हाइपररियलिटी का सबसे बड़ा खेल टेलीविजन इमेजों में चल रहा है। टीवी इमेजों के माध्यम से हमारे बीच रियलिटी शो पहुँच रहे हैं। रियलिटी टेलीविजन के जरिए हाइपररीयल और रीयल के बीच का भेद खत्म हो गया है। टेलीविजन अब हाइपररीयल इमेजों को ही प्रक्षेपित कर रहा है। यथार्थ और फैंटेसी के बीच फर्क भूल गए हैं। बगैर सोचे समझे फैण्टेसी के जाल में उलझ जाते हैं। ऐसी अवस्था में हम जान ही नहीं पाते कि क्या कर रहे हैं।
हाइपररीयल की चारित्रिक विशेषता है यथार्थ को समृध्द करना। इस प्रसंग में देरिदा का तर्क है यथार्थ को समृध्द करने के नाम पर कृत्रिमता को पेश किया जाता है और उसको ही दर्ज किया जाता है। दर्ज से अर्थ है घटनाविशेष की प्रस्तुति । इस तरह की प्रस्तुतियां पुंसवाद में इजाफा करती हैं और निजता (प्राइवेसी) पर हमला करती हैं। बौद्रिलार्द ने लिखा इससे ऑबशीन के प्रति हमारे मन में आकर्षण पैदा होता है। देखने की इच्छा का ही परिणाम है कि अन्य देखने के लिए आएं।
रियलिटी शो में हम अपनी सुविधाओं ,सत्य और आराम का महिमामंडन करते हैं। रियलिटी शो या खबरों में अन्य के कष्टों को देखकर परपीडक आनंद लेते हैं। टेलीविजन इमेज यथार्थ से भी बेहतर नजर आती है। बौद्रिलार्द के शब्दों में अब हम टेलीविजन नहीं देखते बल्कि टेलीविजन हमें देखता है। रियलिटी टेलीविजन की सफलता के बाद बौद्रिलार्द का उपरोक्त कथन ज्यादा प्रामाणिक नजर आने लगा है। रियलिटी टेलीविजन हमें अच्छा इसलिए लगता है क्योंकि इसमें ”जीवंत” (लाइव) प्रस्तुतियां होती हैं। ये टेली प्रस्तुतियां हैं।
देरिदा के शब्दों में घटनाओं के आगमन का ‘स्पेस’ तैयार किया जा रहा है। उम्मीदों को गैर-उम्मीद बनाया जा रहा है। खास किस्म के वैविध्य,भिन्नता और स्वर्त:स्फूर्त्तता को टेली स्क्रिप्ट के माध्यम से बनाए रखा जाता है। रियलिटी टेलीविजन की स्क्रिप्ट स्वर्त:स्फूर्त्तता का आभास देती है। यह अ-निर्देशित है । जिसके कारण ”प्रामाणिक” को कैद करना,चरित्रों के छिपे हुए आयामों को कैमरे में कैद करना इसका लक्ष्य होता है। इसके कारण यह स्वर्त:स्फूर्त्त लगती है। देरिदा ने इस प्रक्रिया को messianism नाम दिया है। देरिदा ने Echographies of Television में लिखा है कि messianism के द्वारा घटना को निर्देशित किया जाता है। भविष्य का वायदा किया जाता है। इसका खुलापन इस बात की संभावनाओं के द्वार खोलता है कि हम आनंद ले सकें। लाइव टेलीविजन में पुष्टि और सत्य का तत्व रहता है। जिससे इसे लिखित स्क्रिप्ट वाले कार्यक्रमों जैसे-टॉक शो आदि से अलग करने में मदद मिलती है। यह सारा लाइव रीयल टाइम में सम्पन्न होता है। इस तरह के कार्यक्रम में एकल विलक्षणता होती है। इसमें जिस आकार के क्षणों को बांधने की कोशिश की जाती है वे वर्तमान का अपरिवर्तनीय रूप हैं। इसमें यह तथ्य छिपा है कि ” यह चीज तो वहां थी। ” यह भी तर्क दिया जा सकता है कि जिसे सम्बोधित