भूमंडलीय संचार माध्यमों को देखकर यह भ्रम होता है कि ये स्वतंत्र और तटस्थ हैं। सच में ऐसा नहीं है। इन माध्यमों की बुनियादी प्रकृति वर्चस्ववादी और संप्रभुता विरोधी है। इनके द्वारा स्वतंत्रता की मांग मुनाफे और बाजार की आजादी की मांग है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। ये स्वतंत्रता के नाम पर 'प्रभुत्व' का विस्तार करते हैं।समानता का निषेध करते हैं। इसके जबाव में प्रतिक्रिया पैदा होती है। अंतर्विरोध पैदा होते हैं।प्रतिरोधी भाव जन्म लेने लगते हैं। ऐसी स्थिति में माध्यम संघर्ष राजनीतिक संघर्ष की शक्ल ले लेता है। इस संघर्ष को सुसंगत ढंग़ से चलाने के लिए अंतर्राष्ट््रीय परिप्रेक्ष्य जरुरी है। इंटरनेट का पर्रवत्ती पूंजीवाद के विकास से गहरा संबंध है। यह शेयर बाजार और चंचल पूंजी के मायालोक पर टिका है। आज दुनिया में 40 हजार बहुराष्ट््रीय कम्पनियां हैं जिनकी ढ़ाई लाख शाखाएं हैं।इनका सकल कारोबार 5 ट्रि्लियन डॉलर से ज्यादा है। इसमें सर्वोच्च100 कम्पनियों की संपत्ति विश्वभर में 3.5 ट्रिलियन डॉलर आंकी गयी। इसमें1.3ट्रिलियन डॉलर की संपत्ति विदेशों में है। वहीं पर इनका समूचा कारोबार है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में सबसे ज्यादा परिसंपत्तियां इलैक्ट्रोनिक्स क्षेत्र की कम्पनियों की है।इसमें 23 बहुराष्ट्रीय कम्पनियां विश्व बाजार के अस्सी फीसदी कारोबार को नियंत्रित करती हैं। इलैक्ट्रोनिक्स क्षेत्र की 100 कम्पनियों में 40 फीसदी कम्पनियां सकल कारोबार का 50 फीसदी कारोबार विदेशों में करती हैं। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में अमरीका सर्वोच्च स्थान पर है। सर्वोच्च 200 कम्पनियों में अमरीकी की 74, जापान 41, जर्मनी 23, फ्रंास 19, ब्रिटेन 13, स्विटजरलैण्ड 6, इटली 5,नीदरलैण्ड 4,ब्रिटेन/नीदरलैण्ड 2, है। इनमें से छह प्रमुख देशों की 176 कम्पनियां 88 फीसदी पर नियंत्रण रखती हैं। ये देश हैं- अमरीका, जापान, जर्मनी, फ्रांस,ब्रिटेन,और स्विटजरलैण्ड। सन्1982 से 1998 के बीच में सर्वोच्च 200 कम्पनियों की आय 3 ट्रिलियन डॉलर से बढकर 7 ट्रिलियन डॉलर हो गयी। किन्तु यह बढ़ोत्तरी असमान ढंग़ से हुई । इस दौर में अमरीकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की संख्या बढ़ी और जापान की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की संख्या घटी। सन् 1982 में अमरीकी कम्पनियों की संख्या 60थी जो 1998 में बढकर 74 हो गयी। जब कि जापान की कम्पनियों की संख्या 60 से घटकर 41 हो गयी। ये 200 कम्पनियां विश्व के सकल घरेलू उत्पाद के 26 फीसदी अंश की मालिक हैं। इसी तरह दुनिया के 200 सबसे ज्यादा धनी व्यक्तियों के पास 1 ट्रिलियन डॉलर की पूंजी है। इनमें सर्वोच्च 12 व्यक्तियों के पास एक-तिहाई पूंजी है। इनकी परिसंपत्तियों में 1996 से1999 के बीच तिगुनी वृध्दि हुई। सबसे धनी व्यक्तियों में एक नम्बर पर बिल गेट का स्थान है। उसके पास 90 ट्रिलियन डॉलर की संपत्ति है। इसकी संपत्ति में मात्र चार वर्षों में पांच गुना वृध्दि हुई। दुनिया के सबसे धनी 7 व्यक्ति अमरीकी हैं।
