मंगलवार, 18 अगस्त 2009

कमलेश्वर यादों का मसीहा

कमलेश्वर की अचानक मौत ने सारी देश को स्तब्ध किया है। हम सोचने के लिए भीतैयार नहीं थे कि हिन्दी का इतना बड़ा लेखक अचानक हमारे बीच से चला जाएगा। कमलेश्वर ने कथाकार के रूप में हिन्दी में ही नहीं बल्कि सारे देश में अपनी प्रतिष्ठा बनायी।उनके जीवन के कर्म क्षेत्र का कैनवास काफी बड़ा है। सामान्यत: लेखक का जीवन एकायामी

रहा है। किंतु कमलेश्वर इस मामले में अपवाद हैं। कमलेश्वर ने सारी जिन्दगी लेखकीय एकायामी रुप के खिलाफ संघर्ष किया और इसके विपरीत बहुआयामी व्यक्तित्व का निर्माण किया। कथाकार, संपादक, टीवी प्रशासक, सिनेमा पटकथा लेखक, धारावाहित लेखक,विचारक और आंदोलनकारी व्यक्तित्व के धनी इस लेखक ने हिन्दी साहित्य की जिस दृढता के साथ अपने लेखकीय व्यक्तित्व को बनाया,बचाया और समृध्द किया वह साहित्य की विरल घटना ही कही जाएगी। बाजार और मासमीडिया की चकाचौंध में रहने के बावजूद अपनी लेखकीय पहचान को विराट गरिमा प्रदान की। कमलेश्वर के व्यक्तित्व का यह सबसे उज्ज्वल पक्ष है कि उनके लेखकीय नजिरिए को सत्ताा और बाजार के दबाव प्रभावित नहीं कर पाए। अनेक किस्म की विधाओं में लिखने के बावजूद कमलेश्वर का कथाकार व्यक्तित्व इतना विराट था कि उसमें मध्यवर्ग के तनाव,जिजीविषा से लेकर भारत विभाजन के शिकार भारतीयों का दर्द तक फैला हुआ है। कमलेश्वर टीवी में रहे, फिल्मी दुनिया में रहे, अखबार के संपादक की जिंदगी का हिस्सा रहे,अनेक पत्रिकाओं के संपादक रहे, इसके बावजूद इनमें से कोई भी कार्य-व्यापार उन्हें प्रभावित नहीं कर सका,उनके लेखकीय व्यक्तित्व को विचलित नहीं कर पाया।

