शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

पुस्‍तक अंश 'भूमंडलीकरण और ग्‍लोबल मीडि‍या', 'टेलीवि‍जन में मजदूरवर्ग का अधूरा आख्‍यान'


टेलीविजन का मजदूरवर्ग के साथ गहरा अंतर्विरोध है। टेलीविजन की प्रकृति अ-जनतांत्रिक है। जबकि मजदूरवर्ग की प्रकृति जनतांत्रिक है। मजदूरों के मसले अमूमन खबर नहीं बनते। खबर तब ही बनते हैं जब मजदूरवर्ग हड़ताल पर जाता है। मजदूरवर्ग की खबरें सामान्य खबर की कोटि में नहीं आतीं। ये वर्ग विशेष की खबरें हैं। टेलीविजन हमेशा इस वर्ग की खबरों को सामान्य खबर की कोटि में रखकर पेश करता है। टेलीविजन के लिए मजदूरवर्ग की हड़ताल और आम जनता के बीच अंतर्विरोध है। जबकि अवधारणात्मक और सामाजिक तौर पर मजदूरवर्ग के संघर्षों का आम जनता के हितों के साथ अंतर्विरोध नहीं है और न टकराहट है। किंतु ज्योंही मजदूरवर्ग हड़ताल पर जाता है अथवा अपने हकों की लड़ाई शुरू करता है उसका समूचे समाज के साथ अंतर्विरोध दिखाने पर टेलीविजन जोर देने लगता है। टेलीविजन यह भूल जाता है कि जिस तरह जनतंत्र में नागरिकों के हक होते हैं, जिम्मेदारियां होती हैं,उसी तरह मजदूरवर्ग के भी हक होते हैं,जिम्मेदारियां होती हैं। जिस तरह नागरिकों को अपने सामान्य जीवनयापन की अनुकूल परिस्थितियों की जरूरत होती है, उसी तरह मजदूरवर्ग को भी सामान्य नागरिक परिवेश, आवश्यक सुविधाएं और सौहार्द्रपूर्ण

वातावरण कीजरूरत होती है।

टेलीविजन प्रस्तुतियों में मजदूरवर्ग की हड़ताल हो या सामान्य राजनीतिक कार्रवाई हो आदि सभी मामलों में टेलीविजन पूर्वाग्रह से काम लेता है।जब तक हड़ताल की संभावना नहीं होती तब तक मजदूरवर्ग को टेलीविजन पर्दे पर आने नहीं दिया जाता। टेलीविजन जब हड़ताल की खबर का प्रसारण करता है तो पहला संदेश यह देता है कि यूनियनवाले आर्थिक स्थिति बिगाड़ने की कोशिश कर रहे हैं। यूनियन के नेता की छवि हड़ताली नेता के रूप में पेश की जाती है। आम तौर पर हड़ताल की खबर को विकास विरोधी खबर के तौर पर पेश किया जाता है।उन तत्वों,संगठनों आदि पर बल होता है जो हड़ताल विरोधी होते हैं। उनके बयानों को बगैर किसी प्रमाण के पेश किया जाता है। इसके विपरीत मजदूरों के प्रामाणिक बयानों और तथ्यों को छिपाया जाता है। हड़ताल के मुद्दों को तमाम किस्म की सेंसरशिप से गुजरना होता है। उन्हें चलताऊ ढ़ंग से पेश किया जाता है। आम तौर पर मजदूरों के बारे में टेलीविजन में मजदूर विरोधी लोग ज्यादा बोलते नजर आते हैं। टेलीविजन कैसे मजदूर विरोधी मानसिकता का प्रदर्शन करता है इसका आदर्श नमूना है टेलीविजन पर आने वाली व्यापारिक खबरें। इन खबरों में जब कभी यह बताया जाता है कि फलां-फलां कंपनी ने इस तिमाही या साल में मुनाफा कमाया तो इसका श्रेय मालिक को दिया जाता है न कि मजदूरों को। आज हिन्दुस्तान की ज्यादातर मुनाफा कमाने वाली कंपनियां मजदूरों के श्रम के कारण मुनाफे पर चल रही हैं। किंतु कोई कंपनी जब मुनाफा कमाती है तो टेलीविजन पर्दे पर मालिक या मुख्य प्रबंधक की छवि दिखाई देती है कंपनी के मजदूर नेता की छवि दिखाई नहीं देती। मजदूरों के जीवन में सालों-साल जो कुछ भी घटता है उसकी ओर टेलीविजन कभी ध्यान नहीं देता। किंतु हड़ताल पर तुरंत ध्यान देता है। हड़ताल के पहले मजदूर किस तरह की मुसीबतों का सामना करते रहे हैं,उनके घरों में किस तरह की मुश्किलों से परिवारीजनों को गुजरना पड़ा है। बच्चे समय पर स्कूल जा पाते हैं या नहीं। मजदूरों की औरतों को किस तरह की मुश्किलों से दो-चार होना पडता है। मजदूर परिवार को दो जून की रोटी मिल रही है या नही ? ये सारी चिन्ताएं टेलीविजन की नहीं है।

