुई हैं।''
संचार क्रांति के वर्तमान दौर में कम्प्यूटर ,स्वचालितीकरण,सूचना प्रौद्योगिकी,उपग्रह प्रौद्योगिकी और संस्कृति उद्योग का वर्चस्व है।साथ ही साहित्य में उत्तर-आधुनिकतावाद इस युग का प्रमुख फिनोमिना है। इसमें समग्रता,रैनेसां,यथार्थवाद,मार्क्सवाद, और राजनीतिक अर्थशास्त्र का विरोध व्यक्त हुआ है। यहां हम सिर्फ कुछ उत्तर-आधुनिक धारणाओं तक सीमित रखेंगे।
उत्तर-आधुनिक समाज में श्रेष्ठ और निम्न कलाओं का अंतर खत्म हो जाता है। उसी तरह साहित्य और बाजारु साहित्य का फ़र्क भी मिट जाता है।उच्च संस्कृति और निम्न संस्कृति का भेद भी मिट जाता है।संस्कृति का पूरी तरह वस्तुकरण हो जाता है।यह वस्तुकरण व्यक्तिगत,सांस्कृतिक और सामाजिक क्षेत्र में प्रवेश कर जाता है।यहां तक कि ज्ञान,सूचना और अवचेतन को वस्तुकरण प्रभावित करता है। फ्रेडरिक जैम्सन के अनुसार पूंजीवाद के तीन चरण हैं।1.बाजार पूंजीवाद,2.इजारेदार पूंजीवाद और 3.बहुराष्ट्रीय पूंजीवाद।इन तीन अवस्थाओं में क्रमश:यथार्थवाद, आधुनिकतावाद और उत्तर- आधुनिकतावाद की अभिव्यक्ति हुई।यह वर्गीकरण फ्रेड़रिक जैम्सन ने ''उत्तर-आधुनिता और उपभोक्ता समाज''(1885)शीर्षक निबंध में किया है।
जैम्सन का मानना है युगों के बीच में पूरी तरह विभाजन का यह अर्थ नहीं है कि उनकी अंतर्वस्तु में भी पूरी तरह परिवर्तन हो जाता है।किन्तु एक अंतर जरुर आया है,मसलन् जो प्रवृति पहले हाशिए पर थी वह मुख्य हो गई और जो मुख्य थी वह गौण हो गई। जैम्सन के मुताबिक उत्तर-आधुनिकतावाद का उदय ऐसे समय में हुआ जब आधुनिकतावाद की प्रौद्योगिकी और नायकों की प्रतिमाएं संस्थागत रुप में रुपान्तरित हो गई।अथवा संग्रहालयों और विश्वविद्यालयों में स्थापित हो गईं। उत्तर-आधुनिकतावादी संस्कृति की यह खूबी है कि इसमें भय अंतर्निहित है,साथ ही मनुष्य को इतिहासबोध से रहित बनाती है।हमारी समसामयिक संरचना अपने अतीत को जानने की क्षमता खो चुकी है।वर्तमान में निरंतर जीने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। आधुनिकता के रुपों में महत्वपूर्ण परिवर्तन घट रहे हैं।अतीत के रुपों और शैलियों से विच्छिन्नता पर इस युग में जोर दिया जा रहा है।
उत्तर- आधुनिक युग में राजनीतिक संवादों का मनोरंजन एवं विज्ञापन की आचार-संहिता में समर्पण दिखाई देता है। उत्तर-आधुनिकता ने सत्य,व्यक्तिनिष्ठता,तर्क आदि की पुरानी धारणा को चुनौती दी।उसने संस्कृति के कुछ रुपों को बढ़ाबा देकर समग्रता को नियमित करने की कोशिश की। आभासी यथार्थवाद और सिजोफ्रेनिया पर जोर दिया। उत्तर-आधुनिक संस्कृति सांस्कृतिक प्रभुत्व की संस्कृति है।इसमें गांभीर्य का अभाव है।इस दौर में आम सांस्कृतिक व्याख्याएं सतही दृष्ष्टिकोण को सामने लाती हैं और ऐतिहासिक दष्ष्टिकोण को कमजोर बनाती हैं।विषय को विकेन्द्रित करती हैं।भावात्मक शैली पर जोर देती हैं।अब 'काल' सबसे प्रमुख हो जाता है। क्षणभंगुरता और विखंड़न प्रमुख हो उठते हैं।इमेज का दर्जा वास्तव से बड़ा हो जाता है।वैज्ञानिक और नैतिक फैसलों के प्रति विश्वास घटने लगता है। जॉन मेकगोवान के शब्दों में ''उत्तर-आधुनिकतावाद एक ऐसी फिसलनदार पदावली है कि हम उसे आसानी से स्थिर नहीं कर सकते।'' जबकि रिचर्ड रोर्ती के शब्दों में यह ''बिडम्बनात्मक सैध्दान्तिकी'' है,जो हर शाश्वत सत्य और अनिवार्यताओं की खोज के विरुध्द है।जो किसी एक व्याख्या या निष्कर्ष की योजना को चुनौती है।