कमलेश्वर का 27 जनवरी 2007 को अचानक हृदय गति रुक जाने से निधन हो गया। 6जनवरी 1932 को उनका जन्म उत्तारप्रदेश के मैनपुरी जिले में हुआ था, कमलेश्वर के साहित्य लेखन और विचार साहित्य के केन्द्र में बदलती सामाजिक संरचनाओं,नए और पुराने मूल्यों के बीच के तनाव और नए सामाजिक मूल्यों को अर्जित करने की जद्दोजहद का व्यापक तौर चित्रण मिलता है। सामयिक जीवन का यथार्थ और उसकी समस्याओं को बड़े फलक पर रखकर चित्रित करने का कमलेश्वर का प्रयास अभूतपूर्व माना जाएगा। कमलेश्वर की रचनाओं के मूल पात्र मध्यवर्ग से ही आए हैं। कमलेश्वर के नजरिए की बुनियाद में जनतंत्र के प्रति गहरा लगाव और उसके लिए किसी भी हद तक कुर्बानी का जज्बा काम कर रहा था।भारत में अधिनायकवादी राजनीति के विरोध से लेकर, आपात्काल,साम्प्रदायिकता के विरोध तक उनके लेखन का कैनवास फैला हुआ है। लेखक तौर पर कमलेश्वर सिर्फ भारत में जनतांत्रिक अधिकारों के हनन को लेकर ही चिन्तित नही ं थे बल्कि पड़ोसी देशों जैसे पाकिस्तान,नेपाल,वर्मा आदि में सैन्य प्रशासन,राजशाही के खिलाफ चल रहे जनतांत्रिक आंदोलनों से भी उनका गहरा लगाव था और उन संघर्षों का उन्होंने समय-समय पर समर्थन भी किया। आजादी के बाद उभरे मध्यवर्ग की कुंठाओं और भौतिक वस्तुओं की आकांक्षाओं के कारण पैदा हुए तनावों का कलात्मक चित्रण करने में उन्हें महारत हासिल थी। कमलेश्वर ने किसी भी किस्म वाद विशेष अथवा राजनीतिक दल विशेष से बांधने की कभी कोशिश नहीं की। स्वभाव से पूरी तरी पेशेवर लेखक के तौर पर काम करने मिजाज के कारण उन्हें किसी भी मीडियम में लिखने में असुविधा नहीं हुई। कमलेश्वर को कथाकार के रुप में जितनी सफलता मिली ,उससे ज्यादा सफलता फिल्म लेखक के रुप में मिली, फिल्म लेखक के रुप में जितनी सफलता मिली उससे ज्यादा सफलता टीवी धारावाहिक लेखक के रुप में मिली,यही स्थिति एक संपादक के रुप में भी बनी रही। सारे विधा रुपों में उनका धर्मनिरपेक्ष व्यक्तित्व और जनतांत्रिक नजरिया झांकता है। जनतंत्र और धर्मनिरपेक्षता की दृढ़प्रतिज्ञ भाव से वकालत और उसके लिए किसी भी किस्म की जोखिम उठाने की भावना ने कमलेश्वर को आधुनिक युग का सबसे चर्चित सफल लेखक बना दिया। कमलेश्वर के लिखे हुए की हिन्दी में आलोचकों के द्वारा कम से कम आलोचना लिखी है। उन्हें कम से कम विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाता है। इसके बावजूद कमलेश्वर के पाठकों का दायरा बड़ा व्यापक है। कमलेश्वर ने उपन्यास विधा के लिए एक नया प्रयोग किया,सामान्य तौर पर उपन्यास में सामयिक जीवन का यथार्थ रहता है और सामयिक चरित्र रहते हैं। किंतु '' कितने पाकिस्तान'' उपन्यास में कमलेश्वर साम्दायिकता की समस्या को चित्रित करते समय परंपरा में चले जाते हैं,अनेक संस्कृतियों के अतीत में चले जाते हैं,इस पध्दति का आखिरकार लेखक क्यों इस्तेमाल करना चाहता है ? कमलेश्वर का मानना था कि भारत में साम्प्रदायिक राजनीति जिस तरह धर्म के नाम पर जनता में फूट डाल रही है और अतीत के प्रेतों का इस्तेमाल कर रही है। इसका प्रत्युत्तार अतीत के धर्मनिरपेक्ष विमर्श और परंपरा के जरिए दिया जाना चाहिए। साम्प्रदायिकता ने जिस तरह परंपरा को भ्रष्ट किया और परंपरा को हजम करने की कोशिश की थी,अतीत के कैनवास को सामने रखकर और उसके धर्मनिरपेक्ष रुप का उद्धाटन करके लेखक ने परंपरा की रक्षा के साथ वर्तमान समाज की रक्षा का दोहरा दायित्व निभाया। कमलेश्वर के लिए अतीत बेकार की चीज नहीं थी,बल्कि आधुनिक काल के विचारधारात्मक संघर्ष के उपकरणों का स्रोत भी यहीं है। इसके जरिए लेखक यह भी बताना चाहता है कि हमारा मध्यकालीन अतीत साम्प्रदायिक नहीं रहा है बल्कि धर्मनिरपेक्ष अतीत रहा है। कमलेश्वर का यह उपन्यास जिस समय प्रकाशित हुआ ( प्रकाशन वर्ष 2000) उस समय भारत में साम्प्रदायिक विचारधारा अपने पूरे यौवन पर थी, उसे सत्ता का पूरा समर्थन हासिल था। सारे मीडिया उसके यशोगान में मगन थे। इस उपन्यास की सफलता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उसके अनेक संस्करण बहुत ही कम समय में बिक गए। ''कितने पाकिस्तान'' उपन्यास नहीं है बल्कि लेखक के शब्दों में यह दुखी,पीड़ित जनता के आंसुओं का संग्रह है।इस अर्थ में कमलेश्वर को दुखी,पीड़ित और आतंकित जनता के आंसुओं का मसीहा भी कह सकते हैं। कमलेश्वर ने तीस से ज्यादा किताबें लिखीं और 100 के करीब फिल्मों की स्क्रिप्ट लिखी,अनेक धारावाहिकों की स्क्रिप्ट लिखी। इसके अलावा कई दैनिक अखबारों के संपादक रहे और कई पत्रिकाएं भी संपादित कीं। जिन महत्वपूण्र अखबारों के संपादक रहे उनमें प्रमुख हैं जागरण्ा,दैनिक भास्कर। हिन्दी के व्यावसायिक तौर पर सबसे सफल लेखक के रुप में कमलेश्वर को हमेशा याद किया जाएगा। '' कितने पाकिस्तान'' का महत्व इस अर्थ में भी है इसमें कोई हीरो या विलन नहीं है। बगैर हीरो या नायक के उपन्यास का निर्माण करना उस साम्राज्यवादी साहित्य संरचना का अस्वीकार है जिसे ब्रिटिश शासन के दौरा निर्मित किया गया था। हिन्दी नायक रहित उपन्यास लिखने की परंपरा रही है साथ इस परंपरा का साम्राज्यवाद विरोधी नजरिए के साथ गहरा संबंध है। यह नजरिया यशपाल के झूठा-सच में भी देखने को मिलता है। भीष्म साहनी के ''तमस'' में भी यही फिनोमिना नजर आता है। '' कितने पाकिस्तान'' लेखक की बचपन से लेकर अब तक साम्प्रदायिक राजनीति के अनुभवों का दस्तावेज है। भारत विभाजन के समय लेखक की उम्र पन्द्रह साल थी, अचानक 1990 में आकर साम्प्रदायिक समस्या जब सारे देश को उद्वेलित करने लगी तो लेखक भी इससे परेशान हुआ और साम्प्रदायिक राजनीति का जनप्रिय धर्मनिरपेक्ष उत्तार तलाशने की प्रक्रिया में यह उपन्यास लिखा गया। कमलेश्वर के लेखे, विभाजन अंतहीन है,समयहीन है,इसका कोई एक नाम भी नहीं दिया जा सकता, मजेदार बात यह है लेखक ने '' विभाजन'' के फलक को हिंसा के परिप्रेक्ष्य में रखा है। साथ ही व्यापक तौर पर शासकीय विचारधारा के अंग के रुप में चित्रित किया है। इस उपन्यास में साम्प्रदायिक हिंसा,साम्राज्यवादी हिंसा, अधिनायकवादी हिंसाचार, परमाण्विक हिंसाचार तक इस उपन्यास का कैनवास फैला हुआ है। दस कहानी संग्रह, दस उपन्यास कुल तीस से त्यादा किताबें लिखीं।