टेलीविजन कैमरा मजदूर बस्तियों में प्रवेश ही नहीं करता।कभी यह जानने की कोशिश नहीं की जाती कि आखिरकार मजदूर कैसे रहते हैं ?मलिन बस्तियों में कैमरा जाएगा,वेश्यालयों और वेश्या बस्तियों में टेलीविजन वाले जाएंगे किंतु मजदूर बस्तियों में नहीं जाएंगे । इसका प्रधान कारण यह है कि मजदूर परजीवी नहीं है। वह उत्पादक शक्ति है। समाज को पैदा करके देता है। कैमरे में यदि उत्पादक शक्तियों का संसार उजड़ा हुआ नजर आएगा इससे मीडिया के उस प्रचार की पोल खुल जाएगी कि मजदूरों को बहुत वेतन मिलता है। सामान्य तौर पर पूंजीपतिवर्ग की छोटी सी समस्या भी खबर बन जाती है किंतु मजदूरों के बड़े-बड़े हादसे भी खबर नहीं बन पाते। सामान्य तौर पर धनियों की बस्ती में कोई चोरी की घटना हो जाती है तो मुख्य खबर बन जाती है किंतु मजदूरों की बस्तियों, मलिन बस्तियों में गुंड़े सनसनाते घूमते रहते हैं। उत्पीड़न करते रहते हैं।किंतु खबर नहीं बन पाती। सवाल उठता है कि मजदूर रैली या प्रदर्शन या धरना या हड़ताल क्यों करते हैं ? क्या वे काम चोर हैं ? क्या उनके कारण पूंजीपति के मुनाफों में कमी आई है ?जी नहीं।

मजदूर हड़ताल या रैली तब निकालते हैं जब प्रशासन उनकी तकलीफों की तरफ ध्यान नहीं देता। यहां तक कि उनकी शिकायतों को भी कोई नहीं सुनता। मजदूर शौकिया तौर पर हड़ताल या रैली के अस्त्र का इस्तेमाल नहीं करते। बल्कि मजबूरी में,अपनी बातों को प्रशासन तक प्रभावशाली रूप में पहुँचाने के लिए ऐसा करते हैं। ये उनकी अभिव्यक्ति के रूप हैं। टेलीविजन अपनी अभिव्यक्ति पर किसी भी किस्म का हमला बर्दाश्त नहीं कर सकता किंतु समाज के कमजोर तबकों खासकर उत्पादक शक्तियों की अभिव्यक्ति के रूपों के खिलाफ माहौल बनाने में सबसे आगे रहता है।यही मीडिया का अधिनायकत्व है।इससे जनतंत्र का विकास बाधित होता है।

