मीडिया समीक्षा भारत में शैशव -अवस्था में है। आम तौर पर मीडिया के प्रति तदर्थ रवैय्या देखने में आता है। विगत 15 -20 वर्षों में अंग्रेजी में कुछ महत्वपूर्ण पुस्तकें आई हैं जिनमें टेलीविजन ,फिल्म , विज्ञापन,प्रेस आदि की विभिन्न दृष्ष्टियों से समीक्षा की गई है। किन्तु लम्बे समय तक प्रेस ही मूल्यांकन के केन्द्र में रहा है। यहां उन खास मुद्दों की चर्चा की जाएगी ,जो मीडिया समीक्षा ने उठाए हैं। ध्यान रहे हिन्दी में प्रेस पर जितना काम हुआ है उतना अन्य माध्यमों पर नहीं हुआ। इस तरह के मूल्यांकन ने कम से कम पत्रकारिता के बारे में समझ बनाने में हमारी मदद जरुर की है। पत्रकारिता पर काम के पीछे सबसे बड़ा प्रेरक तत्व यह था कि पत्रकारिता आधुनिक गद्य के विकास का प्रमुख साधन थी। पत्रकारिता को स्वतंत्र ज्ञान की शाखा नहीं माना जाता था।बल्कि साहित्य का अंग माना जाता था। प्रेस पर जितने अनुसंधान कार्य हुए उनमें से अधिकांश में अंतर्वस्तु विश्लेषण के लिए साहित्यिक उपकरणों का इस्तेमाल हुआ। अथवा प्रेस को राजनीति के अंग के रुप में विश्लेषित किया गया। कुछ विद्वानों ने राजनीतिक आंदोलन और प्रेस के बीच रिश्ते की खोज की।ज्यादातर आलोचानाओं में पत्रकारिता को कृति के तौर पर देखा गया ,और अंग्रेजी प्रेस को राष्ट्रीय प्रेस मान लिया गया है। जो गलत है।
सबसे बड़ी समस्या है सही पदबंध के प्रयोग की।आम तौर पर हम 'मीडिया' , 'मासमीडिया','जनसंचार' , 'संचार' ,या 'संप्रेषण के माध्यम' पदबंध का मनमाना प्रयोग करते हैं।किन्तु ये सभी पदबंध एक -दूसरे के पर्यायवाची नहीं हैं।किन्तु हिन्दी में इनका बड़े उदार ढंग़ से पर्यायवाची के तौर पर शिक्षितों में प्रयोग मिलता है। 'मीडिया' को हिन्दी में 'माध्यम' , 'कम्युनिकेशन' को 'संचार', 'मास कम्युनिकेशन' को 'जनसंचार','मासमीडिया 'को 'जनमाध्यम' कहते हैं। संक्षेप में इन पदबंधों के अवधारणात्मक स्वरुप पर ध्यान दें।
माध्यम- संकेतों और संदेशों को रुपान्तरित करने वाले उपकरण माध्यम कहलाते हैं।इनमें कच्ची सामग्री,तथ्यपूर्ण सामग्री को आधार बनाया जाता है।विभिन्न माध्यम रुपों की प्रकृति अलग- अलग होती है।वह माध्यम तकनीक पर निर्भर होती है। ए. हर्ट ने तीन तरह के माध्यम रुपों की चर्चा की है।ये हैं-1. प्रस्तुतिपरक माध्यम ,2.प्रतिनिधिमूलक माध्यम ,और 3.तकनीकपरक माध्यम।
प्रस्तुतिपरक माध्यम के लिए ' फेस टु फेस' ,संप्रेषक की जरुरत होती है , जैसे संवाद के लिए। जबकि प्रतिनिधिमूलक माध्यम संदेश को धारण करने या जमा करने में समर्थ होता है। उसका दूर से प्रसारण पर जोर होता है। साथ ही इससे हिस्सेदारी निभाने वाले की अनुपस्थिति में पुनरुत्पादन किया जा सकता है।मसलन्, टेलीग्राम ,समाचार पत्र ,कार्टून ,पत्रिकाएं प्रतिनिधिमूलक माध्यम हैं।इनका प्रतीकात्मक कोड के रुप में मुद्रण ,ग्राफिक्स और फोटोग्राफी के माध्यम से प्रस्तुति होती है। इनका प्रस्तुतिमूलक माध्यम से अंतर होता है।यह संदेश की पुनरुत्पादन की तकनीक पर निर्भर करता है।इन तीनों माध्यमों में कुछ बातें 'कॉमन' हैं।