किया जा रहा है वह खुश होता है कि उसे रियलिटी टेलीविजन के द्वारा सम्बोधित किया जा रहा है। किंतु ग्रहणकर्त्ता इसके अर्थनिर्माण में हिस्सा नहीं लेता। आत्मस्वीकारोक्ति के दृश्य ही यथार्थ होते हैं। वैसे ही जैसे प्रसारित कार्यक्रमों की रिपोर्टिंग का प्रधान लक्ष्य होता है दर्शकों को कार्यक्रम में व्यस्त रखना, बांधे रखना। कार्यक्रम में दर्शकों की ‘शिरकत’ को सुनिश्चित बनाने का तरीका है एसएमएस के जरिए इण्डियन आइडल जैसे कार्यक्रमों में दर्शकों को भागीदारी के लिए उद्बुध्द करना। दर्शक जिसके पक्ष में एसएमएस करते हैं उस पसंदीदा कलाकार की प्रस्तुतियां देखते हैं, उत्तेजित होते हैं, अपनी राय का इजहार करते हैं,संवाद करते हैं। इसी को देरिदा ने ‘यथार्थ प्रभाव” कहा है।
रियलिटी टेलीविजन देखते समय आमलोग पारदर्शी रूप में देखते हैं। इसकी पोर्नोग्राफी और अश्लीलता के साथ तुलना की जा सकती है। यह बर्बरता के नाटक का एकदम विलोम है। यह हिंसा जैसी बर्बरता नहीं है, किंतु यह बर्बरता है जब अभिनेता समस्त कपड़े उतार देता है,अपने मुखौटे उतार देता है और सत्य को दर्शक के सामने पेश करता है। यह ऐसा सत्य है जिसे दर्शक देखना नहीं चाहते। इसका पाठ ,अर्थ पर हावी रहता है।
रियलिटी शो में नाटकीयता के जरिए विलक्षण और विशिष्ट भाषा निर्मित की जाती है। विचार,भावभंगिमा को अवधारणा की शक्ल प्रदान की जाती है। इस प्रक्रिया में रियलिटी टीवी जब हस्तक्षेप करता है तब बर्बररूप में ही हस्तक्षेप करता है। चाहे वर्चुअल रूप में ही सही। हाल ही में ‘सच का सामना’ की पद्धति का अनुसरण करके स्त्री पर हमले घटना सिर्फ प्रमाण मात्र है।
खबरों और अन्य कार्यक्रमों अपराध की घटनाओं को ‘परफेक्ट क्राइम’ के रूप में पेश किया जा रहा है। ‘परफेक्ट क्राइम’ की घटना बनाते समय उसे महज सूचना में तब्दील कर दिया जाता है। ‘परफेक्ट क्राइम’ लोगों को आकर्षित करता है,यह ऐसा अपराध है जो उन्हें जिंदगी में अपराध से पार्थक्य रखना सिखाता है। अपराध को परफेक्ट अपराध बनाते समय टीवी अपराध को तुच्छ,साधारण अपराध,उपेक्षणीय अपराध बनाता है। अपराध की तुच्छता इनदिनों भवितव्यता अथवा नियति के रूप में आ रही है। जाहिर है जब भाग्य ही खराब है तो मनुष्य कुछ भी नहीं कर सकता। उसे भाग्य को मान लेना होगा। समर्पण कर देना चाहिए। मनुष्य से बड़ा है उसका भाग्य या नियति। ऐसी अवस्था में मनुष्य कुछ भी नहीं कर सकता।
वास्तविकता एक नियति के रूप में आ रही है,हमारी इच्छा इस नियति को देखने की होती है। हम ज्योंही इसके दृश्यों को देखना शुरू करते हैं,हम स्वयं को मीडिया ऑब्जेक्ट के रूप में देखना शुरू कर देते हैं।
( mohalla Live में मज्क़ूर आलम के लेख 'मेरा ज़ख़्मी जमीर अभी जिंदा है उर्फ एक करोड़ का झूठा सच' पर व्यक्त विचार )
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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