मीडिया का एक रूप वह भी है जिसे हम 'नागरिक पत्रकारिता' के नाम से जानते हैं। नागरिक पत्रकारिता साधारण लोगों की चुनाव के समय मदद करती है।मतदाताओं को समूह में गोलबंद करती है।साम्प्रदायिक ,धार्मिक विद्वेष,जातिगत संकीर्णता,स्त्री उत्पीडन,बाल शोषण आदि के खिलाफ प्रचार करती है। हमें कायदे से इस तरह की पत्रकारिता के परिप्रेक्ष्य का समाचारों में ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करना चाहिए।इस परिप्रेक्ष्य के लिए जरूरी है कि राजनीति के बारे में ज्यादा से ज्यादा सोचें। राजनीति के बेहतर आयामों को सामने लाएं। विभिन्न सामाजिक समूहों की राजनीति में हिस्सेदारी को सुनिश्चित बनाएं। यदि किसी क्षेत्र विशेष में अपराध पनप रहे हैं तो केन्द्रित रूप से उनको उजागर करना।जनता में मानवाधिकारों के बारे में जागरूकता पैदा करना।

नई सूचना और मीडिया तकनीकी जनतंत्र की सेवा के लिए है। जनतंत्र के निषेध के लिए नहीं है। आज किसी भी पत्रकार के पास तकनीकी ने शिकायत का अवसर नहीं छोड़ा है। 'जगह के अभाव' और 'समय के दबाव' और 'संसाधनों का अभाव' के नाम पर आज कोई भी पत्रकार जनता की उपेक्षा नहीं कर सकता। इंटरनेट ने इन तीनों कारणों की छुट्टी कर दी है। आज हमारे पास एक दर्जन से ज्यादा समाचार चैनल हैं। किंतु किसी चैनल का लक्ष्य जन सेवा का मिशन नहीं है। बल्कि ज्यादा से ज्यादा वस्तुओं की मार्केटिंग करना इनका प्रधान लक्ष्य है। समाचार चैनलों में एक-दूसरे से बेहतर खबरें देने की होड़ नहीं है। बल्कि ज्यादा से ज्यादा विज्ञापन पाने की होड़ लगी है। उनमें चर्चित व्यक्तित्व को दिखाने ,अपराध और हिंसा की खबर दिखाने, मनोरंजन और खेल की खबरें दिखाने,उसमें भी सीमित अवसरों पर विशेष कार्यक्रम दिखाने की प्रवृत्ति मिलती है। इन दिनों समाचार चैनल व्यवहार में स्कण्डल चैनल के रूप में काम कर रहे हैं। किसी ठोस मसले पर वृत्तचित्र यदा-कदा ही सामने आते हैं। किसी ठोस समस्या पर वृत्तचित्र दिखाना मुश्किल हो गया है।

नई मीडिया तकनीकी ने निजी और सामाजिक की परिभाषा बदल दी है। कल तक जो निजी मसला था। वह आज सार्वजनिक हो चुका है। जो सार्वजनिक था वह निजी बन गया है। मीडिया इस संबंध में प्रतिगामी नजरिए से काम ले रहा है। साधारण लोगों से लेकर बड़े लोगों तक के निजी मसलों पर चटखारे लेकर मीडिया जिस तेज गति से सक्रिय होता रहा है। वह माध्यम अध्येताओं के लिए चिन्ता की बात है। आज समाचार चैनल निजी मसलों पर जिस तरह ध्यान दे रहो हैं उस तरह सार्वजनिक हित के सवालों पर बहस नहीं चला रहे हैं। आज चैनलो की रूचि इसमें है कि किस राजनीतिज्ञ या चर्चित मीडिया व्यक्तित्व की सेक्स जिन्दगी या निजी जिन्दगी कैसी है ? वह इस क्षेत्र में किस तरह के घोटाले कर रहा है। किंतु चैनलों ने कभी किसी बड़े मीडिया प्रतिष्ठान में संपादक या अन्य के द्वारा किए जा रहे स्त्री शोषण, परपीडक आनंद या स्त्री रिपोर्टर के यौन शोषण के प्रसंगों पर कभी कुछ क्यों नहीं कहा। अमेरिका में बिल क्लिंटन के सेक्स स्कैण्डल को जिस तरह उछाला गया क्या मीडिया वाशिंगटन पोस्ट के किसी प्रख्यात पत्रकार द्वारा किए जा रहे सेक्स कांड के बारे में बता सकता है ? जी नहीं। यदि चैनल ऐसा करने लगे तो पत्रकारों की साख ही खत्म हो जाएगी। चैनलों के द्वारा निजी मसलों को राष्ट्रीय बनाने के पीछे मुख्य कारण है अपनी रेटिंग बढ़ाना,ज्यादा विज्ञापन पाना, जनता का वाजिब मुद्दों से ध्यान हटाना। इन दिनों मीडिया में जनतंत्र के मुद्दे गायब हैं। जनता को सही अर्थ में मीडिया ने परिभाषित करना बंद कर दिया है। कायदे से मीडिया को जनतंत्र के संसाधनों का खजाना बनाया जा सकता है। विभिन्न मुद्दों ,सवालों,घटनाओं और खबरों के बारे में तथ्यपूर्ण जानकारी देना मीडिया की भूमिका है। विभिन्ना नजरिए से इस कार्य को किया जाना चाहिए।