उत्तर-आधुकितावाद के विद्वान् एहाव हसन के अनुसार यह ऐसा साहित्य है जिसमें साहित्य के सभी केन्द्रीय सिध्दान्तों का लोप हो जाता है।उत्तर-आधुनिक साहित्य गंभीर साहित्य के प्रति अविश्वास पैदा करता है। उत्तर-आधुकितावाद को विश्व प्रसिध्दि दिलाने में ज़ीन फ्रांसुआ ल्योतार का नाम सबसे आगे है। उनकी विश्व प्रसिध्द कृति ''पोस्ट मॉडर्न कण्डीशंस'' ने इस आंदोलन को जनप्रिय बनाया। ल्योतार ने बुनियादी तौर पर''ग्रहण करो या छोड़ो'' की पध्दति का प्रयोग करते हुए लिखा है।ल्योतार ने उत्तर-आधुनिकतावाद को आधुनिकता के विकास के रुप में ही देखा है। आधुनिकतावाद के बारे में ल्योतार ने कहा जब कोई लेखक निश्चित पाठकों को ध्यान में रखकर लिखता है।तब साथ ही साथ पाठक भी होता है।क्यों कि वह पाठक के नजरिए से चीजों को देखने की कोशिश करता है।साथ ही लेखक के रुप में उत्तर देता है।यह शास्त्रीयतावाद है।किन्तु हम जिसे आधुनिकता कहते हैं उसमें लेखक जानता नहीं है कि वह किसके लिए लिख रहा है।क्योंकि उसके सामने कोई अभिरुचि नहीं होती।उसके पास ऐसे आंतरिक मूल्य नहीं होते जिनके आधार पर वह चयन कर सके।वह कुछ चुनता है और कुछ का त्याग करता है।उसका सब कुछ लेखन के सामने तथ्य रुप में खुला होता है।वह अपनी पुस्तक को वितरण के नैटवर्क तक ले जाता है किन्तु यह ग्रहण्ा का नैटवर्क नहीं है।बल्कि आर्थिक नैटवर्क है,बिक्री का नैटवर्क है, अब पुस्तक के साथ क्या होगा कोई नहीं जानता। कौन पुस्तक कब पढ़ी जाएगी और किसके द्वारा पढ़ी जाएगी इसका कोई मूल्यगत आधार नहीं है।बल्कि उसका मनमाना आधार है।और उसकी उम्र बहुत कम होतीहै।बतर्ज ल्योतार जिस कला रुप की निश्चित ऑड़िएंस का पता हो उसे शास्त्रीयतावाद कहेंगे। ल्योतार का मानना है व्यंग्य आधुनिकता की सारवान अभिव्यक्ति है।ल्योतार ने न्याय के सवाल पर विस्तार से विचार किया है। कुछ लोगों के लिए न्याय का प्रश्न प्लेटोनिक प्रश्न है। प्लेटो मानता था किसी समाज में जो कुछ उपलब्ध है उसे सब में बांट दो। न्याय के बारे में भी कुछ लोग ऐसा ही सोचते हैं।न्याय के प्लेटोनिक नजरिए को ल्योतार अस्वीकार करते हैं।ल्योतार के लिए न्याय का मतलब है कि जो अनुपस्थित है,जिसका उदय लोग भूल गए हैं,उसे समाज में दुबारा स्थापित किया जाय।यह तभी संभव है जब उसके बारे में गंभीरता से सोच लिया जाय,व्याख्यायित कर लिया जाय।
ल्योतार ने उत्तर-आधुनिक दृष्ष्टि से इस सवाल पर विचार किया कि लेखक क्यों लिखता है ?जब भी किसी लेखक से यह सवाल किया जाता है कि वह क्यों लिखता है तो उसका जबाब होता है कि राजनीतिक कारणों से लिखता है। ल्योतार ने भाषा के खेल को अपनी सैध्दान्तिकी में सर्वोच्च स्थान दिया है।भाषा के खेल से साहित्य में मतलब है प्रयोगों का व्यापार।भाषा के नियम तभी बदलते हैं जब उन्हें खेलने वाला बदले।भाषा का खेल यथार्थ के विवरण पर निर्भर करता है।इस खेल का कोई सामान्य नियम नहीं है।यह तो इस पर निर्भर है कि यथार्थ का कैसे समाधान करते हैं। भाषा के खेल में बने बनाए संदेश,एकतरफा संदेश व्यर्थ होने लगते हैं।भाषा की अनेकार्थता पैदा हो जाती है।भाषा के वे अर्थ ग्रहण योग्य होते हैं जो अनुभव से निर्मित होते हैं।शब्दकोशीय अर्थ अप्रासंगिक होने लगते हैं।
इसी क्रम में स्त्री साहित्य और दलित साहित्य पर ध्यान गया,क्यों कि साहित्य में दलितों और स्त्रियों का लेखन एकसिरे से गायब था।भाषा के पुंसवादी सारतत्व के खिलाफ संघर्ष करते स्त्रीभाषा के निर्माण और पितृसत्तात्मकता पर्यावरण, मानवाधिकार, बच्चों के अधिकार,बौध्दिक संपदा के अधिकारों और भूमंलीकरण के प्रश्नों को प्रमुखता मिली।
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
विशिष्ट पोस्ट
मेरा बचपन- माँ के दुख और हम
माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...
-
मथुरा के इतिहास की चर्चा चौबों के बिना संभव नहीं है। ऐतिहासिक तौर पर इस जाति ने यहां के माहौल,प...
-
लेव तोलस्तोय के अनुसार जीवन के प्रत्येक चरण में कुछ निश्चित विशेषताएं होती हैं,जो केवल उस चरण में पायी जाती हैं।जैसे बचपन में भावानाओ...
-
(जनकवि बाबा नागार्जुन) साहित्य के तुलनात्मक मूल्यांकन के पक्ष में जितनी भी दलीलें दी जाएं ,एक बात सच है कि मूल्यांकन की यह पद्धत...
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें