मीडिया के खेल आकर्षक ,निराले और बोगस होते हैं। खासकर आर्थिक उदारीकरण,चैनल क्रांति, केबल क्रांति,नेट क्रांति के बाद ज्ञान कम और मीडिया बेहूदगियां और न्यूसेंस में तेजी से इजाफा हुआ है। 'न्यूसेंस' को असंभव विस्तार मिला है, 'न्यूसेंस' में हमें आनंद आने लगा है। गलत में मजा लेने लगे हैं। 'अतर्क' को 'तर्क' समझने लगे हैं। उदारीकरण के कारण हमारे देश में भीमकाय मीडिया कंपनियों का आगमन हो चुका है और जो देशी भीमाकार कंपनियां हुआ करती थीं उनके आकार और भी मोटे हो गए हैं। उदारीकरण के कारण मोटे लोग और मोटे हुए हैं, मोटा मीडिया और मोटा बना है।
समाज में मोटेपन का ताण्डव चल रहा है। जो जितना मोटा है वह उतना ही महान है। मीडिया ने मोटे को महान बनाया है। मोटे का खेल बहुराष्ट्रीय कंपनियों और देशी इजारेदार कंपनियों का खेल है और वही इस खेल के नियंता हैं। मोटे के खेल के नियम भी निराले हैं। असल में व्यवहार में कोई नियम ही नहीं है। मोटे का समाज ऐसा समाज है जो अन्य की उपस्थिति स्वीकार ही नहीं करता। मोटे के लिए सिर्फ मोटे का ही महत्व है,सामाजिक अस्तित्व है। मोटा नहीं तो दुनिया नहीं। इस मोटे मानुष ने अपनी सारी शारीरिक,मानसिक,सांस्कृतिक और राजनीतिक बीमारियों को हमारे समाज पर थोप दिया है ,एक ऐसे समाज पर थोप दिया है जिसमें अधिकांश लोगों के पास पीने लायक साफ पानी नहीं है, रहने के लिए घर नहीं है, चलने के लिए सड़क नहीं है,चढने के लिए साईकिल नहीं है, दवा और डाक्टर नहीं है,बच्चों के लिए स्कूल नहीं हैं। नौजवानों के लिए कॉलेज और विश्वविद्यालय नहीं हैं।
कल्पना कीजिए यदि सारे बच्चे स्कूल जाने लगें, बच्चे बीच में अपनी पढ़ाई न छोड़ें और आगे पढ़ाई जारी रखना चाहें तो हमारे स्कूल,कॉलेज और विश्वविद्यालयों में उनके लिए दाखिले की न्यूनतम व्यवस्था तक नहीं है। सारी शिक्षा का निजीकरण कर दें तब भी हम उनके लिए शिक्षा की व्यवस्था नहीं कर पाएंगे। यही हाल पीने के स्वच्छ पानी का है। सारे नदी अथवा जलस्रोतों को निजी स्वामित्व में दे देंगे तब भी वे सबके लिए साफ पानी की व्यवस्था नहीं कर पाएंगे। यही स्थिति खेती की जमीन,फाजिल जमीन की है। यदि उसे उद्योगपतियों को विशेष आर्थिक क्षेत्र के नाम पर आवंटित कर दिया जाए तो इससे हमारे ग्रामीण जीवन के बारे-न्यारे होने वाले नहीं है।
गांव की जमीन को किसी न किसी तरह हथियाकर मोटे लोग औद्योगिकीकरण नहीं करना चाहते बल्कि पामाली में इजाफा करना चाहते हैं और भी ज्यादा लोगों को मुसीबतों के कुंए में धकेलना चाहते हैं। आज यदि गांव की जमीनें सेज के नाम पर पूंजीपतियों की कंपनियों को आवंटित कर दी जाती हैं तो इन इलाकों में रहने वाले अपने ही देश में पराए हो जाएंगे,विस्थापित हो जाएंगे। सेज के लिए गांव की जमीन आवंटित करने का यह अर्थ भी है कि आज हम जिसे ग्रामीण भारत कहते हैं वह ग्रामीण भारत जल्द ही विस्थापित भारत हो जाएगा। आज अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सार्वजनिक संपत्तियों का अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के इशारे पर निजीकरण हो रहा है। गांवों की जमीनें कारपोरेट घरानों को सौंपी जा रही हैं।