विभिन्न टीवी चैनलों को गौर से देखें तो पाएंगे कि वहां ताजा कार्यक्रम बहुत कम मात्रा में दिखाए जा रहे हैं।सभी चैनलों पर पुराने और बासी कार्यक्रमों का प्रसारण हो रहा है।अपवाद स्वरूप सिर्फ खेल और चुनाव के कार्यक्रम ताजा होते हैं।बाकी सब कुछ पुराना दिखाया जा रहा है। यह सिलसिला तब से शुरू हुआ जब से हमने डिजिटल तकनीकी के युग में प्रवेश किया। खासकर डिजिटल पर्सनल वीडि‍यो रिकॉर्डर के आने के बाद सारी दुनिया में टीवी का चरित्र बदल गया। इसने कार्यक्रम देखने के मामले में समय की बंदिश खत्म कर दी। टीवी के जरिए लाइव प्रसारण की जो धारणा जुड़ी थी उसे खत्म कर दिया। एक जमाने में माइक्रोसॉफ्ट के मालिक बिल गेट ने कहा था '' हम अमेरिकी लोग जब किसी घटना को राष्ट्रीय स्तर पर महसूस करते हैं तो उसका प्रधान कारण है कि टीवी पर हम उसे एक साथ देखते हैं। इसी अर्थ में टीवी राष्ट्रीय एकता का प्रतीक है। क्योंकि घटना के प्रसारण के क्षण में हम एक साथ होते हैं।'' इसके विपरीत न्यूयार्क टाइम्स ने जनवरी 1999 के सम्पादकीय में लिखा कि ''टीवी हमें अदृश्य भविष्य की ओर ले जा रहा है। जिसके कारण हम राष्ट्रीय बोध की भावना खोते जा रहे हैं। 'डिजिटल पर्सनल वीडियो रिकॉर्डर ' ने इस बोध को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया है। यह संभव है कि परंपरागत टीवी तुरंत न मरे। किंतु यह सच है कि धीरे-धीरे मर जाएगा।''

नए तकनीकी दौर में टीवी या तो पूरी तरह अमरीका समर्थक है या पूरी तरह अमरीका विरोधी है। यह स्थिति टीवी के बुनियादी चरित्र से मेल नहीं खाती। प्रसिध्द फ्रांसीसी माध्यम विशेषज्ञ रूडोल्फ अर्नहाइम ने लिखा है कि ''टेलीविजन में यथार्थ की मौलिक कलात्मक प्रस्तुति के तत्व नहीं हैं। बल्कि वह यथार्थ से हमारा संबंध पुनर्निर्धारित करता है। वह हमें बेहतर ढ़ंग से शिक्षा देता है कि बहुआयामी और बहुस्तरीय घटनाओं की उत्पत्ति एक ही साथ हो रही है।वह ऐसी स्थिति की ओर ले जाता है जहां पर हमारी शारीरिक संरचना की धीमी गति और आंखों की कमी उजागर होती है। इस प्रक्रिया में हम ज्यादा भद्र ,कम आत्मकेन्द्रित बनते हैं। यह हमारे अनुभवों को व्यापक बनाने का औजार है। इस माध्यम ने हमारी संवेदनाओं पर समय और देश की सीमाओं का अतिक्रमण करके विजय प्राप्त की है। यह हमारी संवेदनाओं को अतिरिक्त तौर पर समृध्द बनाता है।''

