हाल ही में पूरे देश में 17 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हुए हैं। इनके कल परिणाम घोषित किए गए । इन चुनावों में सबसे बुरी खबर तमिलनाडु से आयी है, वहां पर चुनावों में अन्ना डीएमके और कई छोटे दलों ने चुनाव बहिष्कार किया था, उनके बहिष्कार के पीछे कोई बाजिब तर्क नहीं था,इसके बावजूद बहिष्कार करना लोकतंत्र में खतरनाक प्रवृत्ति का संकेत है,अन्ना डीएमके पार्टी अभी तक लोकसभा में अपनी पिटाई को भुला नहीं पायी है। अपनी राजनीतिक पराजय को वह अन्य गैर राजनीतिक और आत्मगत कारणों से ढंकना चाहते हैं।
17 सीटों पर हुए उपचुनाव में कांग्रेस ने 9 सीटों पर जीत दर्ज की है। ये उपचुनाव वाम मोर्चे खासकर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट के लिए भी शुभ संकेत नहीं हैं,कोलकाता शहर में दो सीटों - सियालदह और बहू बाजार- पर चुनाव हुआ था और दोनों ही सीटें बहुत कम मतदान के बावजूद बडे अंतराल के साथ तृणमूल कांग्रेस जीत गयी। माकपा को गंभीरता के साथ सोचना चाहिए आखिरकार तेजी से लोग उसके खिलाफ क्यों जा रहे हैं ? माकपा की आत्मसमीक्षा का जनता पर कोई असर नजर नहीं आ रहा है।
यही स्थिति यू.पी. में समाजवादी पार्टी की है, उसे एक भी सीट पर जीत नहीं मिली बल्कि जो सीटें और समर्थन था वह भी हाथ से चला गया,यूपी में बसपा ने तीन और अजीत सिंह के राष्ट्रीय लोकदल ने एक सीट जीती है। कर्नाटक में भाजपा ने अपनी लोकसभा चुनाव की जीत को दोहराया है और कांग्रेस की कर्नाटक में वापसी तुरंत नजर नहीं आ रही है। इन चुनावों से कांग्रेस को सबक लेना होगा,उसे गंभीरता के साथ सोचना चाहिए आखिरकार कर्नाटक हाथ से कैसे निकल गया ? कर्नाटक में देवगौडा के नेतृत्व वाले जनतादल (सेकूलर) को दो, कांग्रेस को एक ,भाजपा दो सीटों पर विजय मिली है। कांग्रेस पार्टी को जल्दी ही अपनी श्रेष्ठता की ग्रंथि से बाहर चले आना चाहिए वरना कर्नाटक लंबे समय तक साम्प्रदायिक ताकतों का केन्द्र बन जाएगा। धर्मनिरपेक्ष दलों को साझा कार्यक्रम के आधार पर एकजुट किया जाना चाहिए। ठीक यही कार्य यूपी में करने की जरूरत है।
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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