1. सभी माध्यम 'कोड' का इस्तेमाल करते हैं।
2. विभिन्न 'कोड' का विभिन्न माध्यम विभिन्न तरीके से प्रयोग करते हैं। मैकलुहान ने इस सूची में कार ,घड़ी ,कपड़ों को भी शामिल किया है।इनके प्रयोग से संदेश संप्रेषित होता है।
संदेश के ग्रहण ,संचय ,प्रक्षेपण एवं प्रस्तुति के सभी साधन और प्रविधियां माध्यम हैं।इसी परिप्रेक्ष्य में मनुष्य की भाषा और कानों को भी माध्यम कहा जा सकता है। जबकि रेडियो 'कोडीफाइड' संकेतों को वायुतरंगों के जरिए प्राप्त करने का स्वाभाविक माध्यम है।इसी तरह चर्च और संग्रहालय को माध्यम के रुप में देखा जाता है। कुछ माध्यम ऐसे हैं जिन्हें हाथ में उठाकर ले जा सकते हैं।मसलन्,रेडियो,कैमरा आदि।कुछ ऐसे भी हैं जिनका एकांत में प्रयोग संभव है,जैसे किताब।कुछ माध्यम ऐसे भी हैं जो सार्वजनिक हैं जैसे सर्कस।कुछ साधारण हैं जैसे मनुष्य की श्रवणेन्द्रियां। कुछ माध्यम लोगों के परिवहन के काम आते हैं ,जैसे राष्ट्रीय राजमार्ग,सड़क वगैरह जो लोगों को इकट्ठा करते हैं ,चलता-फिरता बनाते हैं।यानी माध्यम में वह सब शामिल है जो संदेशों को सर्जित करे,संचित करे और संप्रेषित करे।संप्रेषण संदेशों का खास व्यक्तियों या निश्चित व्यक्तियों में होता है। इसके 'आदि' और 'अंत' को हम जानते हैं। जनसंचार- अज्ञात को संबोधित संदेशों के प्रसारण को जनसंचार कहते हैं। यही वजह है कि रेडियो,टीवी प्रसारण को जनसंचार कहते हैं।जबकि डाक-तार,टेलीफोन से संचार और जन संचार दोनों ही संभव हैं।ये अमरीकी माध्यम विशेषज्ञों की मान्यताएं हैं।
संचार- एस.ए.थ्योडोरसन और ए.जी. थ्योडोरसन ने''ए मॉडर्न डिक्शनरी ऑफ सोशियोलॉजी'' (1969)में लिखा कि किन्हीं विचारों,व्यवहारों,और भावनाओं का एक व्यक्ति से अथवा एक समुदाय से दूसरे व्यक्ति या समुदाय से संकेतों के माध्यम से किया गया संप्रेषण ही संचार है। इ.ओसगोड एवं अन्य द्वारा संपादित ''दि मेजरमेंट ऑफ मीनिंग'' (1957) में संचार की परिभाषा देते हुए लिखा सामान्य अर्थों में जहां संप्रेषण की एक व्यवस्था हो तो संचार होता है। जब कि जी.वी.गर्बनर ने ''मासमीडिया एंड ह्यूमन थ्योरी'' (1967) में लिखा संदेश के जरिए किए गए प्रत्येक सामाजिक संपर्क को संचार कहते हैं।आम अर्थ में संचार का अर्थ है प्रेषक,चैनल,संदेश,ग्रहणाकर्त्ता,संप्रेषक और ग्रहणकर्त्ता का संबंध, प्रभाव,संचार का संदर्भ, मंशा आदि।
रेमण्ड विलियम्स ने संचार को संप्रेषण और ग्रहण की संज्ञा दी और माना कि सामाजिक संस्थानों और रुपों के जरिए विचारों,सूचनाओं और दृष्ष्टिकोण का व्यक्ति से व्यक्ति को संप्रेषण ही संचार है।कोलिन चेरी ने ''ऑन ह्यूमन कम्युनिकेशन'' कृति में संचार को मूलत: सामाजिक क्रियाकलाप की संज्ञा दी। इसमें भाषिक संरचनाओं और सामाजिक मूल्यों को जोड़ा।