अपराध और हिंसा की खबरों के अलावा भी खबरें हैं उनके साथ संतुलन कायम करते हुए खबरें प्रसारित की जानी चाहिए। एक खास किस्म के हिंसाचार और अपराध की ही निरंतर खबरें केन्द्र में बने रहने का अर्थ है कि अन्य किसी क्षेत्र में कोई घटना नहीं घट रही है। इस तरह जो समाचार आ रहे हैं वे असंतुलित हैं,सामाजिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं,यहां तक विषाक्त भी हैं। यह पत्रकारिता नहीं नशीली पत्रकारिता है। मीडिया इस तरह की खबरों के जरिए पेट भर देना चाहता है,समाचार के समूचे समय को घेर लेना चाहता है। इसके पीछे प्रधान कारण है रेटिंग और ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने की अंतहीन भूख। इसके कारण पत्रकारिता के मूल्यों का क्षय हो रहा है। हम ज्यादा से ज्यादा मीडिया उन्माद के शिकार होते जा रहे हैं। इस चक्कर में प्रत्येक खबर बगैर सांस लिए पेश की जा रही है। जिससे पृथ्वी कांपने लगती है। टीवी समाचार प्रस्तोताओं ने पीत पत्रकारिता के सभी फार्मूलों को आत्मसात कर लिया है। अब प्रत्येक दिन एक ही काम है खबरों के जरिए मनोरंजन करना। कायदे से विचार करें तो हम खबरें मनोरंजन के लिए नहीं देखते बल्कि वस्तुगत ढ़ंग से किसी घटना या समस्या के बारे में सूचनाएं हासिल करने के लिए देखते हैं। समाचार की आत्मा है सत्य।

मनोरंजन की पध्दति ( अतिरंजना, यथार्थ और फैंटेसी से पलायन) का जब समाचार में इस्तेमाल किया जाएगा तो इससे अनैतिक कार्यव्यापार में इजाफा होगा। समाचार में नीतिहीनता का प्रवेश होगा। पत्रकारिता की सत्य को उद्धाटित करने की भूमिका खत्म हो जाएगी। अब हम समाचारों में शो मैन की पध्दति का इस्तेमाल कर रहे हैं। जिसमें हिंसा,सेक्स,उत्तोजना और सेलिब्रेटी के ऊपर फोकस रहता है। हमारे समाचार चैनल स्थानीय खबरों के नाम पर हिंसा और अपराध की खबरों के प्रसारण में इस तरह व्यस्त हो गए हैं कि उससे दर्शक को हिंसा अथवा अपराध के बारे कोई शिक्षा नहीं मिलती। वे अपराध और हिसा के कवरेज को लेकर गुणवत्ताापूर्ण कवरेज या रिपोर्टिंग के सभी मानकों को तोड़ रहे हैं। वे दर्शकों को शिक्षित करने की बजाय भड़काने का काम कर रहे हैं। इस संदर्भ में बांग्ला चैनलों के द्वारा सिंगूर के किसान आंदोलन को लेकर भड़काऊ शैली ,पुस्तक मेले को लेकर उन्माद पैदा करने वाली शैली,निठारी कांड को लेकर उन्माद पैदा करने वाली पध्दति का इस्तेमाल अंतत: दर्शकों की गलत शिक्षा कर रहा है। हमारे समाचार चैनलों का सबसे बड़ा स्रोत हैं विज्ञापन। वे उसका आर्थिक और धार्मिक तत्व हैं। धार्मिक चैनलों से लेकर समाचार चैनलों तक सभी में तीन फार्मूलों के आधार पर समाचार प्रचारित किए जा रहे हैं और वह है 1.शोमैनशिप का फार्मूला,2.अंगभंग और 3.त्रुटिपूर्ण प्रस्तुति।