बेंजामिन एम.कॉम्पेनी संपादित '' हू ऑन दि मीडिया ? कंसन्ट्रेशन ऑफ ऑनरशिप इन दि मास कम्युनिकेशन इण्डस्ट्री'' कृति में 35,000 से 40,000 अमरीकी माध्यम दुकानों का सर्वे किया गया है।सर्वे में बताया गया कि ज्यादातर उत्पादों के मालिक चंद माध्यम समूह हैं। 11समाचार समूहों का अखबार जगत पर कब्जा है। 16 का ब्रॉडकास्टिंग , 16 का पत्रिकाओं ,14 का पुस्तक प्रकाशन , 9 का केबल और 10 का फिल्म उद्योग पर कब्जा है। कुल 58 कंपनियों का माध्यम उत्पादों पर कब्जा है। इसमें माध्यम और गैर-माध्यम जगत की कंपनियों का बोलबाला है।
बिन एच.बागदिन ने ''दि मीडिया मोनोपोली''(1983)में लिखा कि अमरीकी माध्यमों का अधिकांश हिस्सा चंद कंपनियों के स्वामित्व में है। इस क्षेत्र में केन्द्रीकरण बढा है। ये सब बहुराष्ट्रीय कंपनियां हैं जिनके इलैक्ट्रोनिक्स ,हथियार निर्माण ,परमाणु अस्त्र निर्माण के साथ-साथ माध्यम उद्योग से भी हित जुड़े हैं। इनकी अमरीका की राष्ट्रीय नीतियों के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका रही है।अपने हितों के विस्तार के लिए ये कंपनियां संपादकीय नीति में हस्तक्षेप करती हैं। अपने हस्तक्षेप से ध्यान हटाने के लिए सरकार के हस्तक्षेप को बढ़ा -चढाकर पेश करती हैं। सरकारी हस्तक्षेप की अतिरंजित प्रस्तुति उनका मुख्य लक्ष्य नहीं है अपितु यह तो उनके माध्यम हितों के विस्तार का प्रच्छन्न तरीका है। बागदिकीन का मानना है कि इन माध्यमों की कमजोरी है कि माध्यमों की संख्या एवं उत्पाद , उससे होने वाली बेशुमार आय को कथ्य की विविधता एवं समृध्दि से जोड़कर देखते हैं।जब कि हकीकत यह है कि अमरीकी माध्यमों में वैविध्य कम होता है। सीमित विषयों पर ही कार्यक्रम बनाए जाते हैं।सीमित क्षेत्रों की खबरें होती हैं।साथ ही ये सीमित लोगों तक पहुंचती हैं।इनकी इकसार और स्टीरियोटाईप अंतर्वस्तु होती है। इस क्षेत्र में चंद कंपनियों की ही इजारेदारी है।
आज माध्यम कंपनियों के अंदर तेज प्रतिस्पर्धा चल रही है। जिसके कारण अनेक बड़ी कंपनियां विलय कर रही हैं या बिक रही हैं। इसके परिणामस्वरुप बड़ी माध्यम कंपनियों की संख्या घटकर 9 रह गयी है। केन्द्रीकरण का ही परिणाम है कि यूरोपीय समूह के चार देशों में चंद कंपनियों का ही वर्चस्व है। आस्ट्र्ेलियाई मूल अमरीकी नागरिक रुपक मडरॉक का ब्रिटेन में वर्चस्व है। इसके अलावा कनाड़ा निवासी राय थाम्सन और कॉनराड ब्लैक ,और कुख्यात रॉबर्ट मैक्सवेल के नाम उल्लेखनीय हैं।फ्रांस में पिता-पुत्र बोयगुईस ,हेर्सेण्ट ,लागार्दे एवं सेयडॉक्स ब्रदर्स का वर्चस्व है। जर्मनी में बुइर ,किर्च ,र्बेत्तिल्समान एवं स्पिंगर परिवार का वर्चस्व है।इटली में एग्नीलि ,बेनेदेत्ती, बारलूसकोनी एवं गार्दिनी परिवार का वर्चस्व है।ये सभी माध्यम सम्राट मौटेतौर पर अराजनीतिक हैं। किन्तु कुछ ऐसे भी हैं जो अपनी माध्यम शक्ति का राजनीतिक हित साधन के लिए दुरुपयोग करते हैं। कुछ भयानक कर्ज में डूबे हुए हैं।किन्तु कुछ जबर्दस्त मुनाफा कमा रहे है। जापान में भी इसी तरह की प्रवृत्ति देखने को मिलती है।चंद बड़ी कंपनियां हैं जो हार्डवेयर तैयार करती हैं।कुछ मीडिया साफ्टवेयर बनाती हैं।किन्तु सच यह है कि अधिकांश माध्यम सॉफ्टवेयर बनाने वाली कंपनियां अमरीकी हैं या ओईसीडी देशों या जी-7 देशों की हैं।ऐसी बहुत कम कंपनियां हैं जो गैर-पश्चिमी देशों की हों। यही वजह है कि बहुराष्ट्रीय माध्यम सामग्री पर अमरीकी दृष्टिकोण छाया रहता है।
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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