चेरी का मानना है संचार में कोड,प्रतीक आदि को भी शामिल करना चाहिए। कायदे से संचार का अर्थ है व्यवहार की अनुभूति या जीवन शैली की अनुभूति।जबकि यूनेस्को द्वारा गठित मैकब्राइट कमीशन ने विचारों,तथ्यों,और आंकडों के संप्रसारण और सहभागिता को संचार माना। रेमण्ड विलियम्स एवं एस. हाल का मानना है संचार या जनसंचार की बजाय संस्कृति पदबंध का प्रयोग किया जाना चाहिए। रेमण्ड विलियम्स का मानना है
'जनसंचार' पदबंध का प्रयोग तीन कारणों से हानिकारक है। 1.यह कुछ निश्चित एवं विशिष्ट क्षेत्रों तक सीमित कर देता है। मसलन्, रेडियो, फिल्म,टी.वी.आदि।कायदे से भाषण और लेखन के समूचे क्षेत्र को इसमें शामिल किया जाना चाहिए। 2.दूसरा , 'मास' का हमारी भाषा में कमजोर अर्थों में प्रयोग होता है। इस तरह का प्रयोग 'मास ऑडिएंस'को विशेष आधुनिक संचार और परंपराओं एवं रुपों के संदर्भ में विश्लेषण से वंचित करता है।
3. 'ऑडिएंस' को 'मास' के रुप में देखता है।
अर्माण्ड मेतलार्त का मानना है बुर्जुआ समाजशास्त्री 'कम्युनिकेशन मीडिया', 'मास कम्युनिकेशन' या 'मासमीडिया' पदबंध का प्रयोग करते समय यह दर्शाने की चेष्टा करते हैं कि ये पदबंध राजनीतिक और आर्थिक तौर पर तटस्थ हैं। इस तरह वे संचार के उपकरणों में निहित भौतिकता को छिपाने की कोशिश करते हैं।उसके गैर- भौतिक पहलुओं पर ज्यादा जोर देते हैं।माध्यम उत्पाद को संचार उत्पादन की प्रक्रिया के रुप में पेश करते हैं। उल्लेखनीय है कि उत्तरी अमरीका के समाजविज्ञान के पितामह हर्टन कुली ने विभिन्न किस्म के तकनीकी विकासों जैसे रेल,टेलीग्राफ आदि में प्रयुक्त धारणाओं को मिलाकर ''मीन्स ऑफ कम्युनिकेशंस'' की धारणा बनायी थी। बाद में उत्तरी अमरीका के समाजविज्ञान ने उसे भुला दिया। इस अवधारणा में निहित वास्तविक अर्थ को भुला दिया। सिर्फ व्यावहारिक अर्थ को ग्रहण कर लिया।
उल्लेखनीय है 19वीं शताब्दी में जितने भी तकनीकी रुपों का उदय हुआ,उनकी सामान्य विशेषता है 'आक्रमण' और 'विनिमय'। इसी तकनीकी विकास की अगली कड़ी है टेलीविजन,फिल्म,रेडियो,उपग्रह चैनल आदि। कहने का तात्पर्य यह है कि संचार या जनसंचार या माध्यम की बजाय संस्कृति पदबंध का प्रयोग समीचीन होगा। संचार पदबंध ज्यादा अस्पष्ट है।यह हमें समूची आलोचनात्मक,व्याख्यापरक और तुलनात्मक पध्दति से अलग कर देता है। जबकि ये क्षेत्र मानवविज्ञान और साहित्य के प्राण हैं।
मीडिया समीक्षा के सामने इस समय अनेक मुद्दे गौरतलब हैं। इनमें सबसे ज्वलंत मुद्दे है- माध्यम साम्राज्यवाद ,सांस्कृतिक साम्राज्यवाद और विकास।