अंग-भंग की खबरों में आतंकवाद,स्वाभाविक अथवा मानवनिर्मित विध्वंस और अपराध खबरें आती हैं। हमारी रात की खबरों में पचास फीसदी से ज्यादा खबरें इन क्षेत्रों की होती हैं।इनमें भी सबसे ज्यादा अपराध,उसके बाद विध्वंस और सबसे कम युध्द की खबर होती हैं। अंग-भंग की खबरें या हिंसाचार की खबरें सबसे ज्यादा बिकती हैं इसके लिए सरल दिमाग की जरुरत होती है।इसमें पुनरावृत्तिा का तत्व प्रमुख होता है। पुनरावृत्ति के जरिए संघर्ष,उडान,खून और क्षेत्र विशेष के तत्व का इस्तेमाल किया जाता है।

त्रुटिपूर्ण फार्मूले के तहत हमारे साथ खबर का लगाव पेश किया जाता है और हमारे साथ उसके जीवंत संबंध को स्थापित करने की कोशिश की जाती है। समाचार वाले ऐसा करते समय हमें कृतार्थ करते हैं। हम इस फ्रेम में पेश की गई खबरों को अथवा त्रुटिपूर्ण अपील वाली खबरों को समाचार के प्रोमोज,एंकर की बतकही या चाट,हल्की खबरों में देख सकते हैं ,और सेलिब्रेटी न्यूज असल में त्रुटिपूर्ण खबर का इंडेक्स तैयार करती है। ऐसी खबरें रात के समाचारों में तकरीबन पैंतीस फीसदी तक होती हैं। हिंसा की खबरें बुध्दिमत्तापूर्ण तरीके से भी पेश की जा सकती हैं ,नागरिक के सामाजिक सरोकारों को निर्मित करने में मददगार साबित हो सकती हैं। अथवा हिंसा की खबरें सिर्फ बिना सोचे समझे पेश कर दी जाती हैं और परोस दी जाती हैं। टीवी चैनलों का मुख्य लक्ष्य है दर्शक का ध्यान खींचना,किंतु अच्छी टीवी पत्रकारिता के लिए जरुरी है कि एक अच्छा वीडियो फुटेज हो, अच्छा विचार हो,आप ज्योंही इसे पेश करेंगे आपका दर्शक भाग जाएगा। इसका अर्थ है विचार और इमेज बोरिंग होते हैं,धीमे होते हैं,वे दर्शक का मनोरंजन नहीं करते। जबकि समाचार चैनलों का लक्ष्य है दर्शक का ध्यान खींचना,इस काम में उन्हें एक अच्छे वीडियो इमेज और अच्छे विचार से मदद नहीं मिलती। वे भावुकता को उभारने वाली इमेजों को पेश करते हैं। उसी को अच्छा टेलीविजन कहते हैं। उनके लिए उस सामग्री के लिए समय नहीं है जो उनके पास नहीं है। वे विश्लेषण के पक्ष में नहीं हैं,जटिलता के पक्ष में नहीं हैं।मनुष्य के दिमाग की गहराईयों में जाने के लिए जिस गंभीरता की जरूरत होती है उसके पक्ष में नहीं हैं। अच्छा टेलीविजन मानवीय बुध्दि की उत्तोजक पुनरावृत्तिा वाली मानसिकता के साथ कदम मिलाकर चलता है। टेलीविजन खबरें जल्दी में होती हैं सारे दिन उन्हें जिस उद्विग्नता के साथ तैयार किया जाता है शाम होते ही उन्हें जल्दी-जल्दी परोस दिया जाता है। वे इतनी जल्दी में होते हैं कि खबरों की पुनरावृत्ति के अलावा वे और कोई काम नहीं करते।