यहां कुछ घटनाओं का जिक्र करने की जरुरत है। नेपाल में राजशाही के खिलाफ जनता के संघर्ष का समर्थन करते हुए कमलेश्वर ने कहा कि नेपाल की राजशाही का जन्म हिंसा के गर्भ से हुआ है।नेपाल के राजा ने भारत यात्रा के दौरान जिस तरह जगह'जगह मंदिरों में पशु बलि देकर मंदिरों में भगवान की पूजा की वह रुझान उनका अपने देश लौटकर जाने पर अपनी जनता के प्रति बना रहा और उन्होंने नेपाल लौटकर अपने देश की निर्दोष जनता का जनसंहार किया,कत्लेआम किया,नेपाल में राजशाही की संवैधानिक व्यवस्था जब तक बनी रहेगी, निर्दोष जनता और पत्रकारों पर जल्म होता रहेगा। राजशाही जुल्म के बिना जिंदा नहीं रहती। वह कभी जनता,कभी पत्रकार,कभी माओवादी, कभी कम्युनिस्ट,कभी किसान, कभी सत्ताा विरोधियों और कभी-कभार आतंकवादियों के खिलाफ हिंसाचार करती है।

कुछ प्रमुख उध्दरण -

कला विषयक -

'' कलाओं के विकास का आधार सामाजिक-सांबंधिक अस्तित्व है।''

'' कला जब तक दूसरे दर्जे का काम करती है तब तक उसका अपना कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं होता।''

रचना-प्रक्रिया-

'' जब से अपने चारों तरफ की दुनिया की ओर देखना शुरू किया तो पाया ,कहीं कुछ भी नहीं बदल रहा था, इसलिए मुझे बदलना पड़ा।मुझे चारों ओर के कटु यथार्थ ने बदल दिया।''

'' मेरे पात्र अपने माहौल की,अपने सुख-दुखों की कहानी अपने-आप कहते चलते हैं। मैं उनके निर्माण में परिश्रम नहीं करता।''

'' मैं उन्हीं मुसीबतजदा लोगों की कहानी कहना चाहता हूँ,जिन्हें मैंने अपने चारों ओर पाया और अनुभव किया है। इसे ही मेरे लेखन का लक्ष्य कह सकते हैं।''