माध्यम साम्राज्यवाद- माध्यम साम्राज्यवाद नया फिनोमिना नहीं है।यह उतना ही पुराना है जितना पुराना औद्योगिक पूंजीवाद है। द्वितीय विश्वयुध्द के बाद इस फिनोमिना का तेजी से विकास हुआ। समाचार एजेंसियों,फिल्म और विज्ञापन जगत में इसकी जड़ें बड़ी पुरानी हैं।टेलीविजन और संचार की नई प्रणालियों के आने के बाद इसने विगत 40 बर्षों में दुनिया के प्रत्येक क्षेत्र में धावा बोला है।खासकर आर्थिक उदारीकरण के बाद राष्ट्रीय पाबंदियां हटा दी गईं जिससे उपग्रह प्रसारण और केबल प्रसारणों का अबाध प्रवाह आम लोगों के घरों में घुस आया। सवाल उठता है कि इसका विकल्प क्या है ?क्या इसका प्रत्युत्तर संभव है ?इसका प्रत्युत्तर है ''संप्रेषण का अधिकार''। इस अधिकार की प्राप्ति के लिए आम लोगों को,राष्ट्रों को गोलबंद करना होगा।
यूनेस्को के इतिहास पर नज़र ड़ालें तो पाएंगे कि 1990 के बाद के बर्षों में 'संप्रेषण के अधिकार' का मुद्दा एजेंडे से गायब है।खासकर विंडोक(1991)और अल्माआता(1992)के घोषणापत्रों में संप्रेषण के अधिकार को शामिल नहीं किया गया।उल्लेखनीय है बेलग्रेड में 1980 में '' संप्रेषण के अधिकार ''पर यूनेस्को सम्मेलन हुआ था।इस सम्मेलन में पारित प्रस्ताव में कहा गया ''आम जनता,जातीय और सामाजिक समूहों के संप्रेषण के अधिकार का सम्मान करना चाहिए। इनकी सूचना के स्रोत तक पहुंच हो, संप्रेषण प्रक्रियाओं में सक्रिय भागीदारी हो।''
संप्रेषण के अधिकार का मतलब है सूचना प्राप्ति का अधिकार,सामाजिक सुरक्षा का अधिकार, फैसले कुन कमेटियों में आम जनता की शिरकत का अधिकार और सामूहिकता का अधिकार।ये चारों अधिकार अंतर्ग्रथित हैं। 'अधिकार' की चर्चा करते समय ध्यान रखें कि 'अधिकारों की सीमा' पर जोर देने के कारण 'अधिकार' की मूलभावना क्षतिग्रस्त होती है। अधिकारों की सीमा बांधने से मामला बिगड़ जाता है।अधिकारों की सीमा वहां तक है जहां तक वे सुरक्षित हैं।अमूमन अधिकारों की सीमा बांधने के बहाने राजसत्ता के अधिकार बढ़ाने की कोशिश की जाती है। फिशर ने '' दि राइट टु कम्युनिकेट: ए स्टेट्स रिपोर्ट सीरिज रिपोर्ट्स पेपर्स ऑन मासकम्युनिकेशन 94''में लिखा कि ''संप्रेषण के अधिकार' का पश्चिमी राष्ट्रों ने मूलत: विरोध किया।ये राष्ट्र मानते थे कि 'संप्रेषण के अधिकार' नई सूचना और संचार व्यवस्था का अंग हैं।इस व्यवस्था को वे संदेह की नज़र से देखते थे।...यहां तक कि कुछ समाजवादी राष्ट्रों और तीसरी दुनिया के कुछ मुल्कों ने'संप्रेषण के अधिकार ' को संदेह की नजर से देखा। इस अधिकार के विरोध का मुख्य कारण यही था कि मौजूदा सूचना प्रवाह के असंतुलन को रहने दिया जाय,जिससे पश्चिमी तकनीकी और सूचना की महत्ता बनी रहे,पश्चिमी मूल्यों की महत्ता बनी रहे।'' माध्यम साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष अंतत: सांस्कष्तिक साम्राज्सवाद और विशेष रुप से अमरीकी प्रभुत्व के खिलाफ संघर्ष से जुड़ा है।
सांस्कृतिक साम्राज्यवाद- इस पदबंध का प्रयोग सन् 1960 के आसपास शुरु होता है। ए.मेतलार्त ने '' कम्युनिकेशन एंड क्लास स्ट्रगल'(1979)में लिखा कि यह उत्पत्तिमूलक अवधारणा है।यह बृहत्त्तर अर्थ को व्यक्त करने वाली संवृति है।इसका अर्थ है विदेशी संस्कृति,आदतों,अभिरुचियों,राजनीतिक एवं आर्थिक मूल्यों का घरेलू संस्कृति की कीमत पर प्रचार-प्रसार। अधिकांश माध्यम विशेषज्ञों ने इसके आर्थिक पक्ष की मीमांसा की है। जबकि सांस्कृतिक पक्ष सबसे ज्यादा महत्व रखता है। सांस्कृतिक प्रभुत्व के कारण ही साम्राज्यवाद अपना राजनीतिक एवं आर्थिक प्रभुत्व बनाए रखने में सफल हो जाता है।