आप चाहे जितने बुध्दिमान और विद्वान रहें वे आपका ध्यान खींचकर रहेंगे। इन बातों को कहने का अर्थ यह नहीं है कि टीवी में काम करने वाले लोग पेशेवर नहीं हैं। अथवा टीवी में कोई भी पत्रकार सही ढ़ंग से काम नहीं करता,बल्कि यह कह सकते हैं कि टीवी में तकनीकी क्षेत्र में काम करने वाले लोग बड़े परिश्रमी होते हैं,यहां तक कि कई प्रतिभाशाली पत्रकार भी टीवी में हैं। इसके बावजूद यह कहना पड़ेगा कि टीवी का पेशेवराना काम पेशेवर पत्रकारिता की कोटि में नहीं आता।यह वीडियो प्रोडक्शन का पेशेवर रुप है। इसमें समाचार की खोज, संकलन और रिपोर्टिंग का महत्व नहीं है बल्कि आप शो कैसा पेश करते हैं उसका महत्व है। टीवी खबरों में कभी-कभार ही ऐसी स्टोरी आती है जो उसने स्वयं खोजी हो। टीवी के लिए स्टोरी खोजने के लिए जिस परिश्रम और धन की जरुरत है वह उसके पास नहीं है अथवा वे खर्च करना नहीं चाहते। यही वजह है कि वे ज्यादातर समाचार पत्रों में छपी खबरों का पीछा करते हैं और जन-संपर्क के फार्मूले का इस्तेमाल करते हैं। यही उनकी स्टोरी की राय का प्राथमिक स्रोत होता है। स्टोरी चयन करते समय भावनाओं को भड़काने वाली स्टोरियों को प्राथमिकता से चुना जाता है। इसमें दर्शक को सूचना देने या उसका नजरिया बनाने का भाव नहीं होता। कभी यह भी होता है कि जो स्टोरी दर्शक की राय बना रही है या उसे सूचनाएं दे रही है उसके साथ ही भावकुतापूर्ण स्टोरी पेश कर दी जाती है।

सच यह है कि गुणवत्ताापूर्ण खबरों के लिए व्यापक संसाधन और ज्यादा प्रयासों की जरुरत होती है। किंतु चैनलों के पास इस सबका अभाव दिखाई देता है। वे अपनी खबरों के मामले में गंभीरता के साथ परिश्रम नहीं करते। संस्थानगत स्मृति से जुड़ी खबरें, वीट्स, अथवा समुदाय विशेष की खबरें न्यूनतम होती हैं। अथवा दुर्लभ होती हैं। वे ज्यादातर मामलों में समाचारपत्रों की खबरों पर ही निर्भर करते हैं। उनके यहां तथ्यों की वैधता को जांचने का कोई ढ़ांचा नहीं है अथवा उसमें कमजोरी रहती है। जैसाकि कहा जाता है कि व्यावसायिक संस्कृति में गंभीरता का दाम नहीं है। वीडियो न्यूज के वातावरण में काम करना पाठ की संस्कृति नहीं है। पाठ की संस्कृति का स्टोरी के क्षेत्र में खोज, चयन और पत्रकारिता के नियम ये तीनों चीजें मिलकर पत्रकारिता का निर्माण करते हैं। जबकि वीडियो समाचार की आदत और संस्कृति किसी भी स्टोरी को भावुकता उभारने वाले प्रोडक्ट के रुप में पेश करती है। इसी आधार पर उसका संपादन करके प्रसारित किया जाता है।

