इस प्रसंग में यह सवाल उठता है जब पुलिस को कोई कार्रवाई ही नहीं करनी थी तो धारा 144 लगाने का क्या अर्थ है ? दूसरी बात यह कि जब छत्रधर महतो को पकड़ना ही नहीं था तो गिरफ्तारी का आदेश जारी करने क्या अर्थ है ? तीसरी बात , जब पुलिसबलों को जनसभा को रोकना ही नहीं था तो इलाके के लोग जहां पर सभा करना चाहते थे उन्हें सभा करने देनी चाहिए थी, यदि प्रशासन का मानना था कि जनसभा से परेशानी बढ़ सकती है तो फिर दूसरी जगह भी जनसभा को रोकना चाहिए था। समग्रता में देखें तो पुलिस ने जनसभा करने दी और छत्रधर महतो को गिरफ्तारी भी नहीं किया,ऐसी अवस्था में राज्य प्रशासन को गंभीरता के साथ 'पुलिस दमन विरोधी कमेटी' के लोगों के साथ बातचीत आरंभ करनी चाहिए और अतिरिक्त पुलिसबलों को इस इलाके से हटा लेना चाहिए।
थाने,पंचायत,वीडिओ ऑफिस आदि का इलाके में सुचारू रूप से काम चलना चाहिए और जनता से मुठभेड़ से जिस तरह प्रशासन बचता रहा है यह उसकी सही नीति है इस नीति की संगति में ही आन्दोलनकारियों की मांगे मानकर सारे मामले को जितना जल्दी हो सके सिलटा देना चाहिए।
इसी प्रसंग में आज दिल्ली में हुई मुख्यमंत्रियों की बैठक का जिक्र करना भी समीचीन होगा।उल्लेखनीय है पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री फ्लू से पीडित होने के कारण दिल्ली नहीं जा पाए, किंतु राज्य सरकार को उनकी अनुपस्थिति में कम से कम किसी केबीनेट मंत्री को राज्य का पक्ष रखने के लिए जरूर भेजना चाहिए था। राज्य सरकार ने मुख्यमंत्रियों की बैठक को गंभीरता से नहीं लिया है उसने मुख्यमंत्री की अनुपस्थिति में किसी भी मंत्री को नहीं भेजकर सही राजनीतिक समझ का परिचय नहीं दिया है,क्या यह भूल माकपा नेतृत्व के इशारे पर की गयी है ? राज्य सरकार ने अपने बड़े अधिकारियों को इस बैठक में भेजकर यह संदेश भी दिया है कि राज्य में इन दिनों राजनीतिक मंदी छायी हुई है। मुख्यमंत्रियों की बैठक में केरल के मुख्यमंत्री भी नहीं आए किंतु उन्होने अपनी एवज में एक जिम्मदार मंत्री को बैठक में भेजा। बुद्धदेव प्रशासन इतनी बड़ी भूल क्यों कर बैठा इसे किसी भी तर्क से समझना मुश्किल है।
विनाश काले विपरीत बुद्धिः
जवाब देंहटाएं