मार्टिन वर्कर ने ''कॉमिक्स :आइडियोलॉजी,पावर एण्ड दि क्रिटिसिज्म'' (1989)में लिखा कि सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की शायद ही स्पष्ट परिभाषा मिले।फिर भी इसका अर्थ है साम्राज्यवाद के नियंत्रण को सांस्कृतिक रुपों एवं मालों के निर्यात एवं समर्थन से बनाए रखना। सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की अधिकांश अध्ययन सामग्री टेलीविजन ,रेडियो,विज्ञापन,फिल्म, पत्रकारिता, उपग्रह चैनलों,विज्ञान एवं मनोरंजन पार्कों के अध्ययन से निकली है।यही वजह है कि माध्यम साम्राज्यवाद के साथ इसका अभिन्न संबंध है।इन दोनों धारणाओं के केन्द्र में जनमाध्यम एवं सांस्कृतिक माल हैं।दोनों का बहुराष्ट्रीय कंपनियों से गहरा संबंध है। दोनों को व्यापकता प्रदान करने में भूमंलीकरण ,विश्व बैंक,अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और गैट समझौते ने मदद की है।
सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की केन्द्रीय विशेषता है कि वह व्यक्ति को उसके प्राथमिक समूह से पृथक् करता है,उसकी समूह के साथ प्रासंगिकता,संगति और समाधानों को अप्रासंगिक बना देता है।फलत: व्यक्ति अकेला होता है और पूंजीवादी मूल्यों के आगे आत्मसमर्पण करने के लिए मजबूर होता है।इस समर्पित व्यक्ति को इजारेदारियां अपना निशाना बनाती हैं।उसे माल के साथ एकीकृत करती हैं।साथ ही आर्थिक निर्भरता पैदा करती हैं।अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अमरीका के साथ सैन्य सहयोग के लिए मजबूर करता है।ध्यान रहे सांस्कष्तिक साम्राज्यवाद शिक्षा के जरिए आधार बनाता है।अत: सबसे पहले शिक्षा व्यवस्था में इसके विकल्प खोजे जाने चाहिए।
विकास- माध्यम समीक्षा का एक स्कूल ऐसा भी है जो माध्यमों के विकासमूलक इस्तेमाल पर जोर देता है।माध्यमों के विकासमूलक इस्तेमाल के लिए जरुरी है कि विकास का मौजूदा ढ़ांचा बदले। आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था के वगैर यह संभव नहीं है। इसके लिए संस्कृति नीति और संचार नीति का सुसंगत ढ़ांचा बनाया जाय।अभी तक हमारे पास दीर्घकालिक एवं तात्कालिक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए कोई संस्कृति नीति नहीं है। हमने आर्थिक विकास का जो रास्ता चुना, वह विकास की बजाय विनाश की ओर ले गया। विकास के मौजूदा स्वरुप से हमारा पर्यावरण और संस्कृति सबसे ज्यादा क्षतिग्रस्त हुई हैं।
मसलन्, सन् 1947 से अब तक 1600 बाँधों और कई हजार छोटे एवं मध्यम दर्जे के बाँधों का निर्माण किया गया। नहरों का जाल बिछाया गया।इसके परिणामस्वरुप जगह- जगह पानी जमा हो जाने के कारण पानी में नमक की मात्रा बढ़ गई ,उन स्थानों पर खेती और रिहाइश मुश्किल हो गई।साथ ही लाखों लोगों को बेदखल होना पड़ा। एक अनुमान के अनुसार 1951-1985 के बीच में बेदखल होने वालों की संख्या दो करोड़ दस लाख थी।इसके अलावा जो विकासमूलक प्रकल्प लागू किए गए उनसे एक करोड़ 85 लाख लोग विस्थापित हुए। विस्थापितों में आदिवासियों की संख्या सबसे ज्यादा थी।
एक अनुमान के अनुसार अकेले पर्यावरण क्षय से 50,000-70,000 करोड़ रुपये की क्षति हुई है। यह हमारे सकल घरेलू उत्पाद का 9 फीसदी है।यह हमारी सकल राष्ट्ीय विकास दर से भी ज्यादा है।इसी तरह रोजगार ,उद्योगों के विकास एवं फालतू जमीन के भूमिहीनों में बंटबारे को लेकर है। यह स्थिति कैसे बदली जाय ? यह बुनियादी प्रश्न है,इस प्रश्न के समाधान में जनमाध्यमों की क्या भूमिका हो सकती है ?माध्यमों का विकासमूलक उद्देश्यों के लिए कैसे प्रयोग करें ?ये दो बुनियादी प्रश्न हमारे सामने हैं। इस संदर्भ में पी.सी. जोशी कमेटी की सिफारिशों पर गौर किया होता तो आज हम इस क्षेत्र में दुर्दशापूर्ण अवस्था में न होते।
पी.सी.जोशी समिति की रिपोर्ट में कहा गया कि संचार क्रांति के बाद भारत जैसे विकासशील देश के लिए यह चुनौती थी कि वह उस धारणा के विकास को रोकता जिसके तहत विकास की पाश्चात्य शैली आ रही थी अथवा जो समृद्धों के लिए मददगार हो सकती थी। विकास का पश्चिमी मॉडल चुनने का मौजूदा दौर में यह परिणाम निकला कि हमने समृद्धों के लिए एक टापू तैयार किया जिसके चारों ओर बड़ी तादात में गरीब जनता रह रही है।इस दिशा की ओर विकास को ले जाने के कारण राष्ट्रीय एकता के लक्ष्य को भारी क्षति पहुंची है।इससे राष्ट्र समृद्ध और गरीबों में बंट गया।
पी.सी.जोशी कमेटी ने कहा ''हमें विकास की अभिजात्योन्मुख्र दिशा और जनोन्मुख्र दिशा में से किसी एक को चुनना होगा ,फिलहाल हम अभिजात्योन्मुख्र दिशा की ओर चल रहे हैं। अभिजात्योन्मुख्र रास्ते पर चलते हुए राष्ट्र न तो आत्मनिर्भर बनेगा और न ही एकता ही रह पाएगी।'' पन्द्रह वर्ष बाद उपरोक्त टिप्पणी सच साबित हुई है। भारत सरकार ने अन्य कमेटियों की तरह इसकी सिफारिशों को भी स्वीकार नहीं किया।आज भी इस कमेटी की सिफारिशें प्रासंगिक हैं।
विकासमूलक संचार प्रक्रिया में दो बातों पर ध्यान देने की जरुरत है। 1.'विकास' के भारतीय परिप्रेक्ष्य की अवधारणा का निर्माण किया जाय। और उसे लागू करने लिए जनता की व्यापक शिरकत को सुनिश्चित बनाया जाय।2.विकास का जो मॉडल चुना जाय वह संघात्मक संरचना के बीच संगतिपूर्ण संबंधों को मजबूत करने वाला हो।अभी जो मॉडल लागू किया जा रहा है वह संघात्मकता की बजाय केन्द्र की सत्ता को मजबूत करता है। संघात्मक हितों को ध्यान में रखकर आर्थिक एवं संचार मॉडल को नए रुप में पी.सी.जोशी कमेटी की सिफारिशों को लागू करना होगा।
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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