टेलीविजन पत्रकारों की ये सारी कमजोरियां बेकार हैं अथवा अप्रासंगिक हैं। क्योंकि उनका सबसे बड़ा काम तो यही है कि वे शाम को खबर के ऊपर सबका ध्यान खींच लेते हैं। इसी अर्थ में स्थानीय खबरें लाभकारी होती हैं। हमें इस स्थिति को बदलना चाहिए। हमारे नागरिकों के दिमाग को रोज सीधे,सरलतम चीजों का आदी बनाया जा रहा है। आज सूचना-सम्पन्ना नागरिक को महज उपभोक्ता में तब्दील कर दिया गया है। उसे शिरकत करने के लिए उद्बुध्द करने की बजाय दर्शक बने रहने और बैठे-बैठे मनोरंजन करने का आदी बना दिया गया है। हमें इस स्थिति को तोड़ना चाहिए। हमें सूचना सम्पन्ना नागरिक की जरुरत है, व्यापक सामाजिक हित के सवालों और समस्याओं पर शिक्षित करने वाले मीडिया की जरुरत है। उसी से अच्छा टेलीविजन बनेगा। हमें टीवी को विचारों की प्रतिस्पर्धा, ठोस सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक खबरों का मीडियम बनाना चाहिए, अभी यह भावुक प्रतिस्पर्धा का माध्यम है।

इसी संदर्भ में ज़ीन-लुक-गोदार्द ने कहा था कि '' टीवी विस्मृति के लिए बना है।'' यह तेज और जल्दी ही अपदस्थ कर देने वाला या भुला देने वाला माध्यम है। जबकि साहित्य ऐसा नहीं है। बच्चों के संदर्भ में टीवी हिंसा का सवाल केन्द्रीय सवाल है, टीवी हिंसा का बच्चों पर गहरा असर होता है। टीवी के संदर्भ में अंतर्वस्तु का प्रश्न बड़ा सवाल नहीं है ,बल्कि बच्चों का टीवी देखना और उसकी आदतें सबसे बड़ी समस्या है। बच्चे जब टीवी देखते हैं और उसके आदी बन जाते हैं तो इससे बच्चे की स्वाभाविक ढ़ंग से देखने की दृष्टि बाधित होती है। बच्चे की स्वाभाविक और अनिर्देशित ढ़ंग से खोज करने की मनोदशा पलट जाती है। एक तरुण का यह स्वाभाविक धर्म है कि वह रोज वास्तव जगत के संपर्क में आए,उसका स्पर्श करे, आस्वाद ले,वास्तव जगत को पकड़े या स्पर्श करे, उसकी गंध ले,उसे मेनीपुलेट करे,और यह सब वह अपने द्वारा निर्धारित क्रम के जरिए करे, इस तरह जब बच्चा सक्रिय होता है,खोज करता है तो अपनी बुध्दि का विकास करता है, किंतु ज्योंही वह वीडियो निर्मित जगत के संपर्क में आता है वह इन सब चीजों से वंचित हो जाता है।

टीवी जिस तरह बच्चों की गतिविधियों को अपदस्थ करता है वैसे ही वयस्कों की गतिविधियों को भी अपदस्थ करता है। इसका सीधा परिणाम अपराध रोकने में दिखाई देता है। आज हमारे देश में सबसे ज्यादा टीवी देखा जा रहा है ध्यान रहे टीवी का देखना नागरिक की शिरकत को अपदस्थ करता है। इसका व्यापक संदर्भ सामुदायिक संबंधों और तानेबाने से जुड़ा है।समाज व्यवस्था से जुड़ा है। हम इस सबके लिए क्या कर रहे हैं ? यह सच है कि सब कुछ परिवर्तनीय है। साक्षर और सक्रिय आदमी हमेशा अच्छी चीज की ओर आकर्षित होता है। हमें उसको मद्देनजर रखते हुए योजनाएं बनानी चाहिए। हम टीवी देखने पर अपना जितना कीमती समय खर्च करते हैं उतना समय यदि समाज,घर और परिवार के बीच में खर्च करें तो हम नागरिक के दायित्वों का ज्यादा जिम्मेदारी के साथ निर्वाह कर सकते हैं।

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