''मैं कहूँ यदि मेरा लेखन सामाजिक-आर्थिक विषमताओं के प्रति लोगों की आंखें खोलता है,और लोग यह जान पाते हैं कि जिस समाज में रह रहे हैं ,उसकी असलियत और उसके हालात क्या हैं तो मैं समझता हूँ कि मेरा लेखन सार्थक है।''

''मैं सोच-सोचकर कभी नहीं लिखता।जब कभी भी मुझे शिद्दत के साथ महसूस हुआ कि इस विषय पर लिखना चाहिए,तो मैंने लिखा और जो लिखा ,वह स्वयं कहानी बनती चली गई।''

'' लिखना मेरे लिए यातना नहीं है,यातनापूर्ण हैं वे कारण जो मुझे लिखने के लिए मजबूर करते हैं और यह मजबूरी तभी होती है,जब मेरा अपना संकट दूसरों के संकट से सम्बध्द होकर असह्य हो जाता है।''

साहित्य की नयी परिभाषा &

''साहित्य अब साहित्यशास्त्रीय मान्यताओं की परिधि से निकलकर बहुत व्यापक जीवन के परिवेश में सांस ले रहा है जहां उसकी चिन्ताएँ और अपेक्षाएँ बदल गयी हैं।''

'' साहित्य का यह महत् उद्देश्य रहा है कि वह मनुष्य की धारणाओं और विश्वासों को बल दे ताकि समाज व्यवस्थित और संगठित रहे,समाज का व्यक्ति संस्कारों से सम्पन्ना रहे।''

'' परिस्थितियों के द्वंद्व से जो सच्चाई पैदा होती है,वहीं यथार्थ है,जिसकी कार्य-कारण परंपरा होती है और जिसे इतिहास की पीठिका में विश्लेषित किया जा सकता है।''

'' राजनीति की महत्ताा से इंकार नहीं किया जा सकता है और न उससे निरपेक्ष रहने की आवश्यकता है,पर राजनीतिक मंतव्यों में नित नए होते रहने की सामर्थ्य नहीं होती जबकि साहित्य अनवरत नवीन की खोज में संलग्न रहता है,उसके जीवित रहने की यह अनिवार्य शर्त है।''

'' जो साहित्य क्रांति दे सकता है ,वह शक्तिसंपन्ना भी होगा और कलात्मक भी।'' [1]

'' स्वतंत्रता ही वह तत्व है जो जीवन को जीवन बनाता है।अच्छे और बुरे,पाप और पुण्य,जय और पराजय से ऊपर वह मनुष्य को अपनी नियति के भय से ऊपर उठाता है और उसकी संभावनाओं को स्थापित करता है।''

'' अंतत: मनुष्य राजनीति से भी आजादी चाहता है ,सहज होकर जी सकने के लिए ,जो राजनीति आदमी की इस आधारभूत और मौलिक आकांक्षा का समर्थन नहीं करती ,वह अधूरी राजनीति है।''

'' ऐसी उलझी हुई स्थिति में जहां हम अन्याय के विरूध्द अन्यायी नहीं सकते,आम आदमी को बर्बर बना देने की सीमा तक नहीं ले जा सकते, उसके भीतर के शुभ और सौन्दर्य को मार नहीं सकते।उसकी सदियों से अर्जित मनुश्यता की संपदा को नष्ट नहीं होने दे सकते,तो फिर उसके लिए न्याय की प्राप्ति का कौन सा जरिया अख्तियार कर सकते हैं ?''

'' अगर आज का साहित्य इस सुविधावाद से निकलना चाहता है तो उसका काम बहुत जटिल और कठिन हो जाता है।''

'' पुरानी और नयी कहानी के बीच बदलाव का बिंदु वैचारिक दृष्टि का है।''

पुराने लेखकों के लिए '' जो रास्ता था वह साहित्य से जीवन की ओर था,क्योंकि वे जीवन के प्रति या आदमी के सामने खड़ी भयावह परिस्थितियों और आसन्ना संकट की ओर देखनाहेय समझते थे।वे साहित्य के चश्मे से जीवन को देख रहे थे और बहुत क्षुब्ध थे कि 'साहित्यकार का 'दर्शन' अपनाया नहीं जा रहा है।नयी कहानी ने इस जड़ता से अपने को अलग किया नयी कहानी ने जीवन की सारी संगतियों-असंगतियों ,जटिलताओं और दबावों को महसूस किया उसका रास्ता जीवन से साहित्य की ओर हुआ।''

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