मजेदार बात यह है कि जो लोग हजारों हेक्टेयर जमीन खरीद रहे हैं अथवा जिन्हें जमीन सौंपी जा रही है वे सिर्फ जमीन के ही मालिक नहीं होंगे बल्कि इस इलाके के जंगलात,प्राकृतिक वातावरण, प्राकृतिक संसाधनों,नदी जल स्रोतों आदि के भी स्वाभाविक तौर पर मालिक हो जाएंगे। बाजार में सेल में 'एक खरीदो और एक मुफ्त पाओ' की तर्ज पर कारपोरेट घरानों को सेज की जमीन खरीदने के साथ प्राकृतिक संसाधनों का स्वामित्व मुफ्त में सौंपा जा रहा है। सेज के नाम पर कारपोरेट घरानों को कौड़ियों के भाव जमीन बेची जा रही है। इसे आधुनिक औद्योगिकीकरण की संज्ञा दी जा रही है। गांव की जमीन को सेज के नाम पर देने के लिए मनमाफिक संशोधन किए जा रहे हैं। यहां तक कि विपक्ष जो भी कहता है अथवा प्रतिरोध करने वाले जो भी कहते हैं वे सारे सुझाव सरकार मानने को तैयार है। जगह-जगह प्रतिवाद हो रहा है और इसके कारण जो भी सुझाव आ रहे हैं उन्हें सरकार मानती चली जा रही है।
केन्द्र सरकार का एकमात्र लक्ष्य है कारपोरेट घरानों को जमीन मुहैयया कराना,इसके लिए जो भी करना हो ,किया जाएगा। जमीन चाहिए हर कीमत पर जमीन चाहिए। केन्द्र यह भूल ही गया कि वह गांव की जमीन कारपोरेट घरानों को सौंपकर मानवता की आत्मा की किस तरह हत्या कर रहे हैं। इस प्रक्रिया में सिर्फ गांव की जमीन ही नहीं जा रही बल्कि मानवीय वातावरण के प्रबंधन का समूचा प्राकृतिक तंत्र ही कारपोरेट घरानों को सौंपा जा रहा है। हमारे साठ साला लोकतंत्र की यह बिडम्बना ही है कि हम अभी तक ग्रामीण अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भर नहीं बना पाए और इस क्षेत्र में आत्मनिर्भर हुए बगैर हम 21वीं शताब्दी में छलांग लगाकर आ गए। हम कभी केन्द्र और राज्य सरकारों को आत्मनिर्भर ग्राम्य विकास न करने के नाम पर घेर भी नहीं पाए और जमीन को हाथ से जाने देने के लिए अभिशप्त हैं।
भारतीय त्रासदी है गांव बसने के पहले ही उजड़ने लगे हैं। गांव के लोग गांव में रह पाते उसके पहिले विस्थापित किए जा रहे हैं। गांव के विकास की बजाय गांव के विनाश की कीमत पर आयी सभ्यता बांझ सभ्यता है। अनुत्पादक सभ्यता है। हमारे गांवों में लाखों हेक्टेयर फाजिल जमीन थी, बड़े पैमाने पर जमींदारों के कब्जे में जमीन थी, इस जमीन को हासिल करने में सरकार ने कभी इतनी जल्दबाजी नहीं की जितनी जल्दी कारपोरेट घरानों के विशेष आर्थिक क्षेत्र के प्रकल्पों के लिए जमीन मुहैयया कराने में की है। गांव के जमींदारों से जमीन हासिल करने और गांवों में भूमि सुधार लागू करने, कृषियोग्य जमीन के विकास और गांवों में बिजली,पानी,स्कूल आदि मुहैयया कराने में केन्द्र और राज्य सरकारें पूरी तरह असफल रही हैं। साठ साला लोकतंत्र में हम इनमें से एक भी क्षेत्र में आत्मनिर्भर नहीं बन पाए और अधूरी किसानी जिन्दगी जीने वाले किसानों को बेदखल करने में लग गए। कमर कसकर गांव की जमीनों को हथियाकर कारपोरेट घरानों को दिया जा रहा है और तर्क दिया जा रहा है कि सेज में जो इलाके आएंगे उनका विकास किया जाएगा, सड़कें बनायी जाएंगी, बिजली आएगी,परिवहन की सुविधा होगा, सेज के इलाकों में जो कल-कारखाने अथवा व्यवसाय के केन्द्र खोले जाएं उनसे लोगों को काम मिलेगा। सवाल यह है कि इन इलाकों में विगत साठ सालों में बिजली,पानी,स्वास्थ्य,चिकित्सा और रोजगार के अवसर पैदा करने और उनमें इजाफा करने में सरकार और कारपोरेट घरानों ने दिलचस्पी क्यों नहीं ली ? हमें यह भी विचार करना चाहिए कि भारत में पूंजीपतियों ने कितने गांवों को गोद लेकर उनका चौतरफा विकास किया ? क्या हमने कभी सोचा कि हमारे देश में जितने करोड़पति हैं, उनमें से आधे लोगों ने भी एक-एक गांव को गोद लिया होता अथवा अपने-अपने इलाके में प्राकृतिक वातावरण ,पार्क, बगीचे,बागान ,मैदान आदि का निर्माण किया होता तो हमारे देश की शक्ल ही कुछ